मत्सर का खेल - ईर्ष्या पर सत्येन्द्र प्रकाश की लंबी कहानी
विद्वजन कहते हैं कि मत्सर अर्थात ईर्ष्या मनुष्य को अंदर से खोखला कर देती है जैसे दीमक अंदर ही अंदर दीवालों तक को मिट्टी का ढेर बना देती है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह के बारे में तो हम बहुत कुछ कहते सुनते रहते हैं किन्तु ईर्ष्या के बारे में बहुत प्रमुखता से बात नहीं होती। सत्येन्द्र प्रकाश ने इस कहानी के माध्यम से मत्सर की विकटता को रेखांकित किया है।
मत्सर का खेल
सत्येन्द्र प्रकाश
सचिन बार-बार यही सोच रहा था, काश भैया की बात को उसने गंभीरता से नहीं ली होती। उनकी चिट्ठी की वह एक पंक्ति सचिन के किशोर मन पर चस्पा हो गई थी। जब कभी उसका ध्यान विचलित होता और मन भटकता, वे गिने चुने शब्द चिट्ठी से निकल उसके आँखों के सामने नाचने लगते। उसके विवेक को झकझोर देते।
जीवन को लेकर उसकी आकांक्षाएं तब तक स्पष्ट नहीं थी। शिक्षा के आरंभिक दिनों में उसे एक अच्छा विद्यार्थी समझा जाता था। पर प्रतिस्पर्धा कोई खास थी नहीं। कक्षा में छात्रों की संख्या सीमित थी। ऐसे में कुशाग्र होने की मान्यता मिलने में कोई बड़ी बात नहीं थी। पर हाई स्कूल के विस्तृत परिवेश में भी सचिन गणित और विज्ञान में अपनी समझ की छाप छोड़ने लगा था। पहली बार उसने स्वयं महसूस किया कि गणित के सूत्र, रसायन शास्त्र के समीकरण और भौतिक शास्त्र के सिद्धांत उसे सहजता से याद हो जाते। मुश्किल प्रश्न और उलझे समीकरण वह आसानी से हल कर लेता। हालाँकि वह खुले तौर पर मानता था कि उसकी कक्षा में पढ़ाई में उससे बेहतर विद्यार्थियों की संख्या एक-दो नहीं बल्कि कई थी। कभी भी अपने मन में असाधारण प्रतिभा का भ्रम उसने पनपने नहीं दिया।
उन दिनों शिक्षकों के पेशे और उनकी दिनचर्या से वह काफी प्रभावित रहता। किसी विषय को रुचिकर अंदाज में छात्रों को समझाने की उनकी कला उसे अभिभूत करती। इन सब से बढ़ कर अकादमिक कैलेंडर प्रमुख आकर्षण था। दशहरा, दीवाली, बड़ा दिन और गर्मी की लंबी छुट्टियाँ होती। संयुक्त परिवार के अधिकाधिक सदस्य अपने पैतृक निवास में इकट्ठे होते। उन सबका घर यही होता। इसके अतिरिक्त वे और कहीं जिस घर में रहते वह उनका मात्र डेरा होता। डेरा यानि अस्थाई शरणगाह। संयुक्त रूप से पूरे परिवार के साथ छुट्टियाँ बिताने और त्योहार मनाने का अपना अलग आनंद था। परिवार में आम छुट्टियाँ भी उत्सव बन जातीं,, उनकी उमंग हफ्तों रहती।
गर्मी की लंबी छुट्टी हो, भरा-पूरा परिवार साथ हो, लीची और आम के सामूहिक रस आस्वादन का अवसर मिले, सचिन इससे सुखकर जिंदगी की कल्पना ना तब कर पाता, ना ही अब।
किशोर मन में जीवन के लक्ष्य को लेकर धारणाएँ बदलती रहती हैं। लक्ष्य भी तब उनका अपना नहीं होता। अग्रजों और अभिभावकों की व्यक्तिगत अपेक्षाएं बच्चों की कुशाग्रता के अनुसार लक्ष्य निर्धारित करती है। सचिन डॉक्टर बने, शुरू से परिवार की अपेक्षा के अनुरूप उसके दिमाग में प्रत्यारोपित होता रहा था। उसी अनुरूप हाई स्कूल और इन्टर में उसने मैथ्स के साथ बायोलोजी की पढ़ाई की। गणित, चाहे हायर एलजबरा हो या कैलकुलस, ट्रिगोनोमेट्री हो हायर ज्योमेट्री, सचिन जितनी आसानी से समझता था, जैविकी उसे उतनी ही बोझिल लगती थी।
