राजनीति में हिस्सेदारी करें – वहाँ आपका इंतज़ार हो रहा है

विद्या भूषण अरोरा | समाज-एवं-राजनीति | Jun 28, 2021 | 79

“राजनीति में हिस्सेदारी करें – वहाँ आपका इंतज़ार हो रहा है” शीर्षक देखकर आपका इस स्तंभकार से ये वाजिब सवाल बनता है कि मैं आखिर कौन होता हूँ, आपको ये आग्रह करने वाला! इसका संक्षिप्त उत्तर ये है कि मैं तकनीकी रूप से एक ‘वरिष्ठ नागरिक’ हो चुका हूँ और ‘साठा सो पाठा’ कहावत में जिस परिपक्वता (पाठा) की बात की गई है, वह चाहे मुझ में ना आई हो लेकिन एक सजग नागरिक के तौर पर और खास तौर पर एक वरिष्ठ नागरिक के तौर पर मुझे यह अधिकार है कि मैं जिन सामाजिक-राजनैतिक विषयों पर उद्वेलित महसूस कर रहा हूँ, उन पर अपनी राय आग्रह के रूप में भी रखूँ!

18वीं शताब्दी में जन्मे ब्रिटेन के प्रसिद्ध राजनीति विश्लेषक सेम्यूल जॉनसन की प्रसिद्ध टिप्पणी कि ‘देशभक्ति बदमाशों की आखिरी जगह है’, का इस्तेमाल ‘राजनीति बदमाशों की आखिरी जगह है’ के तौर पर ज़्यादा होता रहा है। कुछ लोग तो इस कथन को जॉर्ज बर्नाड शॉ के नाम से दोहराते रहते हैं और राजनीति और राजनीतिज्ञों को गाली देने के लिए (उनकी आलोचना करने के लिए) इसका इस्तेमाल करते हैं। हमारे देश में राजनीति और राजनीतिज्ञों को गाली देने का काम ज़्यादातर मध्यम-वर्ग और ऊंची जातियों के लोग करते हैं। यह अलग बात है कि पिछले तीन दशकों में पिछड़े वर्ग की जातियों के राजनीति में ख़ासी जगह बना लेने के बावजूद सत्ता का इस्तेमाल अभी भी वही वर्ग ज़्यादा कर रहे हैं जो राजनीति और राजनीतिज्ञों को गाली देते हैं।

हमारी ऐसे लोगों से यह शिकायत नहीं है कि वह राजनीति और राजनीतिज्ञों को गाली क्यों देते हैं, या उनकी आलोचना क्यों करते हैं। बिला शक यह उनका ना सिर्फ लोकतान्त्रिक अधिकार है बल्कि एक  स्वस्थ लोकतन्त्र का लक्षण भी है। हमारी शिकायत ये है कि ऐसे लोग ना केवल अपनी ज़िम्मेवारी से भाग रहे होते हैं बल्कि इनमें से बहुत से लोग तो कई तरह से ऐसे अनैतिक कृत्यों में लिप्त होते हैं जिन्हें दुर्भाग्य से एक तरह की सामाजिक स्वीकृति मिल चुकी है। उदाहरण के लिए तरह-तरह के उपाय करके अपने हिस्से के कर (टैक्स) ना चुकाना, अपने सामाजिक-आर्थिक प्रभाव का इस्तेमाल करके तरह-तरह की सहूलियतें बटोरते रहना और यदि वो प्रभाव काम ना करें तो रिश्वत देकर भी काम करवाना इत्यादि।

राजनीति और राजनीतिज्ञों की आलोचना करने वाले लोगों को इन लोगों को बमुश्किल ही ये जानकारी होती है कि इनका इलाका किस म्युनिसिपल वार्ड में पड़ता है, स्थानीय स्तर पर इनका प्रतिनिधित्व कौन कर रहा है। इसके विपरीत मध्यम-वर्गीय बसावटों के मार्जिन्स पर बने स्लम या निम्न-मध्यमवर्गीय इलाकों में ना केवल सार्वजनिक कार्यों के लिए बल्कि व्यक्तिगत कार्यों में आ रही अड़चनों को दूर करने के लिए भी स्थानीय राजनीतिक प्रतिनिधि को संपर्क किया जाता है। वहाँ की जनता के प्रति उसका रवैय्या आगामी चुनावों में स्वयं उसके चुनाव पर भी और उसकी पार्टी पर भी असर डालता है और आदर्श स्थिति में ऐसा होना भी चाहिए।

