कानून और नैतिकता: अनन्त धड़कनों में स्पंदित न्याय
डॉ मधु कपूर की दार्शनिक लेखों की शृंखला अब नए आयाम तलाश रही है। इस बार का उनका लेख नैतिकता और कानून के अंतर संबंधों की पड़ताल करता दिख रहा है। हमने जब उनसे इस लेख के बारे में बताने को कहा तो उन्होंने यह बताया - "कानून और नैतिकता सतत प्रवाह में संवाद करते हैं—कभी टकराते हुए, तो कभी परस्पर प्रभावित होते हुए। जब अन्याय और विद्रूपता असहनीय हो उठती हैं, तब कठोर कानून लोहार की एक निर्णायक चोट की तरह वार करता है—एक ऐसा प्रहार, जो सौ धीमे आघातों से अधिक प्रभावशाली होता है। परंतु जब चोट गहरी हो जाती है और पीड़ा केवल दंड से नहीं मिटती, तब कानून की कठोरता को नैतिकता की करुणा से सींचकर एक संभावित पुल का निर्माण किया जाता है, जिससे समाज का आत्मीय पुनर्वासन संवेदना की ओर लौटने लगता है।"
कानून और नैतिकता: अनन्त धड़कनों में स्पंदित न्याय
डॉ मधु कपूर
“मुद्दत पहले वह दुकान का मालिक था, अब नए तंत्र के नीचे, सरकार उसकी मालिक थी, उन किताबों की भी ㄧजो उसके बाप-दादाओं ने पहली लड़ाई के जमाने से जमा की थीं । दुकान वही थी, लेकिन रातों-रात कानून की लकीर उसके और बाप-दादा की विरासत के बीच एक-खाई सी खोल गई थी। काउन्टर पर वह अब भी बैठता था—पहले की तरह । अब किताबों से उसका रिश्ता कुछ वैसा ही था, जैसे कोई बाप जीते-जी अपने बच्चों को अनाथालय में देखता है।” (निर्मल वर्मा की ‘आदमी और लड़की’ कहानी से उद्धृत).
इन पंक्तियोँ से स्पष्ट है कि नैतिकता और कानून एक दूसरे के नजदीक होने पर भी, कहीं न कहीं एक दरार के इस पार और उस पार रहते है। उदाहरण के लिए सिर्फ पेट भरने के लिए चोरी करने वाले बालक और आत्म-रक्षा के लिए हत्या करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध कानून एक बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ाकर देता है । न्यायाधीश शायद यह नहीं चाहता है कि चोरी या हत्याकारी को इस परिस्थिति में सजा मिलनी चाहिए, हालांकि कानून कहता हैं कि अगर चोरी या हत्या की है तो दंड मिलना चाहिए । वहीँ दूसरा न्यायाधीश सहानुभूति के साथ सोच सकता है, ‘क्या मैं भी ऐसा ही करता?’ और नैतिकता के आधार पर उन्हें सजा से मुक्त कर सकता है । दो विचारधाराओं के बीच तुलना बेहद दिलचस्प है।
एक ओर कानून मनुष्य की नैतिकता को जाग्रत कर देता है, दूसरी ओर नैतिकता कई बार कानून बदलने का कारण बन जाती है। उदाहरण के लिए दास प्रथा, सती प्रथा, महिलाओं का चुनाव प्रक्रिया में शामिल होना इत्यादि के विरुद्ध कानून नैतिकता के आधार पर ही बनाए गये। जीवन के किसी भी क्षेत्र में कानूनी आवश्यकताएँ और नैतिक विचार अक्सर एक-दूसरे से टकराते हैं, यद्यपि दोनों का सम्बन्ध न्याय और अन्याय का निर्णय करना ही होता है । कानून के बिना समाज अराजकता और अव्यवस्था का शिकार हो जाता है, तथा नैतिकता के बिना समाज असंवेदनशील हो जाता है।
