जर्मन दार्शनिक मार्टिन हाइडेगर की कविताएं
जर्मन दार्शनिक मार्टिन हाइडेगर (Martin Heidegger) अस्तित्ववाद के सिद्धांत के सबसे बड़े प्रणेताओं में से एक हैं। डॉ मधु कपूर के माध्यम से हमने हाइडेगर की तीन कविताएं पहले भी यहाँ पढ़ चुके हैं। इन कविताओं से पहले मधु जी ने अपनी ओर से एक note लिखा है, वह भी बहुत रुचिकर है और कविताओं को अच्छी प्रकार से समझने में मदद भी करता है।
बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक मार्टिन हाइडेगर (Martin Heidegger) ने अपने अत्यंत प्रख्यात ग्रंथ Being and Time में प्रथागत स्थायी और नित्य अस्तित्व की धारणा को नकार कर परिवर्तनशील मानवीय अस्तित्व को स्वीकार करते है, जो अनुभव और परिस्थितियों के प्रवाह में बदलती रहती है। हमारा अस्तित्व वास्तव में निरंतर ‘होने’ (becoming) की एक प्रक्रिया है। शैशवास्था से लेकर वृद्धावस्था तक व्यक्ति नाना परिवर्तनों के मध्य से गुजरता है, पर उसके अस्तित्व की इकाई बनी रहती है। समाज और जगत के साथ नाना टकराहटों के मध्य वह अपना अस्तित्व तलाशता रहता है। व्यक्ति सत्ता और जगत के बीच जो एक सापेक्ष सम्बन्ध है,(being-in-the-world) उसके फलस्वरूप व्यक्ति का अस्तित्व आसपास की परिस्थितियों से छन कर निखरता जाता है। अपनी इसी selfsame सत्ता की खोज में व्यक्ति भटकता है। वह न अपने मित्र की तरह होता है, न अपने जुडुवां भाई की तरह और न ही किसी अन्य की तरह। लेकिन अस्तित्व ‘समान’ और ‘बराबरी’ वालों के आवर्त में घूमता हुआ अपना विवर्तन जारी रखता है। इसलिए कवि द्वारा व्यवहृत ‘selfsame’ शब्द एक तरह से विरोधाभास को जन्म देता है, जिसमें हम वही होने के बावजूद वही नहीं रहते हैं।
मानवीय अस्तित्व (Dasein-जर्मन शब्द) को किसी एक चौखटे में बाँध रखने से उसके अस्तित्व की सम्भावनायें कुंठित हो जाती है, और इस अवस्था में उसका अस्तित्व असली (authentic) (Eigentlichkeit ̶ जर्मन शब्द) नहीं रह जाता है। अस्तित्व की विश्वसनीयता तभी कायम होती है जब हम बिना किसी दबाव के अपने स्वरूप और होने वाले परिवर्तन को स्वीकार करते है। दूसरी ओर अस्तित्व की अविश्वसनीयता का अर्थ है स्वयं से झूठ बोलना, मक्कारी करना अथवा अपनी असलियत को समाज की आड़ में अस्वीकार करना। उदाहरण के लिए किसी ऊँचे तबके की बैठक में शामिल होने पर बड़ी बड़ी डींगे हांकना, अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए नियम विरुद्ध काम करना स्वयं को धोखा देना है।
हमारे और जगत के बीच की दूरी जिस धागे से जुड़ी रहती है, हाईडेगर उसे between of entities शब्दबन्ध के द्वारा व्यक्त करते है ̶ जैसे मूल से विच्छिन्न न होकर भी अपने अस्तित्व की बढ़त बनाये रखना, बीज से अलग न होकर भी पेड़ का अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को बजाय रखना, तथा किसी विशेष शास्त्रीय राग के स्वरूप को अक्षुण्ण बनाये रख कर नए नए स्वरों का प्रयोग राग के स्वतंत्र अस्तित्व की घोषणा करता है।
दार्शनिक कलेवर में लिपटी हाईडेगर की कवितायें व्यक्ति को पूर्वाग्रह से मुक्त कर, उसका नकली मुखौटा उतार कर, असलियत को सामने खड़ा कर देती है। उदाहरण के लिए हमारे चारों तरफ आकाश, पृथ्वी, दिन रात इत्यादि जिस तरह जुड़े रहते है, वैसे ही दर्शन से भी हमारा नजदीकी सम्बन्ध है, लेकिन हम बाहरी चमक-दमक में इतने डूबे रहते है कि उसे अनुभव नहीं करते है। लेकिन जब परिस्थितिवश हम किसी अँधेरे में गिर जाते है, तो स्वतः ही दार्शनिक उजाले की तरफ उन्मुख होने लगते है, जो हमें जिन्दा रखने की खुराक देता है और जीने का तरीका सिखाता है। हाईडेगर के अनुसार हमारा जीवन कविता से ओतप्रोत है, तर्क या चिंतन से नहीं। जैसे एक संवेदनशील काठमिस्त्री एक लकड़ी के टुकड़े से एक कैबिनेट बना कर स्वयं को अभिव्यक्त करता है, कविता उसी तरह जगत की हर वस्तु के साथ हमारे सम्बन्ध को संवेदनशीलता से उजागर करती है।