लेकिन समाज का वो वर्ग जिसका ज़िक्र हमें ऊपर सहूलियतें हड़पने वाले वर्ग के रूप में किया है, (और ये दोहराने में हर्ज़ नहीं कि इसमें ऊंची जातियों के मध्यमवर्गीय लोग ही प्रमुख हैं) राजनीति का बिना प्रयास के ही फायदा मिलने के बावजूद राजनीति में हिस्सेदारी ना करने को अपने ‘सकारात्मक गुण’ के रूप में प्रस्तुत करता है। आज़ादी के आंदोलन के दौरान ऐसा ना था और मध्यम-वर्ग ने स्वतन्त्रता आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया किन्तु आज़ादी के बाद के दशकों में यह उत्साह क्रमशः समाप्त हो गया और मध्यमवर्ग राजनीति की बजाय तिकड़मबाज़ी में ज़्यादा रुचि लेने लगा। यह प्रवृत्ति यूँ तो धीरे-धीरे ही बनी लेकिन नब्बे के दशक में नई आर्थिक नीति और वैश्वीकरण के लागू होने और जड़ें जमाने के साथ-साथ राजनीति के प्रति अरुचि बढ़ती गई।

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मध्यमवर्ग की राजनीति के प्रति इस उदासीनता ने देश के युवाओं पर  भी खासा असर डाला है और आज़ादी के आंदोलन से लेकर स्वतन्त्रता के उपरांत भ्रष्टाचार के विरुद्ध गुजरात नव-निर्माण आंदोलन और जेपी के नेतृत्व में चला बिहार आंदोलन मुख्यत: छात्रों द्वारा ही चलाये गए थे किन्तु अब आज की स्थिति ये है कि बेरोज़गारी या प्रच्छन बेरोज़गारी से जूझता युवा राम मंदिर के निर्माण को ही देश और समाज की उपलब्धि माने बैठा है। दरअसल मध्यमवर्ग जो हवा बांधता है वही बयार चल निकलती है और चूंकि बेरोज़गारी की मार चूंकि मध्यमवर्ग के युवा तक नहीं पहुंची है, इसलिए सब चंगा ही चंगा लग रहा है। CSDS ने 2016 में 15 से 34 वर्ष की आयु के 6000 युवाओं के बीच किए अपने एक सर्वे में पाया कि इनमें से 46% को राजनीति में कोई रुचि नहीं और 18% को केवल मामूली रुचि है। इसमें 19 राज्यों के हर वर्ग के युवा शामिल थे। आप आसानी से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि राजनीति में किन युवाओं की रुचि नहीं होगी।

इधर राजनीति में रुचि घटती जा रही थी और उधर 1925 में अपनी स्थापना के साथ से ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हिन्दू समाज को संगठित करने के ‘उदात्त’ उद्देश्य के साथ लगातार काम कर रहा था और “हज़ार साल की साल की ग़ुलामी के बाद कांग्रेस राज में भी जारी मुस्लिम तुष्टीकरण नीति” के खिलाफ हवा बनाने का काम जारी रखे था। संघ ने अपनी गलतियों से भी सीखा और धीरे-धीरे अपना प्रभाव पिछड़ों और दलितों के बीच बढ़ाना शुरू किया।

यह काम सबसे पहले बाला साहब देवरस (मधुकर दत्तात्रेय देवरस) के नेतृत्व में शुरू हुआ जो 1973 से 1993 तक सरसंघचालक थे। पहली बार किसी सरसंघचालक ने अछूत प्रथा के खिलाफ पहली बार सार्वजनिक स्टैंड लिया जब बाला साहब ने 1974 में संघ स्वयंसेवकों की वार्षिक रैली में -हिंदुओं के बीच से अछूत-प्रथा को उखाड़ने का आह्वान किया। इस पूरी कवायद के दिखावटी होने के बावजूद इसका लाभ संघ को हुआ और दलित और पिछड़े वर्ग के युवकों ने उच्चवर्णीय हिन्दू समाज में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए राम मंदिर आंदोलन में 1989 से ही हिस्सेदारी शुरू कर दी थी जो अगली पीढ़ी के जवान हो जाने के साथ आज भी चल रही है। निश्चित ही इस ट्रेंड को उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों में बीच-बीच में लंबे समय तक भाजपा सरकारों के चुने जाने से और भी बल मिला।

यह पृष्ठभूमि इसलिए कि राजनीति में मध्यमवर्ग की उदासीनता का सारा लाभ भाजपा यानि आरएसएस को मिला और यूपीए-2 की घोर असफलता के चलते मध्यमवर्ग और युवा वर्ग जिस अन्ना आंदोलन से जुड़े,उससे उपजे गुस्से और ऊर्जा को भी भाजपा ने ही भुनाया और 2014 में लोकसभा में  282 सीटें जीत कर पूर्ण बहुमत ही पा लिया। फिर पाँच वर्षों में बहुसंख्यकवाद की खुली राजनीति की और 2019 में देशभक्ति और राष्ट्रीयतावाद के घोड़े पर सवार होकर इन सीटों में भी इजाफा कर लिया। यहाँ फिर एक बार ये स्मरण कराना चाहेंगे कि भाजपा को ये सारी सफलता दलितों और पिछड़ों के भरपूर सहयोग से ही मिली है। आश्चर्य की बात ये है कि इन सात वर्षों में कई बार ऐसी घटनाएँ हुई हैं जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा का उच्च जातियों को फ़ेवर करने वाला चरित्र जस-का-तस है और कई शिक्षण संस्थानों में तो ओबीसी के लिए आरक्षित सीटें तक हड़पने की कोशिश की गई है किन्तु ‘एक देशभक्त हिन्दू’ होने के सपने के सामने शेष समस्याएँ शायद कुछ मायने नहीं रखतीं।

