अन्तर्मन का द्वंद : नन्दिता मिश्र की नई कहानी
नन्दिता मिश्र की कहानियाँ आप पहले भी इस वेब-पत्रिका में पढ़ चुके हैं। हो सकता है कि उनकी यह कहानी आपको स्मरण कराए हिन्दी की एक प्रसिद्ध कविता की या आप उसे गीत कहना चाहेंगे। बहरहाल, फिलहाल तो आप यह कहानी ही पढिए और यदि उस गीत/कविता की याद आ जाए जिसका ज़िक्र अभी हमने किया तो आप कहानी के नीचे बने कमेन्ट बॉक्स में हमें भी बताइए कि आपको क्या याद आया?
अन्तर्मन का द्वंद
नन्दिता मिश्र
अभी हाल में जब मुझसे किसी ने पूछा कि आप क्या सिर्फ कहानियाँ लिखते हैं, आपकी कविताएं कभी दिखी नहीं तो मुझे पच्चीस बरस पहले की यादें सामने आ गईं। सच कहूँ तो वो यादें कभी बिसरी भी नहीं थीं और रह-रह कर मैं स्वयं को आज भी उसी चक्रव्यूह में पाता हूँ जिसमें पच्चीस बरस पहले फंसा था। उस समय की एक एक घटना ऐसे याद है जैसे ये सब कल ही हुआ हो। आज आप सबको वो कहानी सुनाता हूँ, शायद अपने मन की बात इस तरह लिख डालने से मैं अपनी ग्रंथियों से मुक्त हो पाऊँ।
तब मैं कुछ समय पहले ही अपना शहर होशंगाबाद छोड़ कर भोपाल आया था। करीब छ:-सात महीने के भीतर ये तीसरा मकान था जो मुझे गुलमोहर में मिला। जो पहला घर मैंने लिया था वहां पानी की बहुत दिक्कत थी। फिर दूसरा घर उसी इलाके में मिल गया। वहां रहते हुए मुझे चार-पांच महीने हो गये थे। अड़ोस-पड़ोस सब अच्छा था। गुजराती थे, बंगाली थे, बम्बई वाले और बिहारी भी। अभी इतना ही जान पाया था। सोच रहा था, धीरे-धीरे और खबर लगेगी। अकेला हूं। थोड़ी जान पहचान हो जाये फिर देखेंगे, ये सोचता रहा।
लेकिन उसका मौका नहीं आया। वो मकान इसीलिए छोड़ना पड़ा कि आसपास के कुछ लोगों ने मकान मालिक से कहा ये सज्जन पुरुष हैं,पर अकेले रहते हैं। इनके यार-दोस्तों की कमी नहीं है। जमावड़ा लगा रहता है। इससे मोहल्लेवासियों को शिकायत है। मकान मालिक गुप्ता जी भले आदमी हैं। उन्होंने बिना भूमिका बांधे फैसला सुना दिया। आप एक महीने के भीतर कोई दूसरा मकान देख लें। मैं हैरान हो गया। ऐसा क्यों? गुप्ता जी ने कहा कि मैं आपको किसी झंझट में फंसाना नहीं चाहता। यहां दो एक परिवारों की दादागिरी चलती है। वे चाहते हैं आप ये मकान खाली कर दें। वे क्या करते हैं किसी को पता नहीं। अगर मैं ऐसा नहीं करूंगा तो वो लोग आपको भी और मुझे भी उल्टा सीधा कहीं फंसा देंगे। बड़े लोगों के बीच उठते बैठते हैं। आप भले आदमी हैं कहां परेशान होंगे। उनने ये बात इतनी विनम्रता से कही थी कि मेरे इनकार करने का कोई कारण नहीं था। भलेमानस ने ये भी कहा कि नया ठिकाना वो देख देंगे। उन्होंने ही ये एक कमरे का छोटा सा व्यवस्थित मकान दिलवा दिया। मेरे पास ज्यादा सामान भी नहीं था, सो शिफ्टिंग बिना झंझट के हो गयी। छह सात दिन बाद एक कामवाली बाई भी मिल गयी। सुबह समय से आ कर सारा काम करके चली जाती थी। शनिवार-रविवार को दो समय आती थी और बाकी दिन सिर्फ सुबह। रात को कब लौटूं, ये अनिश्चित रहता है, इसलिए काम वाली को शाम को आने से मना कर दिया था।
