तर्क के आतंक से मुक्ति: सहज बुद्धि की खोज
आज हम एक ऐसे दौर से गुज़र रहे हैं जब हम सभी को अपनी तर्क बुद्धि पर बहुत भरोसा है। लेकिन डॉ मधु कपूर के दार्शनिक निबंधों को कभी-कभार भी पढ़ लेने वाले पाठक अब तक यह समझ गए होंगे कि दर्शनशास्त्र स्थापित अवधारणाओं के बिलकुल ही अलग जाकर नई प्रस्थापनाएं करता है। आज का लेख अंतर्ज्ञान यानि (intuition)को तो रेखांकित करता ही है, साथ ही यह भी बताता है कि तर्क को कैसे चुनौती दी जा सकती है और यह भी कि असली ज्ञान-चक्षु खोलने हैं तो ऐसी चुनौतियाँ देनी आवश्यक भी हैं। हमारा विश्वास है कि ऐसे लेखों से पाठकों की और अधिक जानने की रूचि बढ़ेगी।
तर्क के आतंक से मुक्ति: सहज बुद्धि की खोज
डॉ मधु कपूर
एक पुलिस अधिकारी के बारे में प्रसिद्ध था कि वह कई लोगों के बीच में से सिर्फ देखकर बता देते थे कि उनमें से अपराधी कौन है और उनका यह अनुमान हमेशा सही निकलता था. यहाँ तक कि एक बार तो उन्होंने अपने मातहत काम करने वाले कर्मचारी की ही चोरी पकड़ी। देखा जाए तो हम सबको ऐसा बेचैन करने वाला एहसास कभी न कभी होता है ㅡ ‘मुझे महसूस हो रहा है कि वह इस काम के लिए सही व्यक्ति हैं’ या फिर मन में भाव आता है ‘इससे सावधान रहो,’ 'आज इस रास्ते से नहीं जायेंगे' — और बाद में पता चलता है कि उस रास्ते पर कोई दुर्घटना हुई थी। ऐसा अक्सर पशुओं के साथ होता है। सुनामी के समय पशुओं के अन्दर एक प्रकार की खलबली मच जाती है या भूकंप आने के वक्त वे इधर उधर भागने लगते है। अक्सर लोग इसे पशुओं की सहजात वृत्ति मानते हैं । ‘अंतरात्मा की आवाज़’ एक आम प्रचलित मुहावरा शायद इसी का एक स्वरूप है ।
हालाँकि, कुछ लोग इस अनुभूति को ग़लतफ़हमी कहते है या इसका मजाक उड़ाते है। पर यह तो एक जबरदस्त अनुभूति हैं। अकारण ही यह बिना किसी स्पष्ट प्रमाण के निर्णायक मोड़ ले लेती है— जैसे बिना अगली नौकरी मिले ही नौकरी छोड़ना या किसी नए देश में बसना, या बचपन में ही संगीत, गणित, नाटक इत्यादि के प्रति रुझान का होना । ऐसा निर्णय किसी धुँध से जन्म लेता है, जो अंधेरे में किसी चट्टान से कूदने के समान होता है। जैसे नंबर-गेम खेलता हुआ कोई खिलाड़ी यह कहे: “मुझे लगता है मुझे छह मिलेगा!” और उसे छह मिल भी जाता है। यह केवल जुए में ही नहीं, बल्कि उन तमाम परिस्थितियों में होता है, जहाँ व्यक्ति व्याकरणिक नियमों के बाहर अथवा प्राप्त सूचना के पार देखने लगता है। शेयर बाज़ार में काम करने वाले लोग रोज़मर्रा की स्थितियों में तेज़ी से मौखिक फैसले लेते हैं ताकि उन्हें अधिक से अधिक आर्थिक लाभ पहुँचे।
पी सी सरकार (विख्यात जादूगर)की अपनी पत्नी (तब होने वाली पत्नी) से भेंट होते ही उन्हें यह अहसास हो गया था कि उनका विवाह उसी लड़की से होगा। यों भी आपने सुना होगा कि कभी-कभी दो प्रेमी केवल एक ही झलक में एक दूसरे को इतना पसंद कर लेते हैं कि एक बार देखकर ही आजीवन वैवाहिक बंधन में बंध जाते है। विभिन्न क्षेत्रों में इस अंतर्ज्ञान (intuition) का प्रयोग विभिन्न प्रकार से होता है । कुछ मनोवैज्ञानिक इसे अनुभव की गहराई तथा अवचेतन स्तर पर cognitive pattern को समझने की अंतर्दृष्टि का ही परिणाम मानते हैं। कुछ इसे स्वाभाविक प्रवणता मानते है, जबकि अन्य कुछ इसे मस्तिष्क में संचित स्मृतियों, पिछले अनुभवों और व्यक्तिगत ज़रूरतों के विश्लेषण के आधार पर लिया गया फैसला मानते हैं। उदाहरण के लिए, बीस वर्षों का अनुभव रखने वाली एक नर्स, एक साल की अनुभव वाली नर्स की तुलना में कहीं अधिक परिपक्वता से निर्णय ले सकती है, क्योंकि वह अधिक जटिल स्थितियों से गुज़र चुकी है और उसके पास संभावित परिणामों की एक समृद्ध स्मृति