हेमल साड़ियाँ - अनीता गोयल की नई कहानी
अनीता गोयल अब इस वेब-पत्रिका के लिए नई रचनाकार नहीं रही हैं. यहाँ प्रकाशित उनकी दो कहानियां काफी चर्चित रही हैं. उनकी दोनों कविताएँ भी काफी पसंद की गईं थीं. आज की कहानी भी पहली कहानियों की तरह मानवीय रिश्तों की पड़ताल तो है ही, साथ ही यह कहानी महिला-सशक्तिकरण की भी है. हम इस कहानी के बारे में और कोई टिप्पणी इसलिए नहीं कर रहे कि आप स्वयं इस रचना के साथ अपनी साहित्यिक यात्रा करें और चाहें तो कमेंट बॉक्स में अपनी राय से अवगत कराएँ.
हेमल साड़ियाँ
अनीता गोयल
ये दिलवालों की दिल्ली की सड़के बहुत जानलेवा है। कुछ कुछ इलाक़े तो ऐसे प्रतीत होते है जैसे कि पैदल चलने वाले, मौत की सड़क से निकल के अपनी मंजिल की और जा रहे है। सड़क और ट्रैफिक धाएँ धाएँ करता निगलने को आता है पर लोग भी चुस्ती से टप्पे खाते अपनी राह की और चलते जाते है। इन्ही सड़कों पर बिजली की गति से चलत्ते हुए एक काले पीले तिपहिया ऑटो से रेशमी साड़ी का पल्ला तेज हवा से कभी अंदर और कभी बाहर झाँक रहा था। तिपहिया के अंदर एक नव विवाहिता युवती बैचेनी से बैठी थी। उसे किसी महाविद्यालय में अध्यापिका के पद के साक्षात्कार के लिए जाना था और देर हो रही थी। वो बार-बार स्कूटर चालक (उन दिनों ऑटोरिक्शा को पता नहीं क्यों स्कूटर कहा जाता था) को जल्दी करने को कह रही थी पर सड़क पर ट्रैफ़िक होने से स्कूटर को कई बार रुक पड़ रहा था। स्कूटर लाल बत्ती पर रुका तो सड़क के किनारे, मैले आधे फटे कपड़े पहने भीख माँगते बच्चो ने आँखे खोलकर एक बार उसके मनोरम हरे पिस्ता रंग जैसे लहराते पल्ले को देखा और सांस भरकर फिर रुके ट्रैफिक में फँसे लोगो से भीख मांगने लगे। एक आध ने युवती के पास जाने का प्रयास किया पर युवती ने बच्चों के पास आने से पहले ही चौकन्ना होकर उन्हें हाथ हिलाकर परे हटा दिया।
हेमल बंसल ने हाल ही में संस्कृत में अपनी पी एच डी समाप्त की थी और तुरंत ही एक बहुत ही समृद्ध परिवार में उसका विवाह हुआ था। उसके अपने पिता स्कूल में हेड मास्टर थे। उनके एक विद्यार्थी के साथ ही उसके रिश्ते की बात बन गई। लड़के वालो का जमा जमाया चाय का विस्तृत व्यापार था। सो हेमल को ससुराल से, एक से एक गहना और कीमती से कीमती वस्त्र मिले। हेमल का ससुराल पहाड़गंज में था जो कि दिल्ली का शायद सबसे अधिक भीड़ भाड़ वाला क्षेत्र है तो हेमल बिना काम के बाहर निकलना पसंद नहीं करती थी। नई शादी थी और उसके पति को काम के सिलसिले में महीने में कम से कम पंद्रह दिन असम में रहना पड़ना था। आने जाने के लिए हेमल अपनी सास के साथ ही निकलती थी। गलियों से बाहर निकलकर ही कार मिलती या अक्सर टैक्सी या तिपहिया स्कूटर लिया जाता था। ऐसे मौकों पर सारी गली, हेमल के कपड़ो और गहनों को एक नज़र देखने के लिए उमड़ पड़ती। बंसल परिवार की बहू की टोर ही अलग थी।