यह सच है कि हम पृथ्वी के अन्य प्राणियों के साथ जीवन को साझा करते हैं, क्योंकि हमारी समस्याएं, हमारे सुख दुःख, हमारी आवश्यकताएँ हमें एक अदृश्य बंधन से बाँध देती है । समाज की मदद के बिना मनुष्य का अस्तित्व अर्थहीन हो उठता है । लेकिन ये बंधन कभी कभी इतने असहनीय हो जाते है कि हम न्याय की गुहार भी लगाने लगते है और अपने आत्मीय परिजनों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा भी कर देते है । कभी बहुएं ससुराल के विरुद्ध, कभी वृद्ध माँ-बाप बच्चों के प्रति, कभी बच्चें माँ-बाप के विरुद्ध शिकायतें लेकर अदालत में पहुँच जाते है। कभी दोस्त अपने दोस्त का ही गला काट देता है । अख़बार के पृष्ठ, दूरदर्शन की ख़बरें प्रायः ऐसी ही दास्तानें बयान करती है । यदि दुनिया में सभी अच्छे होते तो कानून की कोई आवश्यकता ही नहीं होती ।
कानून पत्थर की लकीर होता है । एक लैटिन कहावत के अनुसार (Fīat iūstitia ruat cælum --फिएट जस्टिटिया रूएट कैलम), “आसमान गिरने पर भी न्याय किया जाए”। जबकि नैतिकता अधिक लचीली होती है । नैतिकता का लचीलापन और कानून की कठोरता दोनों ही मनुष्य की अद्वितीय क्षमता का परिचायक है । लेकिन यही वह क्षमता भी है जो हमें अनैतिक व्यवहार करने पर मजबूर भी कर देती है । जैसा कि ग्रीक विचारक अरस्तू कहते है, ‘मनुष्य अपने सबसे अच्छे रूप में सभी जानवरों में श्रेष्ठ है, किन्तु कानून और न्याय से पृथक वह सबसे बुरा है’। उदाहरण के लिए सुकरात को एथेंस के कानून के तहत विषपान करने का हुकुम मिला, पर उन्होंने कानून का पालन करना आवश्यक समझा । यद्यपि उनके शिष्यों ने इसे अनैतिक मान कर, उन्हें शहर छोड़ने तथा पलायन करने का भी परामर्श दिया । लेकिन सुकरात ने कानून का उल्लंघन न करने को ही अपना कर्त्तव्य समझा ।
दूसरी ओर महान नाटककार सोफोकल्स अपनी कृति एंटीगोन में दिखलाते है कि नाटक का केन्द्रीय चरित्र एंटीगोन राजा के आदेशों की अवहेलना करके नैतिक विश्वास से प्रेरित होकर अपने भाई को गुप्त रूप से दफना देती है, जिसे शासन के प्रति विद्रोह के कारण दंड के रूप में दफनाए न-जाने की सजा दी गई थी। फलस्वरूप, कानून और नैतिकता के बीच भयंकर टकराव उत्पन्न हुआ । नाटक एक त्रासदी में बदल गया। एंटीगोन गिरफ्तार हुई और उसे मौत की सजा का सामना करना पड़ा ।
कानून और नीति का चलन अक्सर इस तरह उलझे रहते हैं कि उनकी सही अभिव्यक्ति मुश्किल में डाल देती है। हालाँकि हर कदम पर आगे बढ़ने के लिए कानून की आवश्यकता होती है । पर “कानून का प्रशासन नहीं है, प्रशासन का कानून है” यह उक्ति इस बात को प्रमाणित कर देती है कि कानून खामियों से भरा होता हैं । उपर्युक्त पंक्तियाँ न केवल प्रशासन पर गंभीर आरोप लगाती है, बल्कि कानून की धज्जियाँ भी उड़ाती है। प्रश्न उठ सकता है कि कानून विवेक के द्वारा नियंत्रित होता है अथवा क्षमता के द्वारा । “जिसकी लाठी उसकी भैंस” यह सिद्धांत सीधे सीधे क्षमता के हाथ में कानून की बागडोर थमा देता है।
अक्सर समाज कानून को पत्थर की लकीर न मान कर, बदलते युग के साथ गतिशील होने की मांग करता है। फलस्वरूप हर व्यक्ति स्वयं को कानून का ठेकेदार समझ बैठता है । अपनी सत्ता की क्षमता के अनुसार कानून का सृजन करने लगता है। तर्क यह दिया जाता है कि जिस तरह लाल रंग कहने से हर व्यक्ति को कुछ अलग अनुभव होता है ㄧ ईंट का लाल रंग या टमाटर का लाल या खून का लाल रंग, उसी तरह मानवीय दृष्टिकोण भी भिन्न भिन्न होते है, जिसे लचीला बनाने की आवश्यकता है । कठोरता के पिंजर में बद्ध कानून भी लचीला बन कर अक्सर सृजनशील कला का रूप ले लेता है । जब न्यायाधीश ऐसे मामलों पर फैसला सुनाते हैं तो स्पष्ट रूप से वह कानूनी नियम के बाहर एक नया कदम कह सकते है. कई बार ऐसे प्रस॔ग सिर्फ पैंतरेबाज़ी में भी बदल जाते है।
