भाग्य का लेखा – नन्दिता मिश्र की नई कहानी

नन्दिता मिश्र | साहित्य | Apr 26, 2025 | 164

हमारे एक सुधि पाठक ने जब हमें यह कहा कि नन्दिता मिश्र की कहानियाँ सीधी-सादी होते हुए भी कहीं अंदर तक झिंझोड़ देती हैं तो हमें लगा कि संभवत: अधिसंख्य पाठकों की यही राय है। पिछले माह प्रकाशित उनकी कहानी ‘अंतर्मन का द्वंद’ काफी सराही गई थी। इस बार की यह कहानी भी आपको पसंद आएगी, ऐसा विश्वास है।

भाग्य का लेखा – नन्दिता मिश्र की नई कहानी 

मुकद्दर, भाग्य, नियती, लक, नसीब और भी बहुत से इससे मिलते जुलते शब्द होंगे। ये वो शब्द हैं जिनसे हम सबका कभी-न-कभी पाला पड़ता है। एक और शब्द है। शब्द क्या है पूरा वाक्य है ‘भगवान जो चाहेगा वहीं होगा, हम चाहे कुछ भी कर लें’। अच्छे से अच्छा आशावादी भी एक समय भाग्य या किस्मत की दुहाई देने लगता है। हमारी अम्मा सदा कहती रहीं जिसने मुंह दिया है वो खाने भी देगा। और सचमुच हम भाई बहनों ने उन्हें कभी भाग्य को कोसते नहीं देखा। लेकिन मैं उनकी इस सोच के बहुत  खिलाफ थी। अक्सर इस बात पर मेरी उनसे बहस हो जाती थी। वो सदा कहती थीं, बखत पड़ेगा तब देखूंगी। 

हम पांच भाई बहन हैं। सबसे बड़े, संकेत भैया वो अब नहीं हैं। उनकी पत्नी शालिनी हैं। साथ ही रहती हैं। उनसे छोटी हैं बड़ी जीजी। वे अपाहिज हैं। फिर मैं नीरा। पिताजी  की लाड़ली, इसलिए सबकी दुश्मन ही समझिये। फिर शशांक और सबसे छोटी बहन रेखा। पिताजी सरकारी नौकरी में थे।उनकी घर के प्रति सिर्फ एक जिम्मेदारी थी।हर महीने घर चलाने के लिये मां को पैसे देना। उनके दिये रुपये पैसों से अम्मा घर की व्यवस्था कैसे करती हैं इससे उन्हें कोई मतलब नहीं। अम्मा बहुत शांत स्वभाव की थीं। हमने उन्हें पिताजी से लड़ते झगड़ते,बात बहस करते कभी नहीं देखा।

मैं और शशांक एम ए प्रीवियस में पढ़ते थे। पिताजी ने एक दिन रात के भोजन के वक्त कहा, पढ़ाई पूरी होने जा रही है कुछ सोचा है आगे क्या  करना है। मैंने बता दिया अभी कुछ सोचा नहीं है। शशांक ने कहा वो इस साल म.प्र.राज्य की पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा देगा। तैयारी कर रहा है। मैंने बता दिया कि मुझे सरकारी नौकरी नहीं करनी है। अभी एम ए पूरा होने में समय है, तब तक सोच लूंगी। पिताजी ने कुछ कहा नहीं। लेकिन यही बात शशांक ने कह दी होती तो हंगामा कर देते। बेचारे को इतनी डांट पड़ती कि बस। लेकिन मुझसे कुछ नहीं कहा। खाने खाने के बाद रोज की तरह हम सब वहीं डायनिंग टेबल पर बैठ कर गप्पें मारने लगे। ये काम पिताजी के वहां से चले जाने पर होता था। जैसे ही वो उठ कर गये, शशांक ने कहा देखा, नीरा से कुछ कहा नहीं। यही बात मैं कह देता तो। अम्मा ने समझाया वो लड़की है। उसका क्या दूसरे घर जाना है नौकरी करे न करे। पर तुझे तो नौकरी करनी ही होगी। आगे का कुछ तो सोचना होगा या यूं ही भाग्य के भरोसे थोड़े छोड़ सकते हैं। रेखा तपाक से बोली, अम्मा भगवान जी जैसा चाहेंगे वैसा ही होगा। अम्मा अक्सर हर बात को भाग्य से जोड़ दिया करती हैं और हम सब उसकी हंसी उड़ाते हैं। बड़ी जीजी ने डांटा कि फालतू की बातें मत करो। उठो मुझे मेरे कमरे तक छोड़ कर आओ। मैं उन्हें व्हील चेयर पर बिठा कर उनके बिस्तर तक छोड़ आई।