ये घर पा कर लगा था कि यहाँ टिक सकूँगा और इस तरह एक चिन्ता दूर हुई। अब नौकरी खोजना शुरू किया। कुछ परिचित लोगों से मिला। दो चार अखबारों के दफ्तर गया। सम्पादकों से मिला। लेकिन कहीं काम नहीं मिला। कुछ अनुवाद और प्रूफ पढ़ने का काम मिल जाता था तो घर पर ला कर करता था। साथ ही लिखने-पढ़ने का शौकीन हूं, सो खाली समय में फिर से लिखना शुरू कर दिया।
कुछ ही दिन में होशंगाबाद की याद आने लगी थी। मां के हाथ के बना भोजन खाये बहुत दिन हो गये थे। भरवां भटे,चने की दाल के साथ तरोई या लौकी, बढ़िया चटपटा कुम्हड़ा, खट्टे मीठे करेले सब याद आने लगे। गरम-गरम खरी सिकी हुई घी से तरबतर रोटी। यही सब आनंद लेने मैं बीच-बीच में होशंगाबाद जाता रहता। दो-चार दिन कुछ मौज मस्ती करके वापिस आ जाता।
मेरे आने-जाने के रास्ते में एक प्रकाशक का आफिस रोज़ दिखता था। सोचा क्यों न अपना कविता संग्रह इन्हें दिखाऊं। उस दिन मैं घर से निकल कर सीधे 'संध्या प्रकाशन' के आफिस पहुंचा। पता चला मालिक किसी मित्र के साथ व्यस्त हैं। मैंने सेवक के हाथ से एक पर्ची अंदर भिजवा दी। मुझे थोड़ा इंतज़ार करने को कहा गया। थोड़ी देर बाद सेवक ने आ कर कहा साहब आपको बुला रहे हैं। मैं थोड़ा ठिठका कि अभी पहले वाले सज्जन तो बाहर आए नहीं हैं। बहरहाल, अंदर गया तो देखा कि उनके मेहमान संभ्रांत से दिखने वाले एक सज्जन हैं और वह मालिक अर्थात प्रकाशक से बहुत बेतकल्लुफ़ी से बात कर रहे हैं। मालिक ने नज़र भरकर मुझे देखा जैसे मुझे तौल रहे हों। फिर इंतजार करवाने के लिए क्षमा मांगते हुए उन्होंने मुझे सादर बैठाया और कहा बस ज़रा सा समय और दें। मैं अपने प्रति उनकी विनम्रता देखकर कुछ सकुचा रहा था और डर रहा था कि यह कहीं मुझे कोई बड़ा लेखक तो नहीं समझ रहे।
प्रकाशक अपने मेहमान को अंतिम बात के तौर पर कह रहे थे, सर मैं बहुत कोशिश कर रहा हूँ। आपको बताया ही है कि चार-पांच लोगों से बात भी हुई है और उन्हें वाजिब ऑफर भी दिये हैं पर अभी तक कोई तैयार ही नहीं हो रहा। वो सज्जन जाने के लिये तैयार तो पहले ही होंगे, तभी मुझे अंदर बुलाया गया था लेकिन अब वह खड़े हो गये और बोले, गिरीश मैं नहीं जानता, तुम्हें मेरा ये काम करना ही होगा, चाहे कैसे भी करो। जाते जाते उन्होंने मेरी ओर भी देखा और काफी गर्मजोशी से हाथ मिलाया। उनकी बातचीत का यह हिस्सा सुनने का यह लाभ हुआ कि मुझे प्रकाशक महोदय का नाम मालूम पड़ गया – गिरीश जी!