यह वही समय था जब सचिन के नए लक्ष्य के निर्धारण की प्रक्रिया आरंभ हुई। सचिन के बड़े भैया वीरेश अपने परिवार में उस पीढ़ी के सबसे होनहार और मेधावी विद्यार्थी थे। पढ़ने लिखने में इतने तेज कि आस-पास के गाँवों में माता-पिता अपने बच्चों को उनकी मिसाल दिया करते। वीरेश और बेहतर करे इस दृष्टि से उसके बड़का बाउजी पास के गाँव के किसी हमउम्र बच्चे की झूठी प्रशंसा करते ताकि वीरेश का स्वाभिमान सदैव जागृत रहे। वीरेश ने भी बड़का बाउजी समेत परिवार में किसी को भी निराश नहीं किया। तब तक के जो भी रेकॉर्ड् बच्चों के थे सबको ध्वस्त कर वीरेश ने सर्वाधिक अंकों के साथ हायर सेकन्डेरी की परीक्षा पास की। फर्स्ट डिवीजन में रेकॉर्ड अंकों के साथ।
अंकों के आधार पर ही वीरेश को बिहार के बेस्ट इंजीनियरिंग कॉलेज में मनोवांछित ट्रेड में दाखिला मिल रहा था। उसे बिहार के इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा पास करने की आवश्यकता नहीं थी। दरअसल आजादी के दशकों बाद तक प्रांतीय माध्यमिक परीक्षा परिषद के चुनिंदे छात्रों को अंक के आधार पर इंजीनियरिंग में सीधा दाखिला मिल जाता था। वीरेश को भी मिल रहा था। पर वीरेश ने कुछ और सोचा। उसकी इच्छा थी साइंस कॉलेज से बीएससी कर भारतीय प्रशासनिक सेवा की प्रतियोगी परीक्षा पास करे।
वीरेश के निर्णय को उसके बाउजी की सहमति मिल गई। और उसका नामांकन साइंस कॉलेज में हो गया। युवावस्था की दहलीज पर खड़े व्यक्ति को चुनौतियाँ लुभाती हैं। उसके समक्ष खुला आसमान होता है। स्कूली अनुशासन में संकुचित पंख कॉलेज के खुले प्रांगण में स्वच्छंद उड़ान को मचल उठते है। अभिभावकों के अनुशासन का अंकुश भी नहीं होता। यहीं वीरेश की जिंदगी एक नया मोड़ लेती है। राजनीतिक सजगता विवेक के दरवाजे पर दस्तक देना शुरू करती है। उम्र का यह वह पड़ाव होता है जो पूरी व्यवस्था बदल देना चाहता हैं। शासन प्रशासन की कमियाँ असहनीय जान पड़ती है। व्यवस्था शोषक वर्गों को पोषित करती दिखती है।
स्कूली शिक्षा के समय भी वीरेश का वास्ता राजनीतिक झुकाव वाले संगठनों से रहा था। कॉलेज में वीरेश का ध्यान भटकने लगा और कक्षाओं से अधिक उसकी रुचि राजनीति प्रेरित गतिविधियों में होने लगी। इन परिस्थितियों में अकादमिक उपलब्धि प्रभावित होनी ही थी। सत्र समापन पर परीक्षा को सामने पा वीरेश किसी भी दृष्टि से अपने को तैयार नहीं पाता। होनहार विद्यार्थी को अकादमिक विफलता का भय पैशाचिक भय से भी अधिक होता। ऐसे भय से मुक्ति अक्सर पलायन में ढूँढी जाती। वीरेश ने भी वही किया। तैयारी के अभाव में परीक्षा में नहीं बैठा, संभवतः स्वयं को यह भरोसा देकर कि अगली परीक्षा से पहले हर हाल में वह तैयारी मुकम्मल कर लेगा। अध्ययन केंद्रित दिनचर्या का अभाव, राजनीतिक सम्मोहन और उम्र के इस पड़ाव की अन्य भटकन में तैयारी फिर मुक्कमल नहीं हो पाई। एक बार फिर परीक्षा से पलायन।