वापस आई तो शशांक ने मुझसे कहा तू भी मेरे साथ पढ़ा कर, दोनों पीसीएस में बैठ जाते हैं। पास हो गये तो समझो तुक्का लग गया। बात आई गयी हो गयी। पर भाग्य की बात हम दोनों प्रतियोगी परीक्षा में बैठे और शशांक पास हो गया। मैं रह गयी। मुझे बहुत बुरा लगा। मैं बहुत दुखी हुई। सबने खूब समझाया। पर यह असफलता मेरे मन को सदा खलती रही। मेरा एम ए पूरा हुआ तब तक शशांक की नौकरी लग गयी थी और वह तहसीलदार बन गया। वो अपनी नौकरी  से बहुत खुश था। कुछ ऊपरी कमाई का जुगाड़ भी था। घर की हालत पहले से सुधर गयी थी। नाश्ते में कभी कभी ब्रेड बटर भी मिलने लगा। पिताजी  ने पूरे जीवन ईमानदारी से नौकरी की थी। उन्हें ये अच्छा नहीं लगता था। पर वे कुछ कहते नहीं थे। बड़े भैया कभी कभी शशांक को टोक देते थे। पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ा। 

पिताजी अवकाश प्राप्ति के बाद घर में रहते थे। शाम को थोड़ी देर पास के एक पार्क में घूमने और हम उम्र लोगों के साथ समय बिताने लगे। एक दिन पार्क में उनकी तबीयत बिगड़ी और अस्पताल पहुंचने से पहले उनका देहांत हो गया। अम्मा ने बड़ी हिम्मत दिखाई। सबको  सम्हाला। किसी के जाने  से कुछ बदलता नहीं है। धीरे-धीरे सब सामान्य हो रहा था तो एक सड़क दुर्घटना में बड़े भैया हमें छोड़ कर चले गये। अम्मा ने भाभी के दुख के आगे अपने दुख को कम आंका। पूरे समय इसी में लगी रहती थीं कि शालिनी दुखी न हो। करीब एक महीने बाद अम्मा ने उनसे कहा अब तुम काम पर जाना शुरू कर दो। पिताजी और बड़े भैया गये पर अम्मा तो थीं। 

आप समझ गये होंगे अब अम्मा चली गयी हैं। उनके जाने से मैं बहुत अकेली हो गई थी। कई सवाल मुँह बाए खड़े थे! कौन सम्हालेगा ये घर! घूम-फिर कर सारे नाते-रिश्तेदार मुझे ही देख रहे थे। मैं उनमें से हूं जिसने कभी हार नहीं मानी। अरे हो जायेगा। समस्या छोटी हो या बड़ी मुझे सदा ऐसा ही लगता है और मज़े की बात है देर सबेर थोड़ा धीरज रख लो तो बात बन जाती है। पर यहां तो परिस्थिति बड़ी विकट थी। बड़ी जीजी को कौन देखेगा। एक तो उनकी विकलांगता और ऊपर से उनका स्वभाव - तौबा तौबा।