इस तरह उन सज्जन के जाने के बाद मेरी और गिरीश जी की बातचीत शुरू हुई। मैंने उन्हें बताया कि मैं कुछ अरसा पहले काम की तलाश में अपना शहर छोड़ कर भोपाल आया हूं। काम ढ़ूंढ़ रहा हूं। थोड़ा लिखता-पढ़ता हूं। एक कविता संग्रह छपवाना चाहता हूं। पैसा तो है नहीं। यदि आप मेरा ये संग्रह छाप दें तो मैं उसके बदले में आपके यहाँ बगैर वेतन के कुछ पार्ट-टाइम काम कर दूंगा। आप मुझ पर ये उपकार कर देंगे तो मैं सदा याद रखूंगा। इतना कह कर मैं थोड़ा घबरा गया कि छपास की लालच में मैंने ये प्रस्ताव कैसे रख दिया। ऐसा सोच कर तो यहां नहीं आया था।
इतनी हड़बड़ी में कही गई मेरी बात सुनकर गिरीश जी हंसने लगे, बोले, अरे कवि महोदय ज़रा सांस लो। अपन बात करते हैं न। जल्दी क्या है। अपना परिचय तो ज़रा ठीक से दो। भोपाल आने से पहले कभी कोई नौकरी की है। खर्चा पानी कैसे चलता है। पहले तो मैं आपकी पांडुलिपि देखूंगा। ठीक लगी तो सम्पादक मंडल के सामने रखूंगा। वे तय करेंगे कि ये छप सकती है या नहीं। बाद की बातें बाद में देखेंगे। मैं सिर्फ व्यापारी नहीं हूं। मैं भी थोड़ा पढ़ा लिखा हूं और एक लेखक की गति खूब समझता हूं। बोलो चाय पियोगे या कॉफी। फिर बातों का सिलसिला चल पड़ा। उनके मित्रवत व्यवहार से मैं भी खुलकर बात करने लगा और मैंने उन्हें अपने बारे में काफी कुछ बताया। बातचीत को विराम देते हुए उन्होंने पांडुलिपि पर निर्णय लेने के लिए एक हफ्ते का समय मांगा। मैं वहां से घर आ गया।
वो सात दिन जीवन के सबसे लम्बे सात दिन थे। कैसे कटे, मैं ही जानता हूं। सप्ताह खत्म होते ही संध्या प्रकाशन पहुंच गया। गिरीश जी ने कहा, बैठें कविवर! मैं उतावला हो रहा था अपनी पांडुलिपि के बारे में जानने को। उन्होंने पूछा क्या आप होशंगाबाद में एक कवि के रूप में जाने जाते हैं। मैं ने बताया कि नहीं। कुछ खास मित्रों के अलावा कोई नहीं जानता कि मैं कविता लिखता हूं। चलो फिर तो कोई दिक्कत नहीं होगी। मेरा एक प्रस्ताव है ध्यान से सुनना। जब आप पहली बार यहां आये थे तो आपको याद होगा कि यहां एक संभ्रांत पुरुष बैठे थे। वह सरकार में एक बड़े पद पर हैं लेकिन साथ ही वह मेरे अच्छे मित्र भी हैं। उन्हें अचानक कवि बनने की लगन लग गयी है। सरकारी कामों में और फिर सोशल लाइफ में खूब व्यस्त रहते हैं। लिखना पता नहीं आता है या नहीं लेकिन उन्होंने कहीं से सुन लिया है कि छद्म लेखक होते हैं... Ghost Writers! वो किसी दूसरे के लिये मांग के अनुसार गद्य-पद्य कुछ भी लिख देते हैं। उन्हें लिखने के पैसे मिल जाते हैं और दूसरे व्यक्ति को नाम और वाह-वाही। गिरीश जी की सहजता लगभग अविश्वसनीय थी। मेरी नज़र में जो बात एकदम अस्वीकार्य हो सकती थी, उसे वह एकदम निस्संकोच कह रहे थे।