हेमल शिक्षकों के परिवार से थी और संस्कृत में हमेशा ही उसकी गिनती अव्वल छात्रों में ही होती थी। शादी के कुछ एक वर्ष बाद हेमल जी जान से नौकरी प्राप्त करने के लिए आवेदन करने में लग गई। नियुक्तियों में एक एक रिक्त स्थान के लिए सौ के आस पास उम्मीदवारों के आवेदन जमा होते थे। और ऊपर से जान पहचान और राजनीति का भी दवाब था। अपने घर और ससुराल वालों को हेमल नौकरी के लिए अपनी बेचैनी नहीं दिखाना चाहती थी पर उसे बहुत घबराहट थी कि सत्र की पहली नियुक्तियों में उसकी भी हो जाये तो बहुत ही अच्छा हो। अगर ससुराल में धन की कमी न हो तो नौकरी की बेचैनी और को कोई ज्यादातर समझ नहीं पाएगा। पर पी एच डी करने के बाद केवल सुंदर लिबास वाला जीवन हेमल को नहीं चाहिए था।
करोल बाग में स्थित महाविद्यालय, हेमल के घर से बहुत दूर नहीं था। तिपहिया ने आख़िर में समय से ही हेमल को कॉलेज पहुँचा दिया। हेमल महाविद्यालय के प्रशासन कक्ष में पहुंच कर अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगी। सभी थोड़ी थोड़ी देर में हेमल की लावण्यमयी पिस्ता रंग साड़ी और उस पर की गई गुलाबी कश्मीरी कढ़ाई को देखकर मन ही मन सहरा रहे थे। किस्मत हो तो हेमल बीबी जैसी। हेमल का रंग साँवला था और नैन नक्श भी कोई ख़ास नहीं थे पर ससुराल ज़ोरदार थी। देह में छुपी कुशाग्र बुद्धि किसे दिखे? हेमल पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतरी थी सो नौकरी उसे मिल ही गई।
महाविद्यालय में उस साल, अलग-अलग विभागों में बहुत सी तरुण अध्यापिकाओं की भर्ती हुई। सभी आपस में हिल मिल गई। हेमल ज़्यादा मिलनसार नहीं थी। अपने काम से काम रखती और अपनी कक्षाएं समाप्त होते ही सीधा घर जाती। हेमल के मुख पर कोई प्रसाधन नज़र नहीं आता था। वह बहुत सादा थी। उसकी सास हर सुबह के लिए चुन कर उसके लिए साड़ी निकालती और असली जेवर साथ रखती। सास को पता था कि हेमल अपनी किताबों और रजिस्टरों के इलावा कुछ और सुबह के लिए नहीं संजोएगी। हेमल सुबह पलंग पर रखी साड़ी को देखती तक न थी, क्योकि उसे साड़ी पसंद ही नहीं थी। उसे सलवार क़मीज़ ही भाता था, ये और बात थी कि वो साड़ी बांधती बहुत ही सलीके से थी। हेमल की एक से एक सुंदर साड़ियाँ महाविद्यालय के परिसर में लहराने लगी। गनीमत थी कि कॉलेज केवल लड़कियों का था। छात्राएँ, अध्यापिकाएँ तथा सभी सहकर्मी, प्रशंसा, चाहत और ईर्ष्या के साथ हेमल की अद्भुत रेशम, मलमल, शिफॉन, साड़ियों को देखते रह जाते। कुछ छात्राओं का कहना था कि “कैसे पढ़े? उफ़! ये लहराते आँचल और उन पर किया काम! नज़र है कि हटती ही नहीं।“
हेमल, अपने घर में भी बहुत चुप ही रहती थी। उसकी सास के अनुसार सभी लड़कियों का शादी की शुरुआत में यही हाल होता है और फिर धीरे धीरे हर चीज़ में मन लगने लगता है। उसका पति भी तो काफ़ी घर से बाहर ही रहता था। मन कैसे लगे? नए घर से पहला रिश्ता तो पति से ही था। हेमल का पति कुमार भी क्या करे? माँ बाप की इकलौती संतान जब पंद्रह दिन के बाद घर आए तो वो भी उससे बात करना चाहते है। घर और व्यापार की अपनी जरूरते है। हेमल स्थिर और शीतल स्वभाव की थी। शिकायत करना उसकी प्रवृति नहीं थी। पर अन्य लड़कियों की भाँति विवाह के बाद उसका मन भी आकर्षक लगने को करता था। उसे भी मन होता कि पति उसकी तरफ़ प्रेम और प्रशंसा से देखे। पति के आने पर हेमल ने शुरू शुरू में रसोई संभाली, पर कुमार बहुत ध्यान से केवल माँ की बनाई सब्जियों को अपनी थाली में डालता। अगर हेमल धीरे से कुछ अपना बनाया परोस दे तो “अच्छा नहीं है” या “मुझे पसंद नहीं है”, कहकर नहीं खाता। हेमल कुछ प्रसाधन लगा ले कि पति मन भाये तो, कुमार फट से कह देता, ”लीपा पोती काहे करी है?” हेमल का मन वही बुझ जाता। बात मन में ही रह जाती कि “आपके लिए”।