‌एक मध्यम वर्गीय परिवार में एक अपाहिज बेटी की जिम्मेदारी बहुत बड़ी समस्या होती है। और वो भी सबसे बड़ी और उतना ही बड़ा  उनका रुतबा। उनके सामने कुछ कहना याने मुंहजोरी करना। सब डरते हैं। मैं तो उन्हें अपने घर का आतंकवादी कहती हूं। जब पिता जी थे तो हम दोनों शाम को बैठ कर आज जीजी ने क्या क्या करवाया जो नहीं करवाना चाहिये था, उसका जायज़ा लेते थे और उनकी हंसी उड़ाते थे। अम्मा बहुत गुस्सा होती थीं। अब क्या होगा क्या बड़ी बहनजी घर चलायेंगी। सभी असमंजस में थे। कमाने वाले तीन लोग। बड़ी भाभी सरकारी स्कूल में टीचर थीं। शशांक अब डिप्टी कलेक्टर हो गया था लेकिन उसका भी ट्रांसफर होने वाला था।

समझ नहीं आ रहा है अब घर  कैसे चलेगा, कौन चलायेगा। सबसे छोटी बहन ये बातें समझती नहीं थी। एकदम मस्त मौला। काश मैं भी ऐसी ही होती। पर इस बीच  मुझे एक गेस्ट हाउस की देख रेख का काम मिल गया। लिखाई पढ़ाई की वहां कोई महत्ता नहीं थी। आपका थोड़ा ठीक ठाक दिखना, थोड़ी अंग्रेजी झाड़ना ये मुख्य शर्तें थीं,जो मैं पूरी करती थी। मैं वहां मैनेजर हो गयी। घर में आर्थिक तंगी नहीं थी पर घर की व्यवस्था कौन देखेगा। हम तीनों के पास समय नहीं था। मैं तो रात देर से ही आ पाती हूं। घर मैं सबसे ज्यादा समय रहने वालों में बड़ी बहन और छोटी बहन।

चार दिन बाद हवन के बाद सभी रिश्तेदार अपने ठिकानों पर वापस चलें गये। पांचवें दिन जीजी का फरमान जारी हुआ आज रात का खाना सब एक साथ खायेंगे। मैंने बताया मुझे आते आते ग्यारह बज ही जाते हैं और आज चार पांच दिन बाद जाऊंगी तो जल्दी नहीं आ सकती। उन्होंने  बता दिया कि इस परिस्थिति में घर के लोग जो भी फैसला लेंगे वो मुझे मानना होगा। मैंने विरोध करना चाहिए पर बड़ी जी तो बड़ी जी हैं।  जो कह दिया सो कह दिया। मुंह बना कर गेस्ट हाउस आ गयी। यहां भी कुछ लोगों के मुंह बने हुए थे। वैसे सभी ने आ कर अम्मा के निधन पर शोक व्यक्त किया।

दिन कब बीत गया पता ही नहीं चला। अम्मा थीं तो एक-आध बार फोना फानी हो जाती थी। आज घर से कोई फोन नहीं आया। थोड़ा बुरा भी लगा। दोपहर में गेस्ट हाउस के मालिक आये। अम्मा के नहीं रहने पर शोक जताया और कहा कि रूम नं 7 में गुप्ता जी ठहरे  हैं उनका हर बार  की तरह विशेष ध्यान रखना और चले गये। ड्यूटी पूरी करके मैं नौ बजे के आसपास घर पहुंची। टेबल पर खाना लग रहा था। अम्मा के जाने के बाद तुरन्त बदलाव की हवा। छुटकी से पूछा तो उसने बताया जीजी ने कहा है रात नौ बजे खाना तैयार हो जाना चाहिए। सब एक साथ बैठ कर खायेंगे। जो लेट आयेगा वो चौके में जा कर अपना खाना परोसे और चाहे डायनिंग टेबल पर खाये या अपने कमरे में।