पारंपरिक भारतीय सोच के तहत बाउजी ने विवाह का बंधन डाल वीरेश को जीवन की जिम्मेदारियों के प्रति उसे सचेत करने की कोशिश की। मध्यम वर्गीय परिवार के बड़े बेटे को पारिवारिक दायित्वों से बेखबर, जवानी की गैरजिम्मेदार निर्णयों से स्वयं के जीवन की बर्बादी का ताना बाना बुनते देख, बाउजी का निर्णय बेटे के हित में लिया गया एक सजग अभिभावक का निर्णय था। पढ़ाई के नाम पर वीरेश द्वारा विवाह का विरोध किसी को सहजता से स्वीकार्य नहीं था। अध्ययनरत युवा ऐसी बातें करें तो उसका कोई विश्वास भी कर ले। लेकिन अगर पढ़ाई राजनीति की भेंट चढ़ रही हो तो कौन पिता ऐसे तर्कों को गंभीरता से लेगा। भूख हड़ताल, धरना, आंदोलन और लापरवाह दिनचर्या से वीरेश का स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हो रहा था और स्वास्थ्य की समस्या से वीरेश की पढ़ाई। वीरेश के स्वास्थ्य की चिंता उसके बाउजी के लिए सर्वोपरि थी। अन्य सभी बातें उस समय गौण थीं।
छात्र आंदोलन से प्रभावित शैक्षणिक सत्र और परीक्षाएँ छोड़ने के कारण हाइयर सेकन्डेरी के लगभग छः वर्षों बाद वीरेश ने जैसे तैसे अपना ग्रॅजुएशन पूरा किया। दिल्ली जाकर सिविल सर्विसेज़ की परीक्षा की तैयारी करने की इच्छा वीरेश ने व्यक्त की। बिना हिचकिचाहट बाउजी ने दिल्ली जाने के प्रस्ताव में हामी भर दी। एक बार भी पढ़ाई में अब तक हुई कोताही का हवाला नहीं दिया। फिर दो-ढाई वर्षों तक वीरेश ने दिल्ली में रह कर संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं की तैयारी की और कोठारी कमीशन के संस्तुतियों के लागू होने के पूर्व पुराने पैटर्न पर होने वाली परीक्षाओं में दो बार अपना भाग्य आजमाया। नई पद्धति के आने पर भी वीरेश ने चार-पाँच प्रयास किए।
वीरेश अपनी एक कमजोरी का शिकार अक्सर हो जाता। नेतृत्व का अवसर सामने हो तो उससे मोहित हुए बिना वह रह नहीं पाता। गाँव के विवाद में परिवार को नेतृत्व देने की उसकी चाह सिविल सर्विसेज़ की मंजिल पर भारी पड़ी। फालतू की गँवई राजनीति में पड़ कर वीरेश ने अपना काफी बहुमूल्य समय नष्ट किया। बाउजी ने अपनी पोस्टिंग वाले शहर में उसकी इच्छा के मुताबिक परिवार से अलग कमरे की व्यवस्था कर ली थी ताकि वीरेश अपनी पढ़ाई पूरी तन्मयता के साथ कर सके। खाने-पीने की चिंता में समय नष्ट ना हो, इसलिए कमरा डेरा के पास ही ढूँढा गया था कि उसका खाना-पीना परिवार के साथ ही हो सके। ऐन वक्त पर गाँव जाकर वहाँ की राजनीति में उलझकर वह इतने लंबे समय तक रुक गया कि अलग से किराये पर लिया गया कमरा छोड़ना पड़ा। नियति को शायद वीरेश का सिविल सर्वेन्ट बनाना मंजूर नहीं था। कर्मचारी चयन आयोग की प्रतियोगिता पास कर वीरेश उत्पाद व सीमा शुल्क निरीक्षक बन गया। नौकरी में आने के बाद भाग्य ने उसे स्वयं के संसाधनों से सिविल सर्विसेज़ क्रैक करने के चार मौके दिए। एकनिष्ठ हो सिविल सर्विसेज़ के अपने लक्ष्य को पाने की बजाय वीरेश गाँव में दावतें देना और वहाँ की राजनीति में अपने संसाधन और समय जाया करता रहा। और वीरेश अपनी वर्तमान नौकरी से पूरी तरह संतुष्ट दिखता रहा।