समय और अनुमति दोनों नहीं थी कि कुमार और हेमल कहीं अकेले साथ जाये। जब भी कहीं जाना आना होता तो हेमल अपनी सास की बगल में ही होती। कुमार रात में देर से सोने के लिए कमरे में आता और तब तक हेमल प्रतीक्षा कर आधी सो चुकी होती थी। कुमार को कोई फर्क नहीं पड़ता था क्योकि जब वो चाहता तो हेमल इनकार नहीं कर पाती थी बस वही कुछ पंद्रह बीस मिनट पति उसका था। अपने पिता की जान हेमल अब ससुराल घर में है या नहीं किसी को ख़ास अंतर नहीं पड़ता था। कहते है कि औरतों के काम करने से ही उनका आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता आएगी, जाने कितना सच है इसमें? उसने माँ को देखा है। माँ कहती थी कि बहुत आवाज और क्रांति करने से घर टूट जाते है। शांत स्वभाव की हेमल जब अपने मायके भी जाती तो उसके परिधान के किनारो की तरंगों में, उसका बैठा मन किसी को न दिखता और वो अपनी पुस्तकों में डूब जाती। वहां भी सब उसके पहनावे की प्रशंसा करते लेकिन हेमल कहीं और ही खोई रहती. कौन जाने कि इन बहुमूल्य लहराते रेशमी आवरणों में क्या-क्या छिपा है और कब तक छिपा रहेगा।
एक दिन कॉलेज में किसी विभागीय मीटिंग में कुछ देर हो गई। सभी अध्यापिकाओं ने कैंटीन से खाने के लिए कुछ न कुछ मंगवाया। दुबली हेमल को कभी किसी ने कुछ खाते नहीं देखा था। सबने हेमल से कहा कि कुछ खाना नहीं है तो कम्पनी के लिए कम से कम एक कप चाय ही पी लो। हेमल प्रतिदिन स्कूटर से कॉलेज आती और जाती थी। 20 रुपए आने के, 20 जाने के और 2 रुपए चाय के। सास हर रोज़ 42 रुपए साड़ी और गहनों के ऊपर रख देती थी। अब दूसरी चाय के पैसे कहाँ से आए? तब तो नकदी का ही जमाना था। फ़ोन पेमेंट उस दौर में नहीं थी। उसने धीरे से अपने शानदार पर्स को खोला, अंदर ही अंदर 20 रुपए के अतिरिक्त एक दो का नोट दिखा। हेमल ने अब विश्वास से दिखावा किया कि वो चाय के लिए छुट्टे पैसे ढूँढ रही है। उस समय दो के नोट चलते थे। उसने नोट निकाला और कैंटीन वाले लड़के से चाय लाने को कहा। चाय लाने के बाद कैंटीन वाले ने नोट वापस किया और बोला, “ये तो फटा है, नहीं चलेगा”। हेमल पर्स में फिर ढूंढने लगी “ओह, छुट्टे नहीं है।“ उषा खन्ना ने कहा, “अरे, कोई बात नहीं, हम अपने बिल के साथ दे देंगे।“ हेमल जानती थी कि उषा खन्ना चाय के पैसे कभी नहीं लेगी, पूछना भी, दोनों के लिए संकोचजनक और लज्जाजनक भी होगा। उसके अंदर कहीं राहत थी और कहीं लज्जा थी कि अब कल सुबह सासू माँ से अतिरिक्त पैसे नहीं मांगने पड़ेंगे। मीटिंग का अंत हेमल की सुंदर साड़ियों की प्रशंसा की फुहार के साथ ही हुआ। विभाग द्वारा अपनी प्रशंसा पर हेमल के मुख पर एक जबरदस्ती की फीकी मुस्कान आई। अंदर से लज्जित और बुझी हेमल ने कब कॉलेज छोड़ा और कब तिपहिया कर गलियों से होती घर पहुँची, उसे पता ही ना चला। घर की बैठक से निकलते हुए उसने कहा कि भूख नहीं है और दरवाज़ा बंद कर कमरे में पलंग पर गिर कर और फफ़क-फफ़क कर रोई। बंद दरवाजों के पीछे छिपे उसके आँसू किसे दिखे और वो क्यों दिखाये क्योंकि पति को परवाह नहीं और सासु माँ ससुराल में उसके रहने के नियम गाड़ने में लगी है।