होती है। अपराध मनोविज्ञानी अपराधियों के साथ रहकर उनकी गतिविधियों का निरंतर निरीक्षण करते है, वे यह बेहतर समझ सकते है कि किस स्थिति में अपराधी कैसा व्यवहार करेगा। अनुभवी चिकित्सक अक्सर बिना परीक्षण करवाए मरीज़ के रोग का सही निदान निकाल लेते हैं और लैब द्वारा किये गए टेस्ट अनुभवी चिकित्सक केवल कन्फर्मेशन के लिए देखता है। बहुत बार ऐसा भी देखा गया है कि अनुभवी चिकित्सक लैब रिपोर्ट के विरुद्ध जाकर भी निर्णय लेता है और सही सिद्ध होता है। एक माँ को अचानक महसूस होता है कि उसका बच्चा ठीक नहीं है, और वह समय पर हस्तक्षेप कर लेती है — भले ही बच्चा कुछ न कहे।
पर हमारा समाज अक्सर अंतर्ज्ञान या इंट्यूशन को कमज़ोर मानता है और तर्क की प्रशंसा करता है। आज वैज्ञानिक मानते हैं कि यदि उचित परिप्रेक्ष्य और अभ्यास के साथ इसका उपयोग किया जाए, तो ये सहज प्रतिक्रियाएँ अत्यंत मूल्यवान सिद्ध हो सकती हैं। इसलिए अंतर्ज्ञान को तार्किक सोच की प्रक्षेपण भूमि (launch pad) के रूप में देखकर भी इसके निष्कर्ष को उपेक्षित नहीं किया जाना चाहिए। यह अनुभूति तर्क के कगार पर पहुँचकर तर्क को नकारता हुआ एक लम्बी छलांग लगाता है। तर्क की विचलित जल तरंगों में सहजता से ज्ञान की उपलब्धि संभव नहीं हो सकती है, पर शांत स्थिर जल में तल को स्पष्ट देखा जा सकता है। इस तरह इस अनुभव को अतार्किक न कहकर, अ-तार्किक कहना चाहिए अर्थात तर्क से उत्पन्न होकर भी तर्क से बाहर ।
श्री अरविंद के लिए अंतर्ज्ञान “साम्य से प्राप्त ज्ञान” (knowledge by identity) के क्षेत्र में आता है। तात्पर्य है कि व्यक्ति दूसरों की अनुभूति से स्वयं को इतना अधिक एकात्म कर लेता है कि उसे सामाजिक परिप्रेक्ष्य में न्याय, उदारता, सहयोगिता इत्यादि के सम्बन्ध में सहज बोध होने लगता है। कलाकार और लेखक इस तरह अपने विषय के साथ तादात्म्य स्थापित कर उनका उपयोग अपने सृजनात्मक कार्य में करते है । एक कवि या चित्रकार को अचानक कोई पंक्ति या छवि सूझ जाती है — जो तार्किक सोच से नहीं आती, बल्कि भीतर से उपजती है और लगता है — "यही सही रास्ता है।" जैसे कविता की ये पंक्तियाँ “धूप ने चुपके से आँसू पोंछे” या “चाय की प्याली में शाम उतर आई” एक सहृदयता का तथा शाम के एकाकीपन की अभिव्यक्ति कराता है, जो अनायास ही कवि के दिमाग में कौंध जाती है। भर्तृहरि इसकी तुलना ‘बिजली की चमक’ से करते है ।
अंतर्ज्ञानवादी गणितीय ज्ञान को इसका उदाहरण मानते हैं । उनके अनुसार सभी गणितीय ज्ञान केवल शुद्ध अंतर्ज्ञान के रूपों से प्राप्त होते है—जो इन्द्रियज नहीं होते है । जैसे किसी गणितज्ञ को अचानक किसी प्रमेय की सच्चाई का बोध होता है, बिना किसी औपचारिक प्रमाण के—यह बोध ही अंतर्ज्ञान कहलाता है।
जैसे पशु-पक्षियों में घोंसले बनाने की, मछलियों में तैरने की, पक्षियों में उड़ने की प्रवृत्ति सहजात होती है । उन्हें इसके लिए किसी शिक्षण की आवश्यकता नहीं होती है । उसी प्रकार मनुष्यों में भी रचनात्मक प्रवृत्ति सहजात होती है, जिसे प्रतिभा कहा जाता है । प्रतिभा ऐसा सेतु है जो सीमित भंडार से भी असीमित रचनायें करने में सक्षम होती है । ७ ही सुरों के आधार पर असंख्य संगीत सृजन और कुछ ही वर्णों के माध्यम से अनंत काल तक साहित्य सृजन किया जा सकता है। और ऐसा सभी क्षेत्रों में देखा जाता है। भर्तृहरि के अनुसार भाषा चेतना का प्रवाह है और प्रतिभा उसकी गति है। विख्यात स्पेनिश चित्रकार साल्वाडोर डाली (Salvador Dalí 1904-1989) की चित्रकला ‘पिघलती हुई घड़ी’ ‘तैरते हाथी’ इसी अंतर्ज्ञान के कमाल है और इन कृतियों की चर्चा आज भी होती है। मुक्तिबोध की कविता “अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब” ㅡआभास देती हैं तर्क की दीवारें तोड़ने की आवश्यकता है। विज्ञान के प्राथमिक सत्य कुछ इसी तथ्य की ओर संकेत करते है जिन्हें स्वतः प्रणोदित कहा जाता है। कार्ल पापर अपनी आत्मकथा में कहते है कि विज्ञान के सत्य भी प्राथमिक रूप से इसी सहज अनुभूति से प्राप्त होते है, जिनका बाद में विश्लेषण किया जाता है ।