पर आई ए एस ना बन पाने की कसक उसके दिल में कहीं दबी रह गई थी। यह वह क्षण था जब वीरेश ने छोटे भाई को चिट्ठी लिखी। और इसी चिट्ठी में वह एक वाक्य था, जिसे गंभीरता से लेने पर आज सचिन पछता रहा था। वीरेश ने उसे लिखा था, ‘आई वॉन्ट यू टु फुलफ़ील माइ अनफुलफिल्ड डिज़ायर। यू मस्ट क्लियर सिविल सर्विसेज़ इग्ज़ैम टु डू दैट।‘ इन्टर के बाद सचिन साइंस छोड़ ह्यूमैनिटीज़ में स्विच कर जाए, वीरेश की राय थी। सिविल सर्विसेज़ प्रतियोगी परीक्षाओं के निजी अनुभव के आधार पर वीरेश यह सुझाव छोटे भाई को दे रहा था। इतिहास, राजनीति शास्त्र, भूगोल इत्यादि के पढ़ाई की कल्पना से भी सचिन की धड़कने तेज हो जाती थीं। रट कर याद करने वाले विषय सचिन को बिल्कुल नापसंद थे। पर भैया का सुझाव उसके सिर आँखों पर था।
प्रथम श्रेणी में इन्टर पास कर उसने इतिहास हॉनर्स तथा समाज शास्त्र व इंग्लिश के साथ स्नातक करने का निर्णय किया। इन विषयों में उसकी तनिक रुचि नहीं थी। रटा-मार विषय उसे फूटी आँख नहीं सुहातीं। पर ये विषय सचिन पढ़े, भैया का सुझाव था। इसे बिना किसी ना-नुकुर के सचिन ने स्वीकार कर लिया और इनमें दिल लगाने की उसने तरकीब सोच ली। इन विषयों को समझने और तथ्यों को याद करने के लिए सचिन ने अपने मैथमैटिकल स्किल का इस्तेमाल किया। व्याख्यान के नोट्स लेने या फिर अपना नोट्स बनाना सचिन को पसंद ही नहीं था। वह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक घटनाओं में एक पैटर्न ढूँढता और उनके साथ राजवंशीय संबंध स्थापित करता। गणित की दिलचस्पी काम आई। अंकों से और अंकों की पहेली से खेलने में उसे मजा आता था। तभी तो कालानुक्रम (क्रोनोलॉजी) दिमाग में सिलसिलेवार बैठने लगे।
नोट्स की जगह वह बुक्स की मार्जिन में ही अपने पॉइंटर्स लिख लेता। उन पॉइंटर्स पर नजर पड़ते ही पूरा घटनाक्रम स्पष्ट हो जाता। इस तरह की पढ़ाई से धीरे-धीरे ये विषय सचिन को रुचिकर लगने लगे। उसे इनका महत्व भी समझ आया। अपनी संस्कृति को तात्कालिक भौगोलिक परिवेश के अनुसार समझने के लिए इन विषयों का अध्ययन उसे आवश्यक लगा। कुछ प्रोफ़ेसर्स की शिक्षण शैली ने भी सचिन को काफी प्रभावित किया।
सचिन की सोच प्रौढ़ हो रही थी। दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर के साथ संघ लोक सेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी वह कर रहा था। सचिन की सोच में वैश्विक नजरिये का असर होने लगा था। यह वो दौर था जब सचिन सिविल सर्विसेज़ जॉइन करने के अपने निर्णय को लेकर एक बार फिर दुविधा में पड़ गया था। सचिन को सिविल सर्विसेज़, शासन के वेस्टमिनिस्टर मोडेल की फिरंगी मानसिकता का अनावश्यक अवशेष लगता था। आम जन का शासन तंत्र से अलगाव इस व्यवस्था की ही देन लगती। वह सोचता कि साधारण नागरिक अगर शासन तंत्र के किसी दरवाजे को खटखटाने में डर महसूस करे, यह स्वतंत्र देश के शासन तंत्र की विफलता है। फिर ऐसे शासन-तंत्र का हिस्सा ही क्यों बनना।