स्थिर हेमल के मन में अश्रुओं ने उस दिन बैचन हिलोरे भर दी। इस दिन अश्रुओं ने उसके हृदय के पन्नों पर कुछ पंक्तियां रच डाली।
मैं रो दूँ, इजाज़त नहीं थी उसके घर
कुछ कह दूँ, रवायत नहीं थी उसके घर
चहकती ना थी चिड़ियाँ, उड़ते न थे परिंदे
वैसे कोई शिकायत नहीं थी उसके घर
कोई खनक कोई चमक जमज़मा ना पाई
चूँकि फ़ख़्त मुहब्बत नहीं थी उसके घर
बहुत ढूंढा, सब कमरे खाली ही मिले
रूहें उड़ गई कि कुदरत नहीं थी उसके घर।
दो-एक वर्ष यूँ ही बीत गए। हेमल को अब महाविद्यालय की कुछ समितियों का हिस्सा बनने पर भी ज़ोर दिया गया। बहुत सी समितियां थीं भई। अनुशासन समिति, कॉलेज प्रवेश समित्ति, कैंटीन समिति, समय-सारिणी समिति, बाग-बगीचा समिति, विद्याथियों के सर्वागीण विकास समिति, कॉलेज पत्रिका समिति इत्यादि। सभी में बहुत काम था। इन्ही दिनों, कुछ अध्यापिकाओं ने मिलकर महाविद्यालय की पूर्व छात्राओं के लिए एक विशेष कानूनी सलाह समिति या जीवन में किसी भी प्रकार की सहायता समिति का निर्माण किया। उनका कहना था कि कॉलेज की ज़िम्मेदारी, कॉलेज से बी ए पास करने के साथ समाप्त नहीं हो जाती। अगर बच्चियों को जीवन में दिशा या सहायता चाहिए और अगर हम मदद कर सकते है तो हमें करनी चाहिए। फिलहाल इस कमेटी में काम कम था। मिस माथुर हमेशा अति उत्साहित रहती थी जो अधिकतर काम संभाल लेती थी। सो खानापूर्ति के लिए हेमल इस समिति की सदस्य बन गई। दो तीन महीने में, वो एक आध मीटिंग में हिस्सा ले लेती थी। धीरे-धीरे इसमें कुछ पूर्व छात्राओं ने आना शुरू किया। समस्याएँ बहुत थी – माँ बाप की सख्ती, घर की ग़रीबी, नौकरी, मौहल्ले के कुछ छेड़ -छाड़ करने वाले तत्व, और जी हाँ ससुराल की मुश्किलें। हेमल सुनती और मन ही मन सोचती कैसे सहायता के सुझाव दूँ, जब मैं ख़ुद ही बोझल हूँ। वो चुप चाप बैठक के मिनट्स लेती और बाकी चार अध्यापिकाएँ, लड़कियों को आवाज उठने का जोश दिलाती।
इस बार कुमार जब घर आया तो सास ने कहा, “विवाह को इतने वर्ष हो गए है, हेमल किसी से भी हिलती-मिलती नहीं है। गोद में कोई बालक आए तो लड़कियों का जीवन बदल जाता है। इसकी गर्मियों की छुट्टियाँ है और मुझे जीजी के साथ वैष्णों देवी जाना है। तू इस बार दो हफ़्ते के लिए हेमल को अपने साथ ही असम ले जा।“ कुमार ने कहा, “माँ ये वहाँ क्या करेगी, मैं तो काम में व्यस्त रहूँगा। मेरे ऊपर खामख्वाह का एक और झमेला". ये सुनकर माँ मन ही मन मुस्कुराई और हेमल बिचारी मुरझा कर बिखर सी गई। तय हुआ कि दो नहीं एक हफ़्ते तो हेमल असम जा सकती है। पहली बार पति के साथ असम जाने पर भी हेमल के मन में कोई कुसुम न खिला। उससे न पूछा गया, ना सहमति ली गई और पति के रूखे शब्दों ने उसके अंतर्मन को छीला सो अलग। खैर परिवार ने निर्णय किया सो उसे जाना तो था।