आपने बौद्ध धर्म की शाखा ज़ेन बुद्धिज़्म द्वारा अपनाई गई एक जापानी ध्यान पद्धति का उल्लेख देखा होगा जिसे वो लोग 'कोआन' (Koan) कहते हैं। कोआन में जिज्ञासु को तर्क को चुनौती देना सिखाया जाता है और इससे तार्किकता का अतिक्रमण कर अंतर्ज्ञान का उदय होता है। जैसे एक हाथ से ताली बजने पर ध्वनि कैसे होती है, इस अनाघात ध्वनि का एहसास उसे ही हो सकता जो उस शून्य में डूब चुका है।
इस सहज बुद्धि का उपयोग हम अपने दैनंदिन जीवन में भी अनुभव करते है । जैसे रसोई में खाना बनाते समय किसी सब्जी को कितना पकाना है, कितना मसाला डालना है, चार लोगों के लिए बने खाने को छ: में कैसे बांटना है इत्यादि का अनुपात व्यक्ति अपनी सहज बुद्धि से, आँखों के अंदाज़ से कर लेता है। दो किलो मीटर टहलने के लिए हमें दस मिनट लगते ㅡऐसा कहने के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती है। इस सहज बुद्धि को हम तर्क के उन्माद में खोते जा रहे है। घर में फर्नीचर को स्थापित करने के लिए ज्यामिति सीखने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। आसमान में बादल है तो छाता लेकर निकलने के लिए सहज बोध की जरूरत होती है। जल्दी पहुँचने के लिए ‘शार्ट कट’ रास्ता नक़्शे में खोजने के बजाय सहजबुद्धि ही सहायक होती है। दुनियादारी के कितने ही किस्से हमें इस सहज बुद्धि का एहसास करा देते है। कब किस परिस्थिति में नैतिक नियमों का पालन करना है, इसका हिसाब किताब हम खुद ही लगा लेते है। पानी में डूबी लकड़ी टेढ़ी नहीं होती है। कोई भी वस्तु एक ही साथ हरी और लाल नहीं हो सकती है, इसके लिए तर्कशास्त्र पड़ने की आवश्यकता नहीं होती है। कहने का तात्पर्य है कि किताबी विद्या कई बार हमें बड़ों से डांट तक पड़वा देती थी।
David Hilbert, विख्यात गणितज्ञ, के विरोधाभास से इस लेख का समापन रुचिपूर्ण होगा। संख्यायें एक ओर सीमित होती है, दूसरी ओर उन्हें अनंत कहा जाता है। वे एक काल्पनिक हिल्बर्ट होटल का उदाहरण देते है, जहाँ सभी कमरे अतिथियों से भरे है। जैसे ही कोई नया अतिथि आता है, मैनेजर उसे ठहराने के लिए एक नंबर वाले अतिथि का कमरा खाली करवा कर उसे दो नंबर में भेज देता है और इसी तरह हर अतिथि को उसके अगले नंबर के कमरे में। यदि अचानक अनन्त अतिथि आते है तो वह सभी असम-संख्यक कमरों को खाली करवा कर उनमे आने वाले नए अतिथियों को ठहरा देता है। सभी अनन्त अतिथि अनन्त कमरों में ठहर जाते है। इसी तरह अनंत सीटों वाली बसों में भी उन्हें बैठाया जा सकता है। आप इन्टरनेट पर Hilbert's paradox of the Grand Hotel और या फिर Infinite Hotel Paradox ढूंढेंगे तो शायद यह सिद्धांत समझने में आसानी होगी। वे दिखलाते है कि अनन्त की धारणा सीमित संख्याओं का अद्भुत खेल है जो हमारी तर्क व्यवस्था को चुनौती देती है। इस पद्धति से हमारी सीमित प्रणाली वाली तर्क व्यवस्था चरमरा जाती है। पर ‘अनन्त की धारणा’ अद्भुत तरीके से सब कुछ आसानी से हल कर लेती है। इससे हमें एक वार्ता भी मिलती है कि हमारा दिल चाहे कितना भी छोटा हो उसमें हमेशा दूसरों के लिए जगह बनाई जा सकती है। सीमित और असीमित के सह-अस्तित्व का अद्भुत खेल।
*********

डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance प्रकाशित हुआ है।