कई बार उसे ख्याल आया, दिल्ली आ कर सभी प्रतियोगी सफल तो नहीं हो जाते। उन तमाम असफल प्रतियोगियों के नक्शे-कदम पर चलकर वह प्रयास करता दिखता रहे और विफल होकर वापस चला जाए। बाद में टीचिंग जॉब का प्रयास कर लेगा। इस दरम्यान लगातार कई प्रतियोगी परीक्षाओं में वह विफल रहा। कर्मचारी चयन आयोग की इंस्पेक्टरी की परीक्षा में भी वह फेल हुआ। ऐसी असफलताओं को सचिन शब्दों के छलावरण से ढकने में विश्वास नहीं रखता। लोगों से वह यही कहता वह ‘फेल’ हो गया। अपने ‘फेल’ होने को समाज के सामने दृढ़ता से स्वीकारने की हिम्मत उसने कम उम्र में ही जुटा ली थी।
सचिन जब कभी भी दौड़ से भागने की सोचता, वीरेश भैया की वह लाइन आँखों के सामने टँग जाती, ‘आई वॉन्ट यू टु फुलफिल माइ अनफुलफिल्ड डिज़ायर।‘ और सचिन फिर जुट जाता।
दिल्ली में सचिन के साथ रहने वाले कुछ मित्र, सिविल सर्विसेज़ को लेकर बिल्कुल गंभीर नहीं थे। उसका एक चचेरा भाई जो साथ रहता था, इंकम टैक्स इन्स्पेक्टर की परीक्षा पास कर चुका था। नियुक्ति की प्रतीक्षा थी। यूपीएससी के प्रति उसकी रही सही गंभीरता भी खत्म हो चुकी थी। लेकिन सचिन को बड़े भाई की अतृप्त इच्छा पूरी करनी थी। पूरी दृढ़ता से इस लक्ष्य का पीछा करना था उसे, जो माहौल में गंभीरता के अभाव में संभव नहीं था।
फिर सचिन और उसके दोस्त बिरेन ने दिल्ली से पटना जाने का निर्णय लिया। उनके दो अन्य मित्र राजेश और आयुष पहले ही पटना आ चुके थे। वे दोनों दिल्ली के उस टाक्सिक माहौल से मुक्त होना चाहते थे, ताकि लक्ष्य की प्राप्ति की ईमानदार चेष्टा कर सकें। सचिन इस निर्णय के साथ पटना आया कि वह एक अज्ञातवास में रहेगा। अन्यथा कई तरह के बाह्य प्रलोभनों के सम्मोहन में फँसने का भय था उसे। सचिन के पटना प्रवास की सूचना उसके माँ तक को नहीं थी। बस बाउजी और भैया जानते थे कि वह उन दिनों पटना में था।
बिरेन और उसकी आपसी तालमेल और समझ से तय हुआ, दिन में सचिन किसी भी काम को लेकर बाहर नहीं निकलेगा। दोपहर का खाना बिरेन लाएगा, और रात का सचिन। आठ-दस महीने सचिन का अज्ञातवास चला।
सचिन का अज्ञातवास उसका अपना निर्णय था। किसी ने इसके लिए बाध्य नहीं किया था उसे। जिन बाह्य प्रलोभनों का भय उसे था वह उसका अघोषित किन्तु सर्वज्ञात प्रेमाकर्षण था। इससे खुद को वह सिविल सर्विसेज़ क्रैक करने तक दूर रखना चाहता था। उसकी इच्छा थी कि वह पहले अपने ध्येय में सफल हो जाए, उसके बाद वह इस विषय में अपनी मंशा जाहिर करेगा। किन्तु उसे यह भय था कि इस चक्कर में अनावश्यक विलंब ना हो जाए और उसकी शादी कहीं और ना हो जाए। संकल्प की सिद्धि अवश्यंभावी है, इस विचार से सचिन ने बड़ी दृढ़ता से अपने प्यार को खुले तौर पर स्वीकार कर सिविल सर्विसेज़ के अपने संकल्प को और दृढ़ किया और संभावित विफलता के प्रतिफल को झेलने के लिए खुद को सज्ज कर लिया।
