भाषा बहता नीर
-राजेंद्र भट्ट*
अक्सर ऐसा होता है कि हम किसी तथ्य के अटपटेपन को बार-बार देखते हुए भी उस पर गौर नहीं करते, हमारा दिमाग उस विचित्रता को, क्षण भर ठहर कर, पकड़ नहीं पाता।
पिछले 35 साल से अँग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया है – सरकारी, व्यावसायिक, साहित्यिक- समसामयिक – सभी तरह का। पर कुछ समय पहले जिस जगह पर अटका; ऐसा लगा कि बहुत पहले ही यह कैसे अनदेखा रह गया।
जेम्स प्रिंसेप ( 1799-1840) की जीवनी का अनुवाद कर रहा था। प्रिंसेप असाधारण प्रतिभाशाली थे – प्राचीन भारतीय लिपियों के अध्येता, भारतविद, सिक्कों की ढलाई से लेकर उनकी ऐतिहासिकता के जानकार, नगर-निर्माता और मौसम-विज्ञानी ----साथ ही, बेहद नेक, परोपकारी व्यक्ति भी। इनके भाई भी अपने-अपने क्षेत्रों में अग्रणी और नेकदिल इंसान थे।
जीवनी के अनुवाद का काम प्रवाह से चल रहा था। जेम्स के बचपन, माता-पिता, परिवार की बातें, वगैरह। (आगे कुछ सर्वनाम,क्रियाएं तथा अन्य शब्द उद्धरण-चिह्नों में ( ‘ ‘) कर दिये गए हैं, इस लेख का उद्देश्य समझने के लिए उन पर गौर करें)
जेम्स के पिता जॉन प्रिंसेप रोजी-रोटी कमाने ईस्ट इंडिया कंपनी में केडेट (फौजी) के रूप में भर्ती हो कर भारत ‘पहुंचे।‘ ज्यादा कमाने के इरादे से ‘उन्होंने’ वह नौकरी छोड़ दी और नील की खेती और कारोबार करने ‘लगे।‘
अब इसके बाद जॉन प्रिंसेप का सारे कैरियर का सार-संक्षेप यही है कि अपनी कमाई-कारोबार बढ़ाने में ‘उन्होंने’ बहुत मक्कारियाँ-धोखाधड़ी कीं। दूसरे शब्दों में, ‘वे’ बेहद तिकड़मी, जालसाज़, मक्कार ‘थे’।
यहाँ पर मेरी गाड़ी अटकी। किताब में, एक मक्कार, जालसाज आदमी की हरकतों का जिक्र आ रहा हो तो क्या लिखें? जाहिर है, ‘वह’ मक्कार ‘था’, ‘उसने’ बदमाशियाँ कीं… वगैरह। लेकिन वही आदमी हमारे सज्जन-महान कथा-नायक ( जेम्स प्रिंसेप) ‘का पिता भी है’ ( या कहें - ‘के पिता भी हैं’) ! तो ‘उसे’ या ‘उन्हें’ सम्मान-सूचक सर्वनामों-क्रियाओं के साथ लिखें, या उनके बिना लिखें?
तो पूरी जीवनी के अनुवाद के दौरान मैं लगातार असमंजस में रहा; किए हुए अनुवाद में बार-बार पीछे जाकर काटा-पीटी करता रहा। जब पारिवारिक प्रसंग होता तो लगता, एकरूपता रखते हुए ‘वे,उन्हें,थे’ वगैरह कर दें। आखिर जेम्स ‘का’ पिता ( या फिर ‘बाप’!) कहने से कहानी के महान चरित-नायक का भी तो अपमान होता है।
फिर, अचानक कई पंक्तियाँ, जॉन प्रिंसेप की मक्कारियों की आ जातीं। सोचिए, ऐसा कैसे लिखता कि कि ‘वे’ परले दर्जे ‘के’ मक्कार-धोखेबाज ‘थे।‘ जीवनी थी, इसलिए दोनों तरीके के प्रसंग बार-बार करीब आ जाते, एक-दूसरे से उलझते।
पहली बार, एक साथ ऐसे विरोधाभासी प्रसंग सामने आए, इसलिए पहले कभी इस बारे में सोचा भी नहीं था।
संजीदा अनुवाद-कार्य करने वाले मित्रों से यह अनुभव कुछ निष्कर्षों के साथ साझा कर रहा हूँ। पहली बात, अँग्रेजी में यह समस्या नहीं है। वहाँ सभी ‘सिंगल’ व्यक्तियों( व्याकरण की भाषा में -एकवचन ) के लिए ‘ही-शी’ है और व्यक्ति के सम्मानित या असम्मानित होने से क्रिया बदलती नहीं। बात चाहे राम की हो या रावण की, वाक्य की पूरी रचना समान रहेगी।