इसके अलावा अक्सर सुना जाता हैं कि ‘अदालत ऐसा निर्णय कैसे ले सकती है जो आम नागरिक को अनैतिक लगता है’? उदाहरण के लिए जेसिका लाल नई दिल्ली में एक मॉडल थी जो एक भीड़ भरी सोशलाइट पार्टी में सेलिब्रिटी बार-बाला के रूप में काम कर रही थी, जहाँ उसे दर्जनों गवाहों के सामने गोली मार दी गई । चूँकि गोली मारने वाला एक प्रभावशाली अमीर व्यक्ति का बेटा था इसलिए उसे अपराध से बरी कर दिया गया था । किन्तु मीडिया और जनता के भारी नैतिक दबाव के कारण, ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलट कर उसे हत्या का दोषी ठहराया गया।
इस तरह कानूनी निर्णय और नैतिक निर्णय दोनों एक दूसरे के विपरीत होने पर भी एक बिन्दु पर आकर हाथ मिला लेते हैं । जब कोई व्यक्ति नियम तोड़ता है तो कानून जुर्माना, जेल आदि के माध्यम से सज़ा देता है । हालाँकि, जब कोई नैतिक नियम तोड़ता है, तो उसकी सजा सार्वजनिक निंदा या व्यक्तिगत संबंधों की हानि से होता है। कानून लिखित दस्तावेज में होते हैं जबकि नैतिकता मानवीय अंतरात्मा में जन्म लेती है, जो पापी भी हो सकती है और साधु भी।
कुछ लोग समझते हैं कि नैतिक मान्यताओं के कारण मनुष्य को मारना अनुचित है क्योंकि यह जीवन की निरंतरता का उल्लंघन करता है, जबकि ऐसा करने के लिए हमलावर को मारना नैतिक रूप से उचित माना जाता है। मृत्युदंड नैतिक रूप से स्वीकार्य है कि नहीं, इच्छा मृत्यु कितनी उचित है? हालाँकि, संथारा जैन लोगों में आज भी प्रचलित है। एटम बम बनाने की कार्यशाला के प्रमुख ओपनहाईमर आज भी विवाद से परे नहीं है। एटम बम विस्फोट की घटना आज भी नैतिकता पर सवाल उठाती है। अंत में उन्हें कर्त्तव्य की गुहार भगवदगीता के श्लोकों से करनी पड़ी । कहा जा सकता है कानून और नैतिकता एक दूसरे को मजबूत करते हैं तो मजबूर भी कर देते हैं।
बेशक, क़ानूनी निर्णय लेने की प्रक्रिया में और सही समाधान खोजने के लिए कभी-कभी अंतर्दृष्टि संपन्न न्यायाधीश की आवश्यकता होती है, जो नैतिकता की भूमि का मूल्यांकन कर सकें । अरस्तू कहते हैं - "कोई भी क्रोधित हो सकता है... लेकिन सही व्यक्ति पर, सही हद तक, सही समय पर, सही उद्देश्य के लिए और सही तरीके से क्रोधित होना", कानून की किसी किताब में नहीं लिखा है । कानून न तो सत्य होता है और न ही निष्पक्ष होता है, वह तो अधिकांशतः मानव जीवन की परिस्थितियों से जुड़ा होता है।
रोम के लोगों में चोरी करने की प्रवृत्ति कम देखी जाती थी क्योंकि उन्हें नरक की आग से डर लगता था। लेकिन क्या मनुष्य को अपने निजी व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए वास्तव में ऐसे प्रतिबंधों की आवश्यकता होनी चाहिए? प्रश्न पुनः “है” और “चाहिये” के आवर्त में खड़ा हो जाता है । भारतीय अवधारणा का उद्गम ऋत ऐसी गतिशील व्यापक व्यवस्था पर जोर देता है जिसका उद्देश्य जीवन में धर्म, कानून, नैतिकता के नियम को बनाए रखने में है, जिसकी कड़ियाँ काफी दूर दूर तक फैली है, इसलिए किसी न किसी बिंदु पर आकर घोषणा करनी पड़ती हैं कि ‘बात यहीं रोक दी जाए’, अन्यथा न्याय और अधिकार की बातों का सिलसिला आरम्भ हो जाएगा।
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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance प्रकाशित हुआ है।
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