हेमल को हल्का सर दर्द था। विमान में बैठते ही, सुरक्षा पेटी लगाने और अन्य नियमों का प्रवचन शुरू हो गया। कोई सुन नहीं रहा था। विमान परिचारिकाएँ इधर उधर दौड़ रही थीं। हेमल ने एक परिचारिका को रोक कर सिर दर्द के लिए कुछ देने को कहा। परिचारिका ने विनम्रता से कहा, “मैम, कृपया सुरक्षा सूचना सुनें, और इनके प्रसारण के बाद मैं तुरंत आती हूँ।“ कुमार ने नज़र तरेर कर हेमल को देखा। हेमल अपनी सीट पर सहम के दुबक गई और अपनी महिला सहायता समिति में पूर्व छात्राओं की सहायता की पुकार की आवाजें उसके कान में गूँजने लगी , “मैडम, हद है! …….मेरी तो घर में कोई हैसियत ही नहीं है! ……. मुझे मिट्टी का पुतला समझते है! ……. मेरे पिता धन कहाँ से लाए! ……. नौकरी मिलना आसान नहीं है! ……. रिश्तेदार क्या कहेंगे! ……. क्या हल है! ……. हमे बताएँ हम क्या करे! हम क्या करे! हम क्या करे! …….” हेमल सोचे "मैं क्या ही बताऊँ? मैं ही क्या करूँ"?
फिर से परिचारिका की सूचना ध्वनि हेमल के कान में गूँजी, “ आपातकालीन स्थिति में ऑक्सीजन मास्क ऊपर से गिरेंगे। याद रखें, दूसरे की सहायता से पहले स्वयं मास्क पहने, फिर साथ बैठे बच्चे को पहनाये". उसी क्षण हेमल को लगा कि उसने कोई महामन्त्र सुन लिया है. हेमल का कमजोर मन अब आपातकीन स्थिति को समझा। उसने एक लंबी श्वास ली और उसके जीवन में ज्योति से भर गई। विमान उड़ने पर परिचारिका आई और उसने हेमल से पूछा, “मै आपकी क्या मदद कर सकती हूँ?” हेमल ने आत्मविश्वास भरी आवाज में कहा, “धन्यवाद, अब मैं बहुत बेहतर महसूस कर रही हूँ। मुझे एक गिलास जूस दे दीजिए।“ कुमार ने पहली बार हेमल की स्पष्ट और दृढ़ आवाज को सुना और आँखे बंद ही रखी। परिचारिका ने कहा, “विमान उड़ने पर जब स्थिर होता है, हलचल कम होती है तो तबीयत संभल ही जाती है।“
जी हाँ, उस दिन हेमल का विमान उड़ चला। उसके मन के ख़ाली कमरों में कुछ चिड़ियाँ चहक उठी। मन की लहरों ने उसे बताया कि तरंगों को बेख़ौफ़ झूलने दो, और सागर और किनारों के बीच तैरने का आनंद भी अद्भुत है। छुट्टियों के बाद हेमल रात को ही अपने सुबह के परिधान का चयन करके रखती और बिना डगमगाए उसे ही पहनती। सूती खादी साड़ी और सादी बुनतियों में उसके मुख की आभा ही अलग थी। अब उसे कॉलेज परिसर से घर जाने कि जल्दी नहीं थी। महाविद्यालय परिसर में उसकी साड़ियों के पल्लू के तरन्नुम अब जरा हट के है। हेमल अब सहायता समिति की अध्यक्ष है और संयम और आत्मविश्वास से भरे सुझाव पूर्व छात्राओं के लिए सोचती है और देती है।
सबका कहना था कि एक असम की यात्रा और पति के सानिध्य ने हेमल का कायापलट ही कर दिया है। अब हम क्या ही करे इस सोच का। आप भी सोचे ….
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अनीता गोयल, दिल्ली विश्वविद्यालय के भारती महाविद्यालय में 12 साल इतिहास पढ़ाने के बाद, मेलबर्न (ऑस्ट्रेलिया) जा कर बस गई। वहाँ उन्होंने विक्टोरियन स्कूल ऑफ़ लैंगुएजिज़ के प्रोग्राम के अंतर्गत कई बरस माध्यमिक स्तर पर हिंदी पढ़ाने का कार्य किया। अपने आस-पास के परिवेश के प्रति सजग उनकी रचनाएं सामाजिक संवेदना से सरोबर होती हैं।