(अगली बात कहने से पहले स्पष्ट कर दूँ कि यहाँ मैं भाषा-विज्ञान, भाषाओं के प्रसार, व्याकरण और संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना-विश्लेषण के विस्तार में नहीं जा रहा हूँ। न किसी भाषा को अच्छा-बुरा, ज्यादा-कम समर्थ बता रहा हूँ। यह लेख अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद के उक्त अनुभव तक सीमित है। )
यानि, अँग्रेजी, अपनी बनावट में, ‘वेल्यू-न्युट्रल’ मतलब ‘गुण-निरपेक्ष’ है। यह भाषा – इसका व्याकरण – इसमें वर्णित व्यक्ति के गुण-दोष, महानता-तुच्छता के बारे में कुछ नहीं बताती; इन बातों को जानने-परखने के लिए आपको यानि अँग्रेजी में लिखे-बोले कथ्यों-तथ्यों (कंटेन्ट तथा फ़ेक्ट्स) को ध्यान से पढ्ना-समझना होगा। दूसरे शब्दों में, अँग्रेजी भाषा, अपने व्याकरण में, वर्णित व्यक्ति के प्रति ‘जजमेंटल’ नहीं होती, अपने आप से उसके अच्छे-बुरे, महान-सामान्य होने का कोई फैसला नहीं देती – निरपेक्ष रहती है।
जबकि, हिन्दी अपने व्याकरण - बनावट और अभिव्यक्ति - में गुण-निरपेक्ष नहीं है, जजमेंटल है। जैसा उक्त प्रसंग से स्पष्ट होता है। संक्षेप में – राम ‘थे’ और रावण ‘था’ कहते ही, बिना हमारे आगे कथ्य-तथ्य पढे-बोले, हिन्दी दोनों चरित्रों की अच्छाई-बुराई पर पहले ही निर्णय दे देती है, जबकि अँग्रेजी का ‘राम/रावण/ही/शी वाज’ निर्णय-निरपेक्ष हैं।
किसी भी वैज्ञानिक पद्धति के, विवेकपूर्ण निष्कर्ष हासिल करने के लिए आपके साधन, विवेचना-पद्धति या उपकरण खरे, सही और निरपेक्ष होने चाहिए। साधनों-उपकरणों को पहले से आपके निर्णय को प्रभावित-पूर्वाग्रहित नहीं करना चाहिए। जैसे, सही तोलने के लिए शुद्ध और उचित बाट-तराजू होने चाहिए और बाट-तराजू की सामान के बारे में कोई ‘राय’ नहीं होती। इसी तरह किसी व्यक्ति या घटना-क्रम के बारे में, सही मूल स्रोतों पर आधारित कथ्य-तथ्य हों, पहले से निष्कर्ष के बारे में हमारे पूर्वाग्रह, भावुकताएँ न हों; तभी भौतिक पदार्थों से लेकर व्यक्तियों, घटना-क्रमों के बारे में सही, सटीक परिणाम और निष्कर्ष मिलेंगे।
अब भाषा भी, ‘सत्य’ और सही जानकारी पाने का उपकरण और साधन ही तो है। इसे भी निष्पक्ष, निरपेक्ष, वस्तुपरक (ऑब्जैकटिव) होना चाहिए। कथ्यों-तथ्यों की समझ-पड़ताल से पहले ही राय बनाने वाला- आवेगपरक या व्यक्तिपरक (‘सबजेक्टिव’) नहीं होना चाहिए; तभी हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सही निष्कर्ष तक पहुँच सकते हैं- बिना पहले से कोई राय बनाए।
क्या हिन्दी के व्याकरण की बनावट और अभिव्यक्ति में एक अंतर्निहित (इन्हेरेंट) व्यक्तिपरकता है? अगर है तो क्या इससे कथ्यों-तथ्यों की परख के बाद व्यक्तियों-घटनाओं के वैज्ञानिक मनोवृति के साथ आकलन में बाधा आती है? क्या भाषा की इस सीमा से, बचपन से ही, हमारी शिक्षा और समझ में, अनजाने में, पूर्व-धारणाएँ या पूर्वाग्रह घर कर जाते हैं जो आगे सटीक समझ, उच्च शिक्षा और शोध के दौरान, हमारी समझ की स्लेट को एकदम साफ नहीं रहने देते?