मैं कंधे उचकाते हुए और अपने कमरे में चली गयी। मुंह हाथ धो कर कपड़े बदले और जीजी के पास चली गयी। उन्होंने घूरते हुए कहा आ गयीं। चलो मुझे खाने की टेबल तक ले चलो। थोड़ी देर में सब इकठ्ठा हो गये। सब एक दूसरे को कनखियों  से देख रहे थे कि अब वे क्या कहेंगी। उन्होंने चुप्पी तोड़ी और कहा कि घर की व्यवस्था की जिम्मेदारी अब मेरी है। मुझे इस काम के लिए एक सहयोगी चाहिये। तुम तीनों तो नौकरी पर लगे हो अब छुटकी बचती है तो वही मेरी मदद करेगी। किसी को आपत्ति हो तो बता दे। हम सब चुप। तभी हुकुम हुआ खाना परोसो। सबसने चुपचाप खाना खाया। जैसे ही मैं उठने को हुई उन्होंने तर्जनी से बैठने का कड़क इशारा किया। अब से सभी लोग तनख्वाह मिलते ही घर खर्च के लिये अपना अपना हिस्सा मुझे देंगे। आज रात मैं शशांक के साथ बैठ कर तुम लोग जो कमाते हो उस हिसाब से सब तय कर लेंगे। अम्मा के साथ रहते रहते मैंने काफी कुछ सीख लिया है। एक बात साफ़ साफ़ समझ लो ये घर है होटल नहीं। जिसे जो बात बुरी लगे कह दे। मुझसे डरने की ज़रूरत नहीं हूं। तुम्हारी जीजी हूं। जो भी करूंगी सोच समझ कर करूंगी। तुम लोगों को शामिल करके तय करूंगी। किसको क्या जिम्मेदारी दी जायेगी, ये अगला महीना शुरू होने के पहले बता दूंगी।। ठीक है? गुड नाइट। नीरा मेरे कमरे में आ कर मुझे रात की दवा वगैरह दे दो। फिर तुम्हारी छुट्टी। शालिनी हाथ पांव में तेल लगाना मत भूलना।

मैं उन्हें व्हील चेयर से उनके कमरे तक ले गयी। दवा वगैरह दी। अचानक उन्होंने जो बात कही मैं पहले तो समझ नहीं पाई। जीजी ने कहा देखो मेरी बात ध्यान से सुनो। अभी अपने तक रखना। विषय गम्भीर है और बहुत नाज़ुक। वो मुझसे कह रही थीं, क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि हमें शालिनी की शादी कर देनी चाहिए? ये पहाड़ सी जिंदगी कैसे कटेगी? और क्यों काटे? अभी35/36 की ही तो है। क्या उसकी शादी नहीं हो सकती? मैं जीजी  को देख रही थी। मैंने कहा, भाभी नहीं मानेंगी। उन्होंने कहा, ये काम तेरा है कि तू अपनी भाभी को समझा। चल अब जा। सो जा। बाकी बातें बाद में। ये काम एक दो दिन में नहीं होते पर ये करना ही है! समझी!!

अपने कमरे में आकर मैं बड़ी जी की कही बातों पर हैरान हो रही थी। मैं जिन्हें आतंकवादी कहती हूं, संवेदनहीन और निष्ठुर मानती हूं, उनका मन ऐसा भी हो सकता है। कभी कल्पना भी नहीं की थी। बड़ी जी की शादी बहुत कम उम्र में कर दी गयी थी। हमारे जीजाजी पुलिस में थे और ठीक वैसे क्रूर पुलिस वाले जो हम फिल्मों में देखते हैं। एक एनकाउंटर में मारे गये। बड़ी कुछ महीने सुसराल में रहीं। फिर उन्हें लकवा लग गया, तब वे 23/24 की रही होंगी। उनके देवर और ससुर उन्हें मायके ले कर आये और साफ-साफ शब्दों में बता गये कि अब हम बहू को अपने यहां नहीं रख सकेंगे। बेटे के आफिस से जो कुछ मिलेगा वो इसे दे देंगे। हमारे पास जो कुछ है वो बेटे का दिया हुआ है। ईमानदारी से बंटवारा करेंगे और इसका हिस्सा इसे देंगे। तब से बड़ी जी मायके की हो गयीं। सुसराल वाले बुरे नहीं थे पर अच्छे भी नहीं निकले। साधन सम्पन्न होते हुए भी ना तो बहू को रख पाये और ना ही अपने कहे अनुसार कोई खास हिस्सा दिया। जीजी के स्वभाव में नाराजगी और चिड़चिड़ापन शायद इसी कारण बिंधा हुआ है। कभी कभी उनके बारे में सोच कर बुरा लगता है। पर क्या करें यही तो भाग्य होता है। उनका यही भाग्य है। मैं ये सब सोच रही थी कि छुटकी ने धड़ाम से दरवाजा खोला। मुझे उसकी ये आदत बहुत बुरी लगती है। बीसियों बार समझा चुकी हूं। सुनती ही नहीं।मैं ने उसे घूर कर देखा तो बोली, अरे यार सॉरी! भूल जाती हूं। क्या सोच रही हो। बताओ तो हमें भी पता चले। मैंने टाल दिया। सुबह की चाय भागम-भाग में होती है। फिर नौकरी पर जाने की तैयारी। जाते वक्त बड़ी जी के पास गयी तो कहने लगीं, एकाध दिन में शालिनी से बात करने की कोशिश करो। ये काम जल्दी निपटाना है।