सचिन ने सिविल सर्विसेज़ की तैयारी में स्वयं को झोंक दिया। दिन-रात एक कर दिया उसने। राजेश उसे इंद्रजित की तर्ज़ पर नींदजित (नींद को वश में करनेवाला) बुलाने लगा था। संभावित विफलता का सामना करने के लिए उसने स्वयं को तैयार तो कर लिया था किन्तु कोई उसकी विफलता का ठीकरा उसके प्यार के सिर फोड़े, उसे कतई स्वीकार नहीं था। उसने अपने प्यार की स्वीकारोक्ति के साथ सिविल सर्विसेज़ के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को और दृढ़ कर लिया था।
किन्तु सचिन ने मत्सर (ईर्ष्या) का खेल परिवार में काफी करीब से देखा था। वीरेश की महत्वाकांक्षा से वह भली-भाँति परिचित था। वीरेश ने सचिन को कृतसंकल्प करने के लिए वह वाक्य चिट्ठी में लिख तो दी थी, पर सचिन को इल्म था कि कालान्तर में मत्सर खेल कर सकता है। तभी सचिन के दिमाग में यह बात स्पष्ट थी कि सिविल सर्विसेज़, अगर क्रैक करता है तो, वह कोई ऐसी सर्विस चुनेगा जिसमें, अपने ओहदे को लेकर कोई फालतू फितूर दिमाग पर ना चढ़े। हाँ भारतीय प्रशासनिक सेवा को लेकर अपनी दुविधाओं के बावजूद, उसका विचार खुला था। अन्य सर्विसेज़ जिनसे स्वयं पर रूपांतरित व्यक्तित्व के हावी होने का उसे डर था उस ओर वह सपने में भी आकर्षित नहीं था।
भारतीय सूचना सेवा उसकी प्राथमिकताओं में काफी ऊपर रहता था। वह कहता था, यार सूचना सेवा ही उसकी अभिरुचि को सूट करती है। इसमें काफी कुछ रचनात्मक करने को रहेगा। अन्य सर्विसेज़ की तरह यह अहं को घी की आहुति नहीं देगा। अच्छाई की चाह में दृढ़ता से की गई कामना की पूर्ति नियति भी कर देती। सिविल सर्विसेज़ परीक्षा वह क्रैक कर गया। सचिन को सूचना सेवा ही आबंटित हुआ। यद्यपि नियति ने प्रेम में उसका साथ नहीं दिया, पर प्रेम को रुसवा भी नहीं होने दिया।
सफलता को उसने भाई वीरेश के पाँवों पर मत्था टेक कर समर्पित किया था। बाउजी तो हर हाल में संतुष्ट थे। अपने ईमानदार प्रयत्न से मिला चपरासी का काम भी सिपारिश और गलत तरीके पाए गए बड़े पद से श्रेयस्कर है, बाउजी अक्सर कहा करते थे। वीरेश की इंस्पेक्टरी और सचिन के क्लास वन सूचना अधिकारी में बराबर की खुशी थी उन्हें।
सचिन का भी मन अब ऊब सा गया था। उसके पास पुनः परीक्षा में बैठने का विकल्प उपलब्ध था। वीरेश भैया ने बधाई के साथ आगे और बढ़ी उपलब्धि के लिए उत्साह बढ़ाया। पर मत्सर तत्पर था। वीरेश की कुंठाए किसी और की ज़बान का सहारा लेनी लगी थी। किसी के हवाले से वीरेश ने कहा बाउजी ने उसे समुचित सुविधाएं उपलब्ध नहीं कराई अन्यथा वह सचिन से अधिक काबिल था। किसी अन्य का संदर्भ देकर कहा इंस्पेक्टरी फेल आदमी भी यूपीएससी पास कर जाता है।
वीरेश के प्रोत्साहन के बावजूद सचिन का मन उसे मत्सर के खेल के प्रति आगाह करता रहा। वैसे प्यार के मारे उजड़े मन में कोई उत्साह शेष था भी नहीं। मनपसंद सर्विस मिल चुकी थी। उसने भाई के उन शब्दों का मान रख लिया था। भविष्य में उसने एक चांस लिया, पर बेमन। भैया की संवेदनशीलता को वह समझता था। या कोई दैवीय शक्ति उसे आगाह करती रही। जो भी हो, वह निश्चिंत था, एक ‘दंतहीन विषरहित विनीत और सरल’, सर्विस मत्सर को भाई के दिमाग को प्रभावित करने का अवसर नहीं देगी।