लेकिन अभी उनकी बात पूरी नहीं हुई थी। गिरीश जी ने जैसे अपनी लंबी बात समेटते हुए कहा, देखो मैंने उनसे अभी बात नहीं की है और पहले तुम से पूछ रहा हूँ। क्या तुम अपनी कविताएं उन्हें दे सकते हो? वो उसका अच्छा मानदेय देंगे। यह सब बोल चुकने के बाद वह मेरी तरफ देखने की बजाय मेज़ की ड्रॉर में कुछ ढूँढने लगे। साफ था कि वह मुझे सहज होने का समय दे रहे थे। मुझे उनकी बात जंची नहीं। मैंने कहा, ये सम्भव नहीं। मैं लिखने का शौक रखता हूं। अपनी कविताएं इस तरह कैसे बेच सकता हूँ? यह कह कर मैं वहां से उठने लगा तो गिरीश जी फिर बोले, मुझे तुम्हारा उत्तर अभी नहीं चाहिए। तुम दो तीन-दिन इस पर विचार करो और मुझे बताओ। मैंने उनसे अनुमति लेते हुए नमस्कार किया और सीधा घर आ गया।
लौटते समय मुझे जाने क्यों, खुद पर ही कोफ़्त होने लगी। मैं सोच रहा था कि मैंने क्यों उन्हें पहली ही मुलाक़ात में इतना बता दिया कि उन्होंने इस किस्म का प्रस्ताव मेरे सामने रख दिया। यह सही है कि मेरे पास फिलहाल कोई नौकरी नहीं और अनुवाद, प्रूफ-रीडिंग आदि का इतना काम नहीं मिल रहा कि भोपाल जैसे शहर में किराया भी दे लूँ और बाकी खर्चे भी निकल आएं लेकिन घर से इतना गया-गुज़रा भी नहीं हूँ। घर वालों ने यह कह कर ही भोपाल भेजा है कि जाओ, अपने मन-मुताबिक काम मिल जाएं तो ज़रूर करो।
ये सब सोचते-सोचते घर पहुँचा और बिना कुछ खाए-पिए बिस्तर पर लेट गया। साइड-टेबल पर रखी पुस्तक उठाई और पढ़ने के लिए वो पृष्ठ ढूँढने लगा जहां तक मैं पढ़ चुका था। लेकिन बहुत कोशिश करने पर भी मैं सही जगह नहीं पहुँच पा रहा था क्योंकि रह-रह कर मेरे दिमाग में गिरीश जी से हुई बातचीत ही घूम रही थी। मैं जितना भी ध्यान हटाने की कोशिश कर रहा था, घूम फिर कर फिर स्वयं को संध्या प्रकाशन के कार्यालय में गिरीश जी के सामने पाता था। अब उनके प्रस्ताव से अलग मेरे दिमाग में उनसे हुई बातचीत के वो हिस्से आने लगे जिसमें वह उन सज्जन के बारे में बता रहे थे। गिरीश जी ने बताया था कि उच्च अधिकारी हैं, प्रदेश सरकार में प्रभावशाली हैं और अभी केंद्र सरकार में कई वर्ष सेवाएं देकर भोपाल लौटे हैं। मुझे पता भी नहीं चला कि मैं कब योजनाएं बनाने लगा और सोचने लगा कि अगर वो बड़े अधिकारी हैं और मुझे सरकारी नौकरी दिला सकते हैं तो मैं इस बात के लिये राज़ी हो सकता हूं। पर एक शर्त रहेगी। इस पुस्तक के बाद मैं उनके लिये कुछ नहीं लिखूंगा। वो ये कविताएं मुझसे खरीद लें और मुझे कोई नौकरी दिलवा दें। यह सब सोचते-सोचते मैं कब सो गया, मुझे पता नहीं चला।
अगली सुबह मैं दुविधा में नहीं था और बिना यह चिंता किए कि वह क्या सोचेंगे, मैंने गिरीश जी को जा कर अपना फैसला बता दिया । उन्होंने मेरे सामने ही फोन करके उन अधिकारी को कहा कि आपका काम हो सकता है लेकिन आपको फिर एक बार हमारे यहाँ आना होगा। वह तुरंत आने को राज़ी हो गए। गिरीश जी ने मुझे इंतज़ार करने को कहा। उनके आते ही हम दोनों का परिचय करवाया और तब मुझे पता चला कि उनका नाम नीतीश कुमार है। गिरीश जी ने तुरंत ही मेरा प्रस्ताव उनके सामने रख दिया। प्रस्ताव सुनकर नीतीश जी प्रसन्न तो लगे लेकिन उनके चेहरे पर एक असमंजस भी था। बोले कि मैं झूठ बोलकर आगे