इस बात को आठ दस दिन हो गये होंगे। बड़ी जी रोज़ इशारा करती हैं पर हिम्मत नहीं हो रही। बड़ी भाभी हैं, उनके प्रति जो  भावना है वो बराबरी की नहीं है। मैं उनका सम्मान करती हूं। उनसे उम्र में छोटी हूं और ओहदे में भी। एक दिन मैंने उनसे मेरे साथ बाजार चलने का आग्रह किया। हम दोनों ने जम कर खरीददारी की। एकाध बार उन्होंने टोका भी बड़ी जी नाराज होंगीं। पर मैंने अनसुनी कर दी। फिर हम एक छोटे सी कॉफी-शॉप में कॉफी पीने चले गये। वहां मैंने बिना किसी भूमिका के सीधे बात शुरू कर दी। भाभी आपने कभी अपने बारे में सोचा है। वो हैरान हो कर मुझे देखने लगीं। क्या सोचना है। क्या आप पूरा जीवन इसी तरह बिताने का इरादा रखती हैं? कुछ सोचें। फिर से शादी के बारे में सोचा है कभी। उन्होंने गर्दन नीचे कर ली।दोनों आंखों से आंसू टप-टप गिरने लगे।  कुछ देर बाद नॉर्मल हुईं। उन्होंने बताया ये बात उन्होंने तो नहीं सोची पर एक दिन अम्मा ने उनसे कहा था, शालिनी अपने भविष्य के बारे में कुछ सोचो। आगे बढ़ो। ये घर और बड़का को पीछे छोड़ो। नयी दुनिया बसाओ। मैं जाने से पहले ये जिम्मेदारी पूरी करना चाहती हूं। अम्मा ऐसा सोच सकती हैं इसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। उनने सोचा भी और कहा भी। मां हमारी अनपढ़ थीं पर अच्छे अच्छे पढ़ें लिखों को भी मात दे सकती थीं।  

मैंने भाभी से पूछा फिर आपने कुछ सोचा तो बोलीं बहुत सोचा पर मन से अभी इतने बड़े बदलाव के लिये तैयार नहीं हूं। अपने मन को मनाने में समय लगेगा। हम लोग कुछ देर और बैठे फिर घर आ गये। बड़ी जी मुझसे अकेले में बात करने का मौका तलाश रहीं थीं। छुटकी पीछा ही नहीं छोड़ रही थी बल्कि नाराज हो रही थी कि उसे अपने साथ क्यों नहीं ले गये। मौका मिलते ही मैंने बड़ी जी को जब अम्मा वाली बात बताई तो वे आश्चर्यचकित हो गयीं। अपनी अम्मा और ऐसी सोच। गज़ब। फिर ये मामला कुछ दिनों यूं ही पड़ा रहा। भाभी मुझसे अकेले में मिलने से कतराने लगीं।प हले हम दोनों कई बार रात देर तक पाकिस्तानी सीरियल देखा करते थे। कभी कभी बरामदे में बैठ कर गप्पें हांकते थे। अब वो सब बंद हो गया। मुझे बहुत बुरा लगता था उनका मुझसे यूं कतराना।

