धर्मपंथों को लचीला बनाया जाना आवश्यक है

सुज्ञान मोदी | अध्यात्म एवं दर्शन | Nov 19, 2024 | 139

“धर्मपंथों को भी लचीला बनाया जाना आवश्यक है। इसमें प्रयोग और संशोधन की अनुमति होना भी आवश्यक है। अन्यथा तो धर्मपंथ ही अपने आप में साध्य बन जाएगा। और इस साध्य की बलिवेदी पर मानवीय चिंतन की आजादी की बलि दी जा सकती है। धर्मोपदेशक यदि सवाल उठाने की अनुमति ही नहीं देंगे तो नई पीढ़ी के लोग धर्मविमुख भी होते जा सकते हैं”। इसी लेख से!

धर्मपंथों को लचीला बनाया जाना आवश्यक है

  • सुज्ञान मोदी

मनुष्यों के सामाजिक विकास की प्रक्रिया बहुत-सी विविधताओं से भरी रही है। इतने अलग-अलग तरह के भौगोलिक क्षेत्र हैं, इतिहास, बोली-भाषा, रहन-सहन और संस्कृति को लेकर इतनी भिन्नताएँ हैं कि मानव जाति के धर्म को लेकर भी अनेक मत-मतांतर अस्तित्व में आए। लेकिन इन धर्मपंथों के प्रवर्तक चूँकि बहुत सात्विक साधना से सत्यानुभूति किए थे और वह सब सिद्ध और तपस्वी सत्पुरुष थे, इसलिए पूरी दुनिया के इन महान ऋषियों, तीर्थंकरों, बुद्धों, पैगंबरों और संतों-सूफ़ियों के उपदेशों में लगभग एक ही तरह का सत्य अनुभव पाया जाता है। इन सभी ने सत्य, प्रेम और करुणा जैसे मूल्यों का ही उपदेश किया है और सभी ने त्याग, संयम, दया, क्षमा, सहनशीलता आदि को अपने-अपने धर्मों में प्रमुखता दी है। यह सभी धर्मो का साझा सूत्र है।

अक्सर यह पूछा जाता है कि धर्म साधन है या साध्य? यह प्रश्न अपनी जगह बहुत प्रासंगिक है और महत्वपूर्ण है। लेकिन एक साधक की दृष्टि से हमारा यही निवेदन रहेगा कि धर्म वास्तव में एक साधना है। प्राथमिक साधन तो हमारी यह देह है जिसे क्षणिक बताया गया है और साध्य है चैतन्य आत्मा। उसी चैतन्य आत्मा अर्थात आत्मज्ञान को प्राप्त करने की साधना है धर्म। हाँ, साधना-पथ की भिन्नता की वजह से जो मत-मतांतर और रूढ़ियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, उसकी वजह से गच्छ-संप्रदायों में कुछ जड़ता आती जाती है। फिर हम मूल उपदेशों से भटककर सत्पुरुषों के वचनों का भी असली मर्म नहीं समझ पाते हैं। उसका गलत अर्थ समझकर भटक जाते हैं। इसीलिए किसी ऐसे मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है जो हमारी अंगुली थामकर धर्म के मर्म तक ले जाए, मूल बात समझने में हमारी सहायता करे। अंगुली थामकर मार्ग दिखाने वाले को ही हम सद्गुरु कहते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि मेरा और आपका सद्गुरु एक ही हो, ऐसा आग्रह कदापि नहीं होना चाहिए।  

शुद्ध धर्म बहुत ऊँची अवधारणा है जिसे किसी मार्गदर्शक के निर्देशन में की गई साधना से ही समझा जा सकता है। इसलिए गच्छ-संप्रदाय भी शुद्ध धर्म तक पहुँचने में सहायक हो सकते हैं। हुए भी हैं और हो भी रहे हैं लेकिन केवल क्रियाकांडों में फँस जाने से समस्या आ जाती है। मान्यताओं में उलझ जाने से समस्या आती है। कई बार  तो कई पंथों-संप्रदायों में परंपरा से चली आ रही बातें या नियम ही इतने रूढ़ हो जाते हैं कि हम बस पुरानी लीक की तरह उसपर केवल कदमताल करते रहते हैं। उसपर हमारा आंतरिक आध्यात्मिक विकास नहीं हो पाता है।

आज तो पंथों-संप्रदायों की जड़ता इतनी बढ़ चुकी है कि इनके नाम पर हिंसक राजनीति होती है। दंगे-फसाद होते हैं। इसकी अबूझ पहेलियों और भूल-भुलैया में पड़े मनुष्य का हाल बेहाल है। इसके संकीर्ण दायरे में जागृत साधकों का दम घुटने लगता है। इसलिए धर्मपंथों को भी लचीला बनाया जाना आवश्यक है। इसमें प्रयोग और संशोधन की अनुमति होना भी आवश्यक है अन्यथा तो धर्मपंथ ही अपने आप में साध्य बन जाएगा और ऐसे में तो धर्म की बलिवेदी पर मानवीय चिंतन की आजादी की भी बलि दिए जाने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा। धर्मोपदेशक यदि सवाल उठाने की अनुमति ही नहीं देंगे तो नई पीढ़ी के लोग धर्मविमुख भी होते जा सकते हैं। यही ट्रेंड अभी दुनियाभर में देखने में आ रहा है।