नहीं बढ़ना चाहता। आपकी योग्यता के अनुसार जो नौकरियां होती हैं, उन पर नियुक्तियों की एक प्रक्रिया होती है। मैं आपको अस्थाई तौर पर तो नियुक्त कर सकता हूँ लेकिन स्थाई नौकरी का कोई आश्वासन नहीं दे सकता। हाँ, आपको आपकी योग्यता के अनुसार कान्ट्रैक्ट पर लगातार काम दे सकता हूँ जिससे आपको नौकरी की कमी अनुभव नहीं होगी। मैं उनकी साफगोई से बहुत प्रभावित हुआ और तुरंत हामी भरी। गिरीश जी ने हाथों-हाथ एक अनुबंध पत्र बनवाया और सारा मामला तय हो गया।
इसके बाद नीतीश कुमार जी ने बताया कि वह जल्द ही मुझे अपने कार्यालय बुलवाएंगे। फिर साथ ही मुझे आगाह किया कि जब भी आप मेरे कार्यालय आएंगे तो मैं सिर्फ सरकारी काम-काज के लिये आपसे सम्पर्क में रहूंगा। आफिस में आपको ये ज़ाहिर नहीं होने देना है कि अमुक काम आपको मेरे कारण मिला है। मुझे क्या आपत्ति हो सकती थी। लंबी बात ना कहते हुए बस इतना बता दूँ कि मैं इस तरह अपनी कविता बेच कर कुछ ही हफ्तों बाद जन सम्पर्क विभाग में अस्थाई सहायक बन गया। मुझे 11 महीनों का नियुक्ति पत्र मिल गया। वहाँ मेरा काम प्रेस विज्ञप्तियाँ बनाना और सरकारी विज्ञापनों का मसौदा बनाना था।
कार्यालय में काम करते हुए मुझे समझ आ गया कि नीतीश जी उच्च-पदस्थ अधिकारी थे। वह बहुत सुलझे हुए थे और मैंने पाया कि उनके मातहत काम करने वाले सब लोग उनसे खुश रहते थे। मैं भी खुश था पर उनकी सलाह के अनुसार एक दूरी बनाये रखता था।
एक दिन कुमार साहब ने मुझे आने वाले रविवार की शाम को अपने घर पर बुलाया। मैं थोड़ा आशंकित हो गया कि जाने क्या मामला है। बहरहाल, मैं उनके दिए समय से कुछ पहले ही उनके बंगले पर पहुंच गया।
बंगले पर पहुंचा तो देखा बहुत सी गाड़ियां खड़ी थीं। कोई समारोह था शायद। मैं एक कोना देख कर बैठ गया और कुमार साहब को मैसेज कर दिया। लोग आते जा रहे थे और अंदर से आने वाला शोर बढ़ता जा रहा था। कुछ देर बाद कुमार साहब ने मुझे अंदर बुलाया। मुझसे कहा ये सब मेरे मेहमान हैं। तुम इनका ध्यान रखो। मैं कुछ कह पाता, उससे पहले वो वहां से चले गये। थोड़ी देर बाद एक सज्जन ने सब को शांत रहने का इशारा किया। ऐसा लगा कि वह कोई घोषणा करने वाले थे। वहां उपस्थित सभी लोगों का उन्होंने अभिनंदन किया। अपनी बात शुरू करते हुए कहने लगे कि हमारे सहयोगी कुमार साहब का एक हुनर हम सबसे छिपा हुआ है। क्या आप जानते हैं वे कवि हैं? जवाब में शोर होने लगा नहीं नहीं। जाने क्यों मैं थोड़ा घबरा रहा था। शांत रहें। आज उनका पहला काव्य संग्रह प्रकाशित हो गया है....'एक जहां ये भी'....।आज उस संग्रह का विमोचन होगा। पूरे हाल में चहल पहल तेज हो गयी थी। इतने में आवाज आई ,भाई आनन्द दीक्षित जहां कहीं भी हों यहां आ जायें। मैं इधर उधर देखने लगा कि ये कौन हैं। इतने में कुमार साहब ने मेरी तरफ देखा और कहा आओ आनन्द इधर आओ। लोगों के बीच से एक आवाज गिरीश जी की भी आई। जाओ आनन्द ,मि.कुमार तुम्हें बुला रहे हैं।