एक दिन आफिस जाते समय वो मेरे हाथ में एक पर्चा दे कर तेज़ी से निकल गयी। कहा, आफिस में जा कर पढ़ना। आफिस पहुंच कर पहली फुरसत में वो गुडी़मुड़ी पर्चा खोला। उसमें लिखा था, कुछ मन बन रहा है, रात को बरामदे में बैठ कर बात करेंगे।

मेरा दिन भर व्यग्रता में ही बीता। जाने शालिनी भाभी क्या कहेंगी। बहरहाल, रात भी आ ही गई। रात का भोजन बड़ी जी की व्यवस्था के अनुसार ठीक 9 बजे हो जाता था। हम लोग उसके बाद चौका उठा कर फुर्सते हो जाते थे। जो देर से आता अपनी व्यवस्था खुद करता। हमें भी खाना गर्म करने परोसने से मुक्ति मिल गयी। रात के खाने के बाद सब अपने अपने कमरों में चले जाते। 

मैं पहले ही बरामदे में दो कुर्सियां घसीट कर ले आई थी। भाभी जीजी को दवा दे कर आईं और बैठ गयीं। बिना कोई भूमिका बाँधें कहने लगीं, नीरा मैंने अम्मा के कहने के बाद से ही दूसरे विवाह के बारे में सोचना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे लगने लगा था कि जब तक तुम लोग हो, अपन सब एक साथ है तो सब ठीक है। फिर छोटे भैया की शादी हो जायेगी, क्या पता कैसी लड़की आये साथ रहना चाहे या न चाहे। फिर अम्मा के अचानक देहांत के बाद मैंने ये इरादा बिल्कुल छोड़ दिया था। मैं भी चली गयी तो बड़ी जी को कौन रखेगा। उनकी जिम्मेदारी भी तो हमारी ही है। इस बीच हमारे स्कूल में एक नये टीचर ने ज्वाइन किया है। मेरी उनकी ठीक पहचान हो गयी है। कुछ दिन पहले उन्होंने  शादी करने का प्रस्ताव रखा। मैंने सोचने का समय मांगा। मैंने उन्हें बताया कि मेरी एक अपाहिज ननद हैं। वो मेरी ज़िम्मेदारी हैं, इसलिए मैं आपसे शादी नहीं कर पाऊंगी। उनने स्टाफ के सहयोगियों से परिवार के बारे में सब जानकारी ले ली थी। वे बड़ी जी की जिम्मेदारी लेने तैयार हैं। तुम बताओ मैं क्या करूं। बड़ी जी के स्वभाव में पहले से बहुत नरमी आ गयी है फिर भी अपने साथ उन्हें रखने की बात जम नहीं रही है। ये तो मुझे भी कठिन लग रहा था। खैर। कोई जल्दी तो है नहीं सोचते हैं क्या करें। मैंने भाभी को बताया कि बड़ी जी ने ही मुझे आपसे शादी के बारे में पूछने कहा था। मैं अपने मन से इतनी बड़ी बात नहीं कह सकती थी। दूसरे दिन छुट्टी थी। मैं ने बड़ी जी को भाभी की बात बतायी। उन्होंने प्रस्तावित शादी के लिये हां कहा पर उनके साथ रहने से साफ इन्कार कर दिया। कहने लगीं ये मेरा अपना घर है, मैं यहां  से क्यों जाऊंगी। अभी ज़रूरी है शालिनी की शादी। उसकी तैयारी करो। उससे कहो वो उस टीचर को मिलवाने ले आये। मैं उससे मिलना चाहती हूं।