प्रतीक्षा (waiting) की धारणा का अर्थ है ‘मृत्यु की प्रतीक्षा ‘being-towards-death अर्थात अस्तित्व का मृत्यु की ओर उन्मुख होना। असलियत तो यही है कि हम धीरे धीरे मृत्यु की तरफ बढ़ रहे है, जो हमारे अस्तित्व के परिवर्तन का ही एक अंग है। मृत्यु अस्तित्व का अंतिम पड़ाव है जिसमें हमें सक्रिय अंश लेना है। अपने अस्तित्व को सही तरह से समझने के लिए मृत्यु को समझना अनिवार्य है। वे कहते है प्रतीक्षा का अर्थ समय काटना नहीं है और उदासीन होना भी नहीं है।
अस्तित्व मृत्यु से समझौता नही है, पर जो अनिवार्य है उसे स्वीकार करना है। हमें अपनी परिस्थितिओं से सवाल करना चाहिए और अपने अस्तित्व की सम्भावनाओं को विकसित करने के लिए समाज के बंधनों को अस्वीकार कर अपनी सीमित सत्ता को पहचानना चाहिए। अस्तित्व उस फसल की तरह है जिसे हम खुद ही बोते है और खुद ही काटते है। कुछ चुनी हुई कविताओं से कवि हमारे अस्तित्व की परतों को खोल कर रख देता है..।
१
स्वयं वही
(The Selfsame)
सदैव बदलते रहने से ही
केवल
अपने विशिष्टरूप को बचाया जा सकता है?
निरंतर अपनी परिधि में रहते हुए,
तुम राजसी बने रह सकते हो,
उसके करीब नहीं, उसके अपने.
२
वही और स्वयं-वही
(The Same and the Selfsame)
तो तुम वही बने रहना चाहते हो हर जगह ?
अपनी असाधारणता का बखान करना
एक आम बात है,
तुम ‘स्वयं-वही’ को कहीं भी नहीं देख सकते.
अनन्यरूप से वह अनन्य ही रहता है,
बिलकुल विशुद्ध
अपने को सुसज्जित करता हुआ
हमारे लिए.
३
चुप्पीभरी रज़ामंदी
(Acquiescence)
सिर्फ इंतज़ार में ही
हम ‘अपने’ में स्थिर रह सकते है?
लोगों और वस्तुओं को अनुदान दे सकते हैं
विश्राम की ओर वापसी का।
पुराने वायलिन मास्टर के गीत की तरह,
बिल्कुल नाजुक
एक अनसुनी चूक,
छुपे दिलों में, वाद्यों का.
रास्ते और खतरे
कथा और सेतु
जो एक ही भ्रमण में मिल जाते
आस्था और ले जाना
अभाव और जिज्ञासा
अपने ही बनाये रास्ते में.
बदलना पर्याप्त नहीं है, परिवर्तन भी नहीं
सिर्फ पुनः-वापसी पुराने ‘स्वयं-उसी’ में.
‘वही’ ठहरा रहेगा, भौतिक वस्तुएं—
पत्थर, सोना और लकड़ी से वैराग्य
जो दुःख को साफ कर देता है
उसको जीत लेता हैं, व्यथा पर प्रलेप लगाता है।
४
प्रतीक्षा के द्वारा स्वामित्व की प्राप्ति?
(First by Waiting Shall we Own Ourselves?)
इंतज़ार में? आने का इंतज़ार?
या कभी भी ‘किसी चीज़ के लिए’ इंतज़ार नहीं?
केवल इंतज़ार ‘किसका’ ?
उनका? जिन पर हमारा अधिकार है,
कभी खुद गणना की
बदलती हुई अपेक्षाओं के साथ?
झुक कर आगमन की प्रतीक्षा।
एक विशुद्ध शुरुआत की,
उसके लिए इंतज़ार.
आख़िर कैसे?
कुछ चिह्नों की खोज,
अप्राप्य छुपे हुए की,
उसके लिए कुछ दावा,
उसकी अमूर्त अनुपस्थिति का,
उसकी बेदखली का,
जिसमें एक गहरी चमक है:
अस्तित्व की.
५
मौत
(Death)
मौत
मौत अस्तित्व की पराकाष्ठा है
संसार की कविता में.
मौत तेरे-मेरे को
इतना वजनदार बना देता है
और
ज़ोर-शोर से निक्षिप्त होता है
शांति की ऊंचाइयों तक,
धरती के सितारों की शुद्धता तक।
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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक मेला में रिलीज़ हुआ है।