मैं पसीना पसीना हो रहा था। कुछ समझ नहीं आ रहा था। धीरे धीरे कुमार साहब की ओर बढ़ा। वहां पहुंचते ही उन्होंने मुझे गले से लगा लिया। कहने लगे तुम्हें तो मेरे पास होना चाहिये था। तुम मेरे गुरू हो। उन्होंने मेरा वहां उपस्थित लोगों से परिचय करवाया और कहा ये आनन्द दीक्षित हैं। आयु में मुझसे बहुत छोटे लेकिन कविता में मेरे गुरु यही हैं। इन्होंने मेरे मन में छिपी कविता को उभारा है। अगर ये मुझे प्रोत्साहित न करते तो आज यह संग्रह प्रकाशित न हो पाता। मैं इनका बहुत आभारी हूं। मेरी पुस्तक का विमोचन श्री आनन्द जी करेंगे। उन्होंने मेरे हाथ में पुस्तक की एक प्रति रखी। खादी सिल्क के कपड़े में लिपटी हुई एक छोटी सी किताब। मेरे सपने, मेरा शौक जो मैं किसी को बेच चुका था, मेरे हाथों में था। मैंने कांपते हाथों से उस पर बंधा लाल रिबिन खोला और पुस्तक खोल कर चारों ओर घुमायी। फिर पुस्तक खोलने की औपचारिकता की तो अचानक मेरी नज़र अपने नाम पर पड़ी। कुमार साहब ने वो किताब मुझे सस्नेह समर्पित की थी। साथ ही यह लिखा था कि इनके सहयोग और मार्गदर्शन के बिना ये काम कभी पूरा नहीं हो सकता था। मैं इनका सदा इनका ऋणी रहूंगा।
मेरी आंखें भर आईं - खुशी से या दुख से, यह फैसला मैं आज इस घटना के 25 बरस बाद भी नहीं कर पाया। चारों ओर से लोग आ कर कुमार साहब को बधाई दे रहे थे। मैंने धीरे-धीरे भीड़ से अपने को अलग किया और फिर अवसर पाकर वहां से बाहर आ गया।
थके हुए कदमों से घिसटता हुआ घर आ गया। चेहरे पर पानी के खूब छींटे मारे। कुछ हल्का लगा। विचारों के घटाटोप में कुछ स्पष्ट नहीं सोच पा रहा था। खोया-पाया का लेखा-जोखा करने लगा और सोचने लगा कि नाम कमाने आया था, वो तो कमाया नहीं पर एक अस्थाई ही सही, सरकारी नौकरी मिल गयी थी। मां भी इसी में खुश थीं। सरकार में घुसने की बड़ी क़ीमत है। कविता का क्या है। मैं फिर से लिखना शुरू कर दूंगा।
सोचा तो था कि खूब कविताएं लिखूँगा लेकिन पता नहीं उस दिन के बाद कविताओं पर जैसे ग्रहण लग गया। गद्य में लेखन जारी रहा लेकिन कविता तो आज तक नहीं उपजी। ऐसा क्यों हुआ, इसका कोई कारण समझ नहीं आया। इसके बाद मैं करीब साल भर और उसी कार्यालय में रहा लेकिन मुझे नीतीश कुमार जी की कृपा पर ज़्यादा निर्भर नहीं रहना पड़ा। होशंगाबाद में मुझे कॉलेज में अस्थाई तौर पर अध्यापन का कार्य मिल गया था और बाद के वर्षों में वहीं मेरी स्थाई नियुक्ति भी हो गई। इस काम में मैंने निश्चय करके नीतीश जी से कोई मदद नहीं ली।
आज पच्चीस बरस बाद भी मैं निर्णय नहीं कर पा रहा कि मैंने अपनी कविताएं इस रूप में बेचकर क्या सही किया था? अंतर्मन के इस द्वंद युद्ध में बस मौन ही चिल्लाता रहा जाता है..हार जीत कुछ नहीं होती बस यहां एक शून्य शेष रह जाता है...।
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वर्षों आकाशवाणी के समाचार सेवा प्रभाग और केंद्र सरकार के अन्य संचार माध्यमों में कार्य-रत रहने के बाद नन्दिता मिश्र अब स्वतंत्र लेखन करती हैं।