धर्म तो वास्तव में औषधि है जो हमारे दुःखों का उपचार करता है। धर्म हमें सुख देता है और समाधान देता है। धर्म हमें कष्ट सहने की शक्ति देता है। धर्म हमें धैर्य देता है और संबल देता है। कठिन-से-कठिन परिस्थितियों में भी धर्म हमें सन्मार्ग से डिगने नहीं देता। इसलिए धर्म हर प्रकार से हमारी रक्षा करता है। वह हमारे शील की और चरित्र की रक्षा तो करता ही है, कठिन परीक्षा की घड़ी में वह हमारी श्रद्धा और हमारी भक्ति की भी रक्षा करता है। धर्म हमारे मन को विचलित नहीं होने देता। धर्म सदा हमें हमारी आत्मा से जोड़े रखता है। उसके चैतन्य स्वरूप की अनुभूति कराता है। धर्म हमें विनम्र बनाता है क्योंकि सीखने की चाह में अहंकार त्याग कर जिज्ञासु बन जाते हैं। इस प्रकार धर्म से ही हमें सत्यासत्य का विवेक प्राप्त होता है और हमारा ज्ञान निर्मल होता है।

धर्म सदा प्रवाहमान होता है। धर्म में जड़ता का कोई स्थान नहीं। रीलीजन, संप्रदाय या पंथ आदि में जड़ता और कट्टरता आने से समाज में समस्या उत्पन्न होती है। भेदभाव पैदा होता है। आपस में द्वेष, असुरक्षा और वैमनस्यता उत्पन्न होती है। फिर उसका राजनीतिकरण हो जाता है। तब दो तरह से हिंसा पैदा होने का खतरा रहता है। पहला तो किसी भी जड़तावादी या दकियानूसी संप्रदाय के भीतर किसी भी सुधारात्मक आवाज को दबाने का प्रयास होता है। इसके लिए उस संप्रदाय के अज्ञानी मतावलंबी सात्विक सुधारकों के ऊपर आक्रमण करते हैं। दूसरे, ये संगठित रीलीजन अपने प्रसार या अपनी सत्ता देश-दुनिया पर कायम करने की भावना से भी भरे हो सकते हैं, इसलिए जो संप्रदाय जिस भौगौलिक क्षेत्र में अल्प संख्या में होता है, वहाँ उस पर अत्याचार हो सकता है।

आजकल संप्रदायों का अंतर्राष्ट्रीय और वैश्विक स्वरूप उभरने से यह समस्या और जटिल होती जा रही है। सांप्रदायिक आधार पर देशों के बँटवारे और नए देशों के निर्माण होते रहे हैं। वहाँ के संविधानों और कानूनों को भी सांप्रदायिक आधार पर ढाल दिया जाता है। इससे पूरी दुनिया में संघर्ष पैदा होते हैं। और इसी कट्टरता की भेंट सामान्य और निरीह मनुष्य चढ़ते हैं। संप्रदायों की निजी सेनाएँ बन जाती हैं। बम-विस्फोट, गोलीबारी, अपहरण और युद्ध तक इस आधार पर चल रहे हैं। यानी ऐसी स्थिति में संप्रदाय अपने को मनुष्य की जान से भी अधिक महत्वपूर्ण घोषित कर देता है और संप्रदायमात्र को ही ‘साध्य’ घोषित कर देता है। यह ठीक नहीं है बल्कि कहना चाहिए कि ये तो घोर अधार्मिक कृत्य है।

धर्म तो पवित्र साधन है। उसका स्वरूप मृदुल है, कोमल है। वह उग्र नहीं, प्रचंड नहीं, वरन् शीतल है। धर्म तो पोषण, सिंचन और रक्षण का नाम है। वह तो प्रेम, करुणा, क्षमा, उदारता और सेवा का नाम है। वह तो भेदभाव से रहित होकर सबमें उसी चैतन्य आत्मा के दर्शन का नाम है। इसलिए दुनिया के सभी संतों-सत्पुरुषों ने सच्चे धर्म का ही उपदेश किया है। हमें उसी मार्ग पर चलना चाहिए। धर्म को अपने आत्मदर्शन का साधन बनाना चाहिए। धर्म को व्यक्तिगत और पारिवारिक साधना का साधन बनाना चाहिए।

धर्म हर मनुष्य का अपना-अपना होता है जबकि संप्रदाय अथवा रीलीजन तो सामूहिकता के नाम पर संकीर्ण भीड़ की भावना को बढ़ाता हो सकता है। यदि दुनिया को दंगे-फसाद, संघर्ष और युद्ध से बचाना है, तो सच्चे धर्म की शरण में जाना होगा। उसी में हमारी अपनी सुख-शांति और कल्याण भी है। उसी में दूसरों की और पूरी दुनिया की सुख-शांति, समृद्धि और समाधान की कुंजी भी छिपी है।

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श्रीमद राजचन्द्र, महात्मा गांधी एवं आचार्य विनोबा भावे जैसे संतों के आध्यात्मिक विचारों को समर्पित साधक सुज्ञान मोदी ने आध्यात्मिक और राजनैतिक सजगता का अद्भुत संतुलन साधा है। जहां पिछले एक दशक से वह श्रीमद राजचन्द्र सेवा-केन्द्र से संबद्ध मुमुक्षु के रूप में अपनी आध्यात्मिक चेतना को विस्तार देने का प्रयास कर रहे हैं, वहीं वह बहुत सी सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं से भी जुड़े रहे हैं। इनमें से प्रमुख हैं, गांधी शांति प्रतिष्ठान, नर नारायण न्यास, राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट, सोसाइटी फॉर कम्यूनल हार्मनी, समाजवादी समागम, ज्ञान प्रतिष्ठान, और स्वराज पीठ।

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