जवाहरलाल हाज़िर हो - पुस्तक समीक्षा
हो सकता है कि आप में से कुछ पाठक उन्हीं लोगों में से हो जिनको यह शिकायत है कि 2014 में भाजपा सरकार या यूँ कहें कि मोदी सरकार आने से पहले देश में नेहरू के नाम की माला बहुत जपी जाती थी। लेकिन चूंकि आप इस वेबपत्रिका तक पहुंचे हैं तो हम यह नहीं मान सकते कि आप पिछले दशक में बहुप्रचलित व्हाट्सप्प मेसेजों को सही मानते हैं जिनके अनुसार नेहरू ने केवल गलतियाँ ही गलतियाँ की हैं और उनका देश के लिए कोई योगदान नहीं है! देश के स्वतन्त्रता संग्राम का बहिष्कार करने वाले लोगों का यह संगठन जो नेहरू को बदनाम करने की कुचेष्टा कर रहा है, क्या इस बात के मर्म को समझता है कि स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान नेहरू ने नौ वर्ष सलाखों के पीछे बिताए थे और उन्होंने इन्हीं वर्षों में अपने माता-पिता और अपनी पत्नी को खोया था ? ऐसे लोगों को आज़ादी के बाद वाले काल में नेहरू के योगदान को गिनाने का कोई लाभ नहीं क्योंकि यदि हमारी नज़र में नेहरू का सबसे महत्वपूर्ण योगदान भारत जैसे नवोदित राष्ट्र में लोकतन्त्र की जड़ें मजबूत करना था तो ऐसे लोगों के लिए लोकतन्त्र का ही कोई महत्व नहीं है। इन्हीं संदर्भों को लेते हुए नेशनल बुक ट्रस्ट से दशकों संबद्ध रहे पंकज चतुर्वेदी ने सेवा-निवृत्त होने के बाद यह ज़रूरी किताब लिखी है जिसकी समीक्षा हमारे लिए लगातार लिख रहे राजेंद्र भट्ट ने की है। कृपया पढ़ें।
जवाहरलाल हाज़िर हो - पुस्तक समीक्षा
राजेंद्र भट्ट
मेहनती, खुद्दार और निर्भय लेखक-पत्रकार पंकज चतुर्वेदी की किताब ‘जवाहरलाल हाज़िर हो’ ( पैंगुइन स्वदेश, www.penguin.co.in) को पढ़ते हुए अनायास ही शहीदे-आज़म भगत सिंह का ‘नये नेताओं के अलग-अलग विचार’ शीर्षक से जुलाई, 1928 के ‘किरती’ पत्रिका में छपा लेख याद आ गया। इस लेख में उन्होंने दो तत्कालीन युवा नेताओं - नेहरू और सुभाष को आदर से याद करते हुए देश के लिए नेहरू के ‘युगांतरकारी’ विचारों की राह को अपनाने पर ज़ोर दिया था:
“इस समय जो नेता आगे आए हैं वे हैं- बंगाल के पूजनीय श्री सुभाषचन्द्र बोस और माननीय पण्डित श्री जवाहरलाल नेहरू।...”
फिर भगत सिंह नेहरू जी के कथनों को उद्धृत करते हैं: …..“प्रत्येक नौजवान को विद्रोह करना चाहिए। राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में भी। …..कोई बात जो अपनी समझदारी की परख में सही साबित न हो, उसे चाहे वेद और कुरान में कितना ही अच्छा क्यों न कहा गया हो, नहीं माननी चाहिए।....”
भगत सिंह की आज़ादी की समझ भी ‘समाजवादी सिद्धान्तों के अनुसार पूर्ण स्वराज’ की जवाहरलाल की समझ जैसी ही है। इस सुविचारित, विवेकपूर्ण लेख के अंत में भगत सिंह का निष्कर्ष है: “यह एक युगान्तरकारी के विचार हैं।...... इस समय पंजाब को मानसिक भोजन की सख्त जरूरत है और यह पण्डित जवाहरलाल नेहरू से ही मिल सकता है।...”
