ईश्वर एक लाचार कैमरा और अन्य कविताएँ - अजंता देव
हमारी वेब-पत्रिका को अजंता देव की कविताएँ इस बार शायद कई माह के अंतराल के बाद मिली हैं. पांच मिलीं तो हमने दो बचाकर रख लीं कि उन्हें कुछ दिनों बाद प्रकाशित करेंगे. ये होती ही इतनी अच्छी हैं कि सब एक साथ 'खर्च' कर देने को जी नहीं चाहता. हमें एक बार फिर यह बताने की ज़रूरत पड़ रही है कि एक बार अजंता देव ने अपने पत्र में हमें लिखा था, "ये कविताएं स्वयं से भी संवाद हैं। कविता के अलावा मेरा संवाद और भला कैसे होगा।" सहृदय पाठक भी कविता के साथ उनके संवाद का लाभ उठाएं!
ईश्वर एक लाचार कैमरा और अन्य कविताएँ - अजंता देव
लाचार कैमरा और ईश्वर
वह लगभग ईश्वर था
मुझ पर नजर रखे दूर से
मेरा हिलना डुलना
मेरा हंसना रोना
मेरा उठना गिरना
सोना और बैठना सब कुछ दर्ज होता हुआ
भाग्यलिपि की तरह
निस्पृह निष्ठुर निर्मम देखती हुई आँख से अधिक क्या होगा ईश्वर?
क्या उसी की याद में मनुष्य ने बनाया कैमरा ?
उतना ही करीब उतना ही दूर
मेरी तकलीफ़ की फिल्म बनाता
मदद किए बिना
न दोस्त न दुश्मन
न अपना न पराया
सत्य को एकटक घूरता
छवि का मोहताज
मेरे बिना वह भी नाकारा है
उसे भी चाहिए ऊर्जा
रोशनी और एक जीवित हाथ
उसमें भी लग सकते हैं फ़िल्टर झूठ के
जिसे केवल जानकार ही समझ सकते हैं
सीखने पर कोई भी दबा सकता है बटन
भूल सकता है ढक्कन हटाना
तब भी वह दर्ज करता रहेगा सिर्फ़ अंधेरा
लाचार कैमरा सा लगभग ईश्वर
या लगभग ईश्वर सा लाचार कैमरा।
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प्यार या शहर?
मैने नहीं
मेरे शहर ने मुझे छोड़ दिया
और बड़े
और आधुनिक के लिए
वो रास्ते बदल गए
वो पेड़ कट गए
बंद हो गईं वो दुकानें
लोग जो थे चले गए जैसे जीवन से
क्या मैने यह सब शहर के लिए कहा ?
वाकई?
लेकिन मैंने कहना नहीं चाहा था शहर के लिए
मुझे तो प्यार के लिए कहना था
यही होता है हर कविता में
प्यार और शहर जगह बदल लेते है
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नाकामयाबी
मुझ पर शोक करने का दबाव था
दुख और सन्ताप से सनी छवियों का
विह्वल कर देने वाले वाक्यों और क्रोधित स्वरों का दबाव था मुझ पर
मुझे शर्म आनी चाहिए थी अपनी क्रीम पर
रंग चुनते हुए अपनी त्वचा का ख्याल कैसे आया
इसका जवाब हाथ में रखना था मुझे
मैं हकला नहीं सकती थी
आख़िर विद्वानों की संगत भी कोई चीज़ होती है
कितनी सूक्तियां लिखी गईं शताब्दियों तक
और धिक्कार कि एक भी याद नहीं आईं जब आया संकट
वह एक मटमैला सवेरा था जिसे आना ही था
मेरे सुप्रभात कहे बिना भी
दिन ढला नहीं बस उजाला कम होता गया
खबरों में विस्फोट की चौंध से आंखों से पानी बह निकला
नहीं, ये आंसू कहलाने जितना पानी नहीं था
ठुड्डी तक आते आते सूख गया था कमबख्त
उदासी एक लकदक भाव था और मैं यहां भी दरिद्र रही
यह दुनिया मुझे माफ़ करे
मुझे होना था शोकमग्न
और मैं महज थक कर रह गई
मैं बिस्तर पर लुढ़क गई
कल की सुबह के इन्तज़ार में।
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अजंता देव - जोधपुर में प्रवासी बंगाली परिवार में ३१ अक्तूबर, १९५७ को जन्म. राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से हिन्दी साहित्य में एम.ए.
शास्त्रीय संगीत (गायन) में बचपन से प्रशिक्षित, साथ ही नृत्य, चित्रकला, नाट्य तथा अन्य कलाओं में गहरी रुचि एवं सक्रियता होने के बावजूद मूलतः कवि के रूप में पहचान।
स्कूल के दिनों से कविता लिखना शुरू किया, पाँच कविता-संग्रह 'राख का क़िला', 'एक नगरवधू की आत्मकथा' ,"घोड़े की आँखों में आँसू"'बेतरतीब' और हॉल की बत्तियां। एक उपन्यासिका "ख़ारिज लोग" प्रकाशित हुई है। बच्चों के लिए एक गल्प ' नानी की हवेली' प्रकाशित । हिंदवी, कविता कोश ,स्त्रीदर्पण, पश्यन्ती में कवि के रूप में दर्ज।
बांग्ला से नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती व शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताओं के और अंग्रेज़ी के ज़रिये ब्रेष्ट की कविताओं के हिन्दी में अनुवाद ।
राजस्थान पत्रिका और धर्मयुग में पत्रकारिता करने के बाद 1983 से भारतीय सूचना सेवा में। 2010 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन। राजस्थान साहित्य अकादमी की ओर से विशिष्ट साहित्यकार सम्मान प्राप्त। इंडिया फाउंडेशन फॉर आर्ट, बेंगलुरू की ओर से सम्मानित.