सचिन की असरहीन गुमनाम सर्विस की चिंता वीरेश लगातार जताने की कोशिश करता। बार-बार कहता कि इससे बेहतर तो कई क्लास टू सर्विस थीं। तुम्हें वही लेनी चाहिएं थीं। वीरेश की आध्यात्मिक रुचि को संबोधित कर सचिन एक बार नहीं उसे कई बार कह चुका था कि वह इसे ईश्वर की कृपा मानता है कि यह सर्विस उसे मिली है। बहुत सिद्धियाँ जिसके लिए तपस्वियों को हिमालय में शरण लेनी पड़ती है, इस सर्विस में सहज उपलब्ध है। पत्रकारों और बुद्धिजीवियों से वास्ता पड़ने की वजह से क्रोध, मद, मोह, लोभ, मत्सर की संभावना ही समाप्त हो जाती है। सचिन उन्हें पूरी गंभीरता से स्पष्ट करता रहा था कि अपने सर्विस के ‘जॉब कंटेन्ट’ से वह इतना संतुष्ट है कि बेटी कहती है कि अगर सिविल सर्विसेज़ का ऑप्शन उसने चुना तो उसकी पसंद सूचना सेवा ही होगी।
उधर वीरेश सचिन की सर्विस को नीचा दिखाने का मौका तलाशता रहता। अन्य लोगों के हवाले से कहता, फ़लाँ कह रहा था कि सचिन की सर्विस से बेहतर तो संजय की सर्विस है, बेहतर हुआ होता सचिन भी महेश वाली जॉब चुज किया होता। सचिन वीरेश की मानसिकता समझने लगा था। बिना किसी तीव्र प्रतिक्रिया के वह सहज ढंग से वीरेश की बात टाल जाता। कभी वह संजय, महेश या चर्चा में आए अन्य के सर्विसेज़ की सीमाएं उसे बताता।
एक तरफ सूचना सेवा के उच्च पदों की जवाबदेहियों के निर्वहन से सचिन की अपनी अलग पहचान बन रही थी तो दूसरी तरफ मत्सर को वीरेश की आध्यात्मिकता का अवलंब भी रोकने में विफल सिद्ध हो रहा था। सिविल सर्विसेज़ की प्रतियोगिता परीक्षा की अपनी विफलता के लिए वीरेश बाउजी को दोषी ठहराने लगा था, शुरू में किसी और के हवाले से, बाद में खुले-आम। झूठी कहानियाँ बना उस पिता को दोष देने लगा जिसके कंधे उसकी दवाइयों की भारी बोतलें और उसके लिए फलों को ढोते-ढोते झुक गईं। विफलता स्वीकार करने की हिम्मत जुटाने की बजाय उसने पिता को दोषी बनाने का कुचक्र रच डाला। आध्यात्मिक समझ का दम्भ भरने वाला वीरेश सनातन सिद्धांत की मूल भावना भी नहीं समझ पाया था। वनवास का कारण बने पिता के लिए भी राम के मन की श्रद्धा तनिक कम नहीं हुई थी और इसी तरह गणेश का ब्रह्मांड सिर काटने वाले पिता के श्री चरणों में ही था। इधर सब कुछ कर के भी वीरेश के बाउजी उसके नजरों में दोषी थे।
लगता है सिर्फ मत्सर पास हुआ, बाकी सब फेल। सचिन सोचता रहता, काश वीरेश की चिट्ठी के उस वाक्य को उसने गंभीरता से ना लिया होता। अगर वह सिविल सर्विस में अफसर ना बना होता तो वीरेश के मन में हीन भावना नहीं पनपती और तब शायद मत्सर को खेल का मौका नहीं मिल पाता। उस एक वाक्य ने कितना कुछ बदल दिया था।
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सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है।