एक दिन वो सज्जन याने कमलकांत शाम को घर आये। काफी देर बैठे। सभी उनसे मिल कर बहुत खुश हुए। जो बात भाभी ने मुझे नहीं बताई थी वो उन्होंने हमें बताई ।उनकी भी ये दूसरी शादी होगी। पहली पत्नी को पीलिया हो गया था और डॉक्टर बीमारी की गम्भीरता समझ नहीं पाये। उसका देहांत हो गया। उसके जाने के बाद कमलकांत ने जगह बदलने का निर्णय लिया और रायपुर आ गये। वो बड़ी दीदी को सहर्ष साथ रखने तैयार है। एक बड़ा घर में रहे ये बहुत बड़ा आशीर्वाद है। पर बड़ी जी ने कहा देखो भाई अभी जरूरत नहीं लगती। आगे पीछे देखा जायेगा। अब बताओ कि अपने माँ-पिताजी को कब बात रहे हो और यह भी कि क्या उनसे भी बात करनी होगी? कमलकांत जी ने बताया कि पिताजी तो बहुत पहले ही नहीं रहे और माँ को वह काफी कुछ बात चुके हैं। सब उन्हें ही तय करना है और माँ को बताना भर है। जीजी ने कहा कि फिर तय कर लो कि शादी कब करनी है और किस तरह से। इसके बाद बड़ी जी ने बात पक्की करने के लिहाज़ से कमलकांत जी का टीका किया और हम सब उन्हें बाहर तक छोड़ने गये।

तय हुआ कि कोर्ट मैरिज होगी और एक रिसेप्शन। वो भी छोटे पैमाने पर। वैसा ही सब हुआ। शादी की तारीख तय हुई। पहले हमारे ही शहर में सिविल मेरिज हुई और फिर रिसेप्शन! कमल जी के परिवार से उनकी माँ सहित 10/12 लोग रिसेप्शन में आए। स्कूल के तो दोनों के साझे मेहमान ही थे।  हमारे यहां से 20/25 लोग शामिल हुए। हमारी बुआएं और मौसियां अपने दल बल के साथ आई थीं। खूब पंचायत कर रही थीं। बुआओं ने कहा देखो भौजी को गये अभी एक साल भी नहीं हुआ और इन लोगों ने शालिनी की दूसरी शादी कर दी। कुछ दिन तो रुक जाते। मौसियों के बीच भी यही चर्चा थी, जिज्जी होतीं तो ये शादी नहीं हो सकती थी। वे कभी तैयार न होतीं। हम उनकी बातें सुनकर आपस में नज़रें मिलाते और हँसते। तय हुआ कि इन्हें यह सब ना बताया जाए कि माँ भी यही करना चाहतीं थीं। सच्चाई  जान कर कहीं ये लोग माँ को ही बुरा-भला ना कहने लगें, वो हमसे बर्दाश्त नहीं होगा, ऐसा सोच कर हमने चुप रहना ही बेहतर समझा और उनके ताने सुनते रहे। 

मैं सोच रही थी हमने अम्मा के व्यक्तित्व को कैसा आंका। जब हम ही अपनी मां को ही नहीं समझ पाये तो ये बुआ लोग और मौसियां कैसे समझ सकती है। एक साधारण मध्यम वर्गीय परिवार की महिला इतनी सूझबूझ वाली। और बडी़ जीजी ने तो खैर गज़ब ही कर दिया।  अम्मा आज तुम होतीं तो कितनी खुश होतीं। तुम कहतीं सब भाग्य का खेल है। भगवान जो चाहेगा वहीं होगा, हम चाहे कुछ भी कर लें। भाभी को बिदा करके सब लोग बड़ी जी के पास बैठे। खूब बातें हुईं। हंसी ठठ्ठा सब। बड़ी जी ने कहा ये सब भाग्य का खेल है। एकाध  महीने पहले तक हमने सोचा भी नहीं था कि घर में शादी होगी और वो भी शालिनी की। अब मंझले की और नीरा की शादी एक साथ करेंगे। मेहमान भी एक साथ निपट जायेंगे और एक बेटी जायेगी और एक आयेगी। छुटकी तुरन्त बोल पड़ी, बड़ी जी ये भी भाग्य की बात है। जिसका जैसा भाग्य। मैं सोच रही थी... अम्मा.तुम होतीं तो कितनी खुश होतीं।

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वर्षों आकाशवाणी के समाचार सेवा प्रभाग और केंद्र सरकार के अन्य संचार माध्यमों में कार्य-रत रहने के बाद नन्दिता मिश्र अब स्वतंत्र लेखन करती हैं।



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