वैसे आपके मन में ये भी आ सकता है कि भाई तुम्हें क्या तकलीफ है अगर भाजपा आगे बढ़ रही है और लोकसभा में सीधे चुनावों में जीतकर अपनी ताकत बढ़ा रही है? सचमुच कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए थी अगर हमें ये ना पता होता कि पहला, भाजपा सरकार लोकतान्त्रिक संस्थाओं को कमजोर कर रही है और दूसरा ये कि पार्टी और सरकार मिलकर ऐसे माहौल को शह दे रहीं हैं जिससे मुसलमान खुद को इस देश का दोयम दर्जे का नागरिक मानने लगेंगे। बिना व्यापक विचार-विमर्श के सीएए (CAA) जैसा कानून लाना और मुसलमानों के बीच भारी आशंकाओं के बावजूद उस पर पुनर्विचार ना करना और फिर ‘ट्रिपल तलाक’ का कानून लाना जिसे मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा खामियों से भरा मानता है, ऐसे ही उदाहरण हैं। लोकतन्त्र कमजोर कैसे हो रहा है, इस पर हमने कुछ चर्चा पिछले माह प्रकाशित “क्या भारतीय लोकतन्त्र कमजोर हो रहा है” लेख में की है।  

अब इस लेख के आरंभ में उठाए गए मूल सवाल पर वापिस आते हैं कि मध्यमवर्ग राजनीति को चाहे गाली दे लेकिन उससे उदासीन ना हो, उससे विमुख ना हो – वो राजनीति से सरोकार रखे क्योंकि अगर कोई सचमुच यह मानता है कि वह देश और समाज के हित में सोचता है तो उसे सक्रिय रूप से राजनीति के बारे में भी सोचना होगा। उसे देशभक्ति और धर्म के ज्वार में बहने के पहले खुद से भी सवाल करने होंगे और राजनीति और राज्य से भी सवाल करने होंगे! उदाहरण के लिए उसे खुद से (और साथ ही राजनीति से) यह पूछना होगा कि क्या देश को नफरत और टकराव की राजनीति से सचमुच फायदा हो सकता है? क्या बहुसंख्यक वर्ग को अपनी जीत के गुमान के बाद देश की आर्थिक स्थिति में सुधार होगा, (उदाहरण के लिए क्या FDI यानि विदेश पूंजी निवेश बढ़ जाएगा) और या फिर क्या ऐसा होने से भारत की विदेशों में साख बढ़ जाएगी? जिस लोकतन्त्र ने देश के गरीबों और दलितों के उत्थान में महती भूमिका निभाई है, क्या उस लोकतन्त्र का कमज़ोर होना किसी भी तरह से देश-हित में कहा जा सकता है? ज़ाहिर है कि इन सब सवालों के जवाब ना में ही हैं!

इसलिए इस स्तंभकार का निवेदन है कि आगे जब भी कोई राजनीति को गंदा कहे तो उसे याद दिलाएँ कि ऐसा इसलिए है कि हम जैसे अच्छे लोग राजनीति की उपेक्षा करते हैं, उसके प्रति उदासीन हैं और उसमें हिस्सेदारी नहीं करते! एक बात की तरफ और ध्यान दिला दूँ कि आप यह मत समझिएगा कि राजनीति में केवल भ्रष्ट लोग ही आते हैं। वैसे तो दलविहीन राजनीति तो बहुत से ईमानदार लोग कर ही रहे हैं, लेकिन इसका अर्थ ये नहीं कि राजनीतिक दलों में सभी लोग बेईमान हैं। ऐसा नहीं है! समाजसेवा एक जज़्बा होता है जो बहुत से व्यक्तियों में होता है और ऐसे लोग बहुत बार अपना धन लगाकर भी राजनीति से जुडते हैं और इनमें से कई लोग राजनीतिक दलों में भी पाये जाते  

इसलिए फिर से दोहराता हूँ कि राजनीति से भागिए नहीं बल्कि जुड़िये और बिना शरमाये जुड़िये। हो सकता है अगर आप सवाल पूछते हों तो कोई भी राजनीतिक दल आपको अपने साथ ना जोड़ना चाहे लेकिन सवाल छना मत छोड़िए। सोशल मीडिया में हज़ार कमियाँ हैं लेकिन सबको अपनी बात कहने के लिए (फेसबुक और टिवीटर जैसे) प्लैटफ़ार्म देकर इसने लोकतन्त्र में आम आदमी को भी ताकत दी है। इसलिए झूठ फैलाने में मददगार इन संसाधनों का इस्तेमाल आप सच फैलाने में कीजिये। जितना बन पड़े उतना तो कीजिये। बहुत सारे लोग करेंगे तो झूठ कमजोर होता जाएगा, उसकी पोल खुलती जाएगी – धीरे धीरे ही सही लेकिन ये होगा ज़रूर एक दिन!

विद्या भूषण अरोरा



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