इस लेख में इस चर्चा का विस्तार न करते हुए कुछ उदाहरण रख रहा हूँ। जैसे राम थे, सीता थी; राणा प्रताप थे, लेकिन अकबर था। अशोक भी, तमाम अच्छाइयों के बावजूद, आम तौर पर, ‘था’ ही रहा। माँ थी, पिता थे। रानी लक्ष्मीबाई (तमाम बहादुरी के बावजूद ) थी, लेकिन नाना साहब थे।( व्याकरण में लक्ष्मी बाई ‘थीं’ और सीता ‘थीं’ की गुंजाइश है पर ‘औरत’ है तो अक्सर आदतन जुबान पर या लिखने में ‘थी’ ही निकलता है!’ ‘थीं’ लगाने के लिए अतिरिक्त समझ-सजगता चाहिए जो मन में गायब हो तो भाषा से भी गायब हो जाती है।
इनके पीछे के तमाम तरीकों के पूर्वाग्रहों पर नहीं जा रहा हूँ। वह अलग विषय है और सुधीजन समझ भी रहे होंगे। पर स्पष्ट हो गया होगा कि हमने अक्सर ऐसे उदाहरणों को गणित के स्वयंसिद्ध (एक्जिओमेटिक ट्रुथ) की तरह स्वीकार लिया, इनका जिक्र आने पर ठिठके नहीं कि क्या ये बिना जाँचे, पहले से तय नहीं कर दिए गए थे – बिना विश्लेषण की प्रक्रिया से गुजरे! तथ्य-कथ्य को विस्तार से पढ़ने, जाँचने से पहले ही, हमारी पाठ्य-पुस्तकों, हमारे अध्यापकों, घर-बाहर के सयानों के ये पहले से तय हो चुके ‘था,थी, थीं,थे’ , पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे निर्णयों को प्रभावित करते रहे हैं। फिर इनकी परतें जमती गईं और हमारे दिमागों और अवचेतन (सबकोंसस) पर इनकी ‘स्वयंसिद्धता’ पुख्ता हो गईं। इससे हमारा उच्च अध्ययन, हमारा शोध, हमारी जीवन-जगत की समझ प्रभावित हुई। कम वैज्ञानिक रही।
ये बात हुई व्याकरण की। दूसरा पक्ष है शब्द-सम्पदा का। यहाँ भी पूर्वाग्रह-युक्त शब्द हैं, जो भाषा के ‘उपकरण’ के जरिए हमारी समझ को, पीढ़ियों से, प्रभावित करते रहे हैं। ये पीढ़ियों के अन्याय, गलत-अवैज्ञानिक समझ से पनपे हैं। सभी भाषाओं में हैं। पिछले कुछ दशकों से, अँग्रेजी के समझदार लोग इन्हें बदलने के प्रयास कर रहे हैं। इनमें जो मर्दवादी, शोषित-विरोधी, समानता-विरोधी स्वर थे, उन्हें ठीक किया जा रहा है। अँग्रेजी सर्वनामों को ‘जेंडर-न्यूट्रल’ बनाया जा रहा है। (s/he या he की जगह she)। चेयरपरसन, ह्यूमनकाइंड, स्पोर्ट्सपरसन, होममेकर जैसे शब्द इसी चेतना के हैं। भारत में, हमने कुछ अपमानजनक जातिसूचक शब्द प्रतिबंधित किए हैं। हालांकि, भाषा के सवाल अगर ‘सर्वज्ञानी’ राजनीतिबाज नहीं, भाषा से जुड़े संवेदनशील व्यक्ति ही सुलझाएँ तो बेहतर होगा।
हिन्दी में ऐसे प्रयास कम ही हुए हैं। हिन्दी में पुरुष-प्रभुत्व वाले शब्दों का ‘पुरुषार्थ’ तो है ही, सदियों के सामंती असमानता, पूर्वाग्रहों से जुड़े शब्द भी हैं। क्या इन शब्दों के मूल स्रोत के प्रति सजग और संवेदनशील हो कर इनको धीरे-धीरे बदला जा सकता है?
विस्तार में न जा कर, कुछ नमूने पेश हैं। जैसे-‘प्रजातन्त्र’ की जगह ‘लोकतन्त्र’। ‘प्रजा’ होने से ‘राजा’ का भाव जिंदा रहता है। राष्ट्रपति, कुलपति जैसे शब्दों को क्या राष्ट्र-प्रमुख, कुल-प्रमुख कर सकते हैं? ‘चूड़ियाँ पहन लेनी चाहिए’ जैसे मुहावरों का जोश भी कम करना होगा। ऐसी कमजोर, बुजदिल भी नहीं होतीं ‘चूड़ी पहनने वालियाँ’! वर्णमाला की प्राईमर में भी ‘क्ष’ से बड़ी मूंछ-भाले वाले ‘क्षत्रिय’ को अबोध बच्चे की ‘विजुअल मेमोरी’ से बाहर करना होगा। शब्दों-मुहावरों की गहराई में जाकर सतत, सजग, संवेदनशील प्रयासों से शब्दावली में पूर्वाग्रह-मुक्त परिवर्तन लाए जा सकते हैं। क्या हिन्दी से जुड़ी संस्थाएं, शब्दावली आयोग, मीडिया, विश्वविद्यालय, प्रबुद्ध-जन पहल कर सकते हैं?
