उपचुनाव भी तय करेंगे राजनीति की दिशा
वैसे तो इन दिनों महाराष्ट्र में राज्य विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं, लेकिन लोगों की नज़रें उत्तर प्रदेश पर भी टिकी हैं। वजह यह है कि हाल के वर्षों में उत्तर प्रदेश भी राजनीति की ऐसी प्रयोगशाला बन गया है,जिसकी लैब के नतीजे देश को असर करते हैं। शायद यही वजह है कि लोकसभा चुनाव में भाजपा को हुए बड़े नुकसान के बाद हिंदू एकता और हिंदुत्व की धार को तेज करने की मुहिम भी इसी राज्य से शुरू हुई है। भगवा पहनावा के साथ ही देश में हिंदुत्व के ब्रांड अंबेसडर के रूप स्थापित हो चुके मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नये नारे ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ का प्रदेश में ही नहीं, बल्कि देशभर में इन दिनों बड़ा शोर है। उसकी गूंज महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव तक पहुंच गई है, जहां योगी संदेश के नाम से ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ नारे वाली तमाम होर्डिंग्स मीडिया की सुर्खियां बन रही हैं। अब उसी ‘बटेंगे तो कटेंगे’ नारे को भाजपा का शीर्ष नेतृत्व व संघ (आरएसएस) अपने-अपने तरीके से तसदीक कर रहा है। जिस दौर में यह सब अपने उफान पर है, उसी समय पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों को एकजुट करने के साथ जातीय गोलबंदी का भी विमर्श भी तेज किया जा रहा है। इस तरह देखा जाए तो मौजदा दौर का यह मुक़ाबला दो विचारधाराओं के बीच निर्णायक राह की ओर बढ़ रहा है।
ऐसा नहीं है कि यह सब अकस्मात हो रहा है। चूंकि बीते दस वर्षों में भाजपा के आजमाये लगभग सभी फार्मूले उस लिहाज से सही साबित होते रहे कि लोकसभा के साथ ही वह ज़्यादातर राज्यों के भी चुनावों में जीत हासिल करती रही, लेकिन इस बार के लोकसभा चुनाव ने उसकी उस गति में बुरी तरह अवरोध पैदा कर दिया। वह लोकसभा चुनाव में अपने बूते बहुमत के आंकड़े से दूर रह गई, जिससे उसकी बड़ी फजीहत हुई। चुनावी जीत के लिए उत्तर प्रदेश में खासतौर किए गए उसके सारे टोटके एक तरह से फुस्स हो गए। भाजपा अयोध्या में जिस अर्धनिर्मित राम मंदिर का लोकार्पण कर पूरे देश में हिंदू जनमानस से चुनावी फायदे की फिराक में थी, वह भी फेल हो गया। यहां तक कि भाजपा अयोध्या तक की लोकसभा सीट हार गई। खुद प्रधानमंत्री मोदी जिस वाराणसी लोकसभा सीट से 2019 में साढ़े चार लाख अधिक वोट से जीते थे, वह भी 2024 के चुनाव में लगभग डेढ़ लाख वोट से ही जीत सके। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश 80 में से 62 सीटें मिली थीं, लेकिन 2024 में वह महज 33 सीटों पर आ गई। भाजपा इस स्थिति को कतई नजरंदाज नहीं कर सकती थी। उसने लोकसभा चुनाव खत्म होते ही उसने अपनी रणनीति बदल दी। वह दशकों से आजमाए अपने हिंदू और हिंदुत्व के फार्मूले पर ज्यादा प्रभावीढंग से फिर से लौट आई है और उस दिशा में सबसे ज्यादा परीक्षण का काम उत्तर प्रदेश में होता दिख रहा है। राज्य में भाजपा की सरकार है और लोकसभा चुनाव के बाद ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में होने वाली कांवड यात्रा के दौरान उसने उसके मार्गों पर पड़ने वाली दुकानों पर उनके मालिकों का नाम उजागर करने का फरमान कर दिया था। जाहिर है उससे खासतौर से हिंदू और मुस्लिम दुकानदारों की पहचान उजागर होती।
लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने बांग्लादेश में वहां की सत्ता के खिलाफ बगावत के दौरान हिंदुओं पर हुए अत्याचार का हवाला देकर हिंदुओं को एक साथ रहने के लिए समझाने का प्रयास कई बार किया है। गौर कर सकते हैं कि बीते वर्षों में जिस उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर उद्योगपतियों से पूंजी निवेश कराने, उद्योगों को लाने, एक्सप्रेसवेज बनाने जैसे कामों के जरिए विकास के दावों का जबर्दस्त प्रचार हो रहा था, अब वहां ‘बंटेंगे तो कटेंगे’जैसे नारों का शोर है। प्रदेश के मुख्यमंत्री आगरा से लेकर अयोध्या तक ही नहीं, बल्कि अपनी लगभग हर सभा में इस नारे को मजबूती से उठाकर एकजुट रहने का संदेश जिस मकसद से दे रहे हैं, वह लोगों की समझ में भी आ रहा है। हरियाणा चुनाव में भी इस नारे का इस्तेमाल हुआ। आखिर इसका मकसद क्या है? अंदाजा लगाया जा सकता है, क्योंकि महाराष्ट्र राज्य जहां विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, वहां भी योगी संदेश के नाम से ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ नारे वाली तमाम होर्डिंग्स मीडिया की सुर्खियां बन रही हैं। खुद प्रधानमंत्री मोदी भी वहां चुनाव प्रचार के दौरान यह कह चुके हैं कि ‘उनका वोट बैंक तो एक रहेगा और बाकी लोग आसानी से बंट जायेंगे। हमें याद रखना है कि हम बंटेगे तो बाकी लोग महफिल सजाएंगे’। उधर, आरएसएस भी इस मुद्दे पर अपनी राय यह कहकर जाहिर कर चुका है कि हिंदू समाज एकता में नहीं रहेगा तो आजकल की भाषा में ‘बंटेंगे तो कटेंगे’हो सकता है। अगड़ा, पिछड़ा, जाति, भाषा में भेद करेंगे तो कटेंगे। ऐसे में एकता जरूरी है, क्योंकि हिंदुओं को तोड़ने के लिए शक्तियां काम कर रही हैं।
लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा और उससे जुड़े संगठनों की ओर से हिंदू एकता के लिए चलाई जा रही इस मुहिम के बीच एक दूसरे विमर्श पर भी तेजी से काम हो रहा है। वह है देश में पिछड़े, दलितों,वंचितों और अल्पसंख्यकों को गोलबंद करने का। लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के प्रमुख विपक्षी दल समाजवादी पार्टी ने पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंखक) के साथ आने का भी नारा दिया और वह जमीनी स्तर पर काफी सफल भी रहा। उत्तर प्रदेश में इन दिनों विधानसभा की नौ सीटों पर उप चुनाव हो रहे हैं। समाजवादी पार्टी का पीडीए फार्मूला लोकसभा में कारगर साबित हो चुका है। 2019 में महज पांच सांसद वाली पार्टी 37 सांसदों तक पहुंच चुकी है, लिहाजा वह दिनोंदिन पीडीए को और मजबूत करने का हर जतन कर रही है। प्रदेश में उसने नौ सीटों के उपचुनाव में चार मुस्लिम, तीन पिछड़े और अनुसूचित जाति के दो प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है। समाजवादी पार्टी ने पीडीए (पिछड़ा, दलित,अल्पसंख्यक) का नारा देकर इस लड़ाई की धार को और तेज करने में जुट गई है। समाजवादी पार्टी ने योगी आदित्यनाथ के नारे ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ के जवाब ‘जुड़ेंगे तो जीतेंगे’ का नारा दिया है। चुनाव नतीजों से यह साफ होगा कि उत्तर प्रदेश की आगे की राजनीति क्या करवट लेगी और उसका देश की राजनीति पर क्या असर होगा, क्योंकि बदली परिस्थितियों में उत्तर प्रदेश भी राजनीति की ऐसी प्रयोगशाला बन गया है,जिसका संदेश दूर तक जाता ही है।
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राजकेश्वर सिंह राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार हैं। वह नियमित रूप से रागदिल्ली.कॉम के लिए लिखते रहते हैं।
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