व्याकरण के पक्ष पर वापस आएँ। क्या व्याकरण भी बदला जा सकता है और मानक शब्दावली, वर्णमाला बनाने का महत्वपूर्ण कार्य करने वाली केंद्रीय हिन्दी निदेशालय जैसी संस्थाएं, मीडिया, विश्वविद्यालय – और सबसे बढ़ कर वैज्ञानिक मानसिकता का पक्षधर समाज - पहल करके थोड़ा परिवर्तित ‘मानक व्याकरण’ बनाकर उसे स्थापित-प्रचारित कर सकते हैं? ताकि भाषा ज्यादा वैज्ञानिक, व्यक्ति और गुण-निरपेक्ष, नॉन-जजमेंटल हो सके?
जटिल काम है, समय लगेगा। लेकिन यहाँ भी इसे, बिना तथ्यों की पड़ताल किए असंभव कहना अवैज्ञानिक पूर्वाग्रह होगा। थोड़ा सीमित देश-काल, यानि जो सिर्फ अभी नज़र आ रहा है, उसके दायरे से बाहर निकल कर, बिना कोई पहले से राय बना कर सोचें। क्या वैदिक संस्कृत के व्याकरण, अभिव्यक्ति, यहाँ तक कि शब्दों के अर्थ-निहितार्थ में बदलाव नहीं आए हैं और महाकाव्यों की संस्कृत, और फिर बाद की संस्कृत काफी भिन्न नहीं है? क्या अपभ्रंशों वाले हिन्दी के रूपों, ब्रज-अवधी और आज की हिन्दी, बल्कि अपनी ताज़ा अखबारी ‘हिंगलिश’ में परिवर्तन नहीं आए हैं? क्या महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनकी टीम ने भाषा को एक मानक में नहीं साधा? क्या आधुनिक चीन की लिपि-उच्चारणों के अँग्रेजी स्पेलिंग बार-बार बदलते नहीं रहे? एकदम से ‘ऐसा कैसे हो सकता है’ का फैसला लेने से पहले थोड़ा रुक कर सोचें, कि दुनिया की तमाम भाषाएँ -आसानी के लिए हिन्दी और अँग्रेजी को ही लें – व्याकरण और शब्द-सम्पदा में कितनी बदली हैं। बस,चौदहवीं सदी के ज्योफ़्री चौसर की अँग्रेजी, और ग्यारहवीं-बारहवीं सदी की अपभ्रंश-डिंगल से आज की हिन्दी के बदलावों के बारे में, थोड़ा रुक कर सोचें। हमारी नज़र और यादों का देश-काल बहुत छोटा, क्षुद्र, पूर्वाग्रही और ‘जजमेंटल’ होता है। भाषा और संस्कृति के सवालों को – बल्कि सभी बड़े सवालों को बड़े देश काल में, क्षुद्रताओं-पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ कर सोचना ज़रूरी है।
कुल मिला कर, यह कहीं कुछ अटपटे की अनदेखी करने की प्रवृति से आगाह करने, हर कथ्य-तथ्य पर ध्यान से सोचने का आग्रह करने और इन बातों को साझा करने का विनम्र प्रयास है। और समाप्त करने का ‘पॉज़िटिव नोट’ ये, कि कबीर साहब कह गए हैं कि ‘भाषा’ को कुंए का रुका पानी नहीं, ‘बहता नीर’ बनाओ। तो मन के किसी कोने में, भाषा के अनर्निहित पूर्वाग्रहों, भाषा की सीमाओं – और उनसे हमारे मन पर पढ़ती अवैज्ञानिक पूर्वाग्रहों की परतों के खतरे के प्रति सजग तो रहा ही जा सकता है। हो सकता है, यहीं से कभी, ‘नीर’ को बहने का रास्ता मिले।
(लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। यह लेख कुछ भिन्न रूप में यहाँ से पहले समयांतर में प्रकाशित हुआ था किन्तु विषयवस्तु का महत्व देखते हुए इसे यहाँ भी प्रकाशित किया जा रहा है।)