लेकिन भगत सिंह भी तो, नेहरू की ही तरह, तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पन्न हैं, अंधभक्त नहीं हैं। इसलिए, यह स्पष्ट पंक्ति जोड़ देते हैं - “इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके अन्धे पैरोकार बन जाना चाहिए।....“
मुझे लगता है कि नेहरू जी ने यह लेख ज़रूर पढ़ा होगा – अपने समय की नब्ज पर विराट जमीनी अनुभव के साथ-साथ वह, भगत सिंह की ही तरह, महानतम सुपठित नेताओं में एक थे। निश्चय ही, उन्हें ऊपर उद्धृत अंतिम पंक्ति सबसे अच्छी लगी होगी! वह उन गिने-चुने नेताओं में थे जो पूरी विवेकशीलता से स्वयं अपनी आलोचना कर सकते थे।
इस पुस्तक-चर्चा के दायरे को देखते हुए, इस प्रसंग में सिर्फ इतना जोड़ना वाजिब होगा कि सुभाष और नेहरू भी, इन क्रांतिकारियों के संघर्ष को निरंतर सहयोग-समर्थन देते रहे। नेहरू जी जेल में इन क्रांतिकारियों से मिले, सुभाष अदालती कार्रवाई के दौरान मौजूद रहे। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में, और हर मंच पर (और कांग्रेस पार्टी ने भी) भगत सिंह और उनके साथियों को समर्थन-सम्मान दिया।
बहरहाल, भगत सिंह के प्रसंग के यहाँ याद आने की बड़ी वजह यह है कि दोनों ही नेताओं के विचार उदार, प्रगतिशील और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सम्पन्न थे; उनमें तंगदिली और पोंगापंथ नहीं था; और दोनों ने ही ब्रिटिश अदालतों, प्रतिष्ठानों और जेलों का इस्तेमाल बड़े ही प्रभावी तरीकों से अपने ‘युगांतरकारी’ विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए किया।

क्रांतिकारी कार्रवाइयों के दौरान पर्चों-बयानों तथा अदालती सुनवाइयों में भगत सिंह के कालजयी संदेशों की तेजस्विता और गहनता से हम सुपरिचित हैं। यहाँ हम नेहरू जी की नौ जेल यात्राओं की अदालती कार्रवाइयों के दौरान उनके बयानों-कथनों का जायजा लेते हैं।
नेहरू जी पहली बार, 6 दिसंबर 1921 को जेल भेजे गए। उन्हें जलियाँवाला बाग हत्याकांड और दमनकारी रोलेट एक्ट लागू किए जाने के दौर में ब्रिटिश राजकुमार प्रिंस ऑफ वेल्स के भारत आगमन के विरोध-स्वरूप पर्चे बांटने के लिए गिरफ्तार किया गया था। इस मामले में पिता-पुत्र -मोतीलाल और जवाहर – दोनों ही जेल गए थे। नेहरू जी ने न्यायाधीश के प्रश्नों के उत्तर देने और कोई भी सफाई देने से इंकार कर दिया। यह एक तरीके से ब्रिटिश सत्ता की वैधता को ही अस्वीकार करना था। लेकिन उन्होंने संक्षेप में और सही जगह चोट की:
“मैं भारत में ब्रिटिश सरकार को स्वीकार नहीं करता हूँ और न इस अदालत को मानता हूँ। मेरी निगाह में इस अदालत की कार्यवाही ही झूठी है, क्योंकि यह अदालत वही करेगी जो पहले से ही तय कर चुकी है।“
जेल जाते समय उन्होंने संदेश दिया:
“बुराई के साथ कोई समझौता या बातचीत नहीं हो सकती। यह संघर्ष लोगों की पूर्ण जीत के साथ ही समाप्त होना चाहिए....”
नेहरू जी की दूसरी जेल यात्रा 11 मई 1922 से शुरू हुई। उनपर विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार के लिए कथित रूप से दूकानदारों से ज़ोर-जबर्दस्ती करने का आरोप था। नेहरू जी ने हर सवाल का जवाब देने से इंकार करते हुए, एक लिखित बयान पढ़ कर सुनाया। उसकी प्रमुख बातें थीं:
“मेरा यह बयान मुझ पर लगे आरोपों की सफाई देते हुए खुद को बेकसूर साबित करने के लिए कतई नहीं है। .... मेरी नज़र में यह ऐसी अदालत नहीं है जहां इंसाफ मिलता हो।... (हर देशवासी ने) यह संकल्प गंभीरता से लिया है कि -----वह तब तक संघर्ष करता रहेगा जब तक पराधीनता के दर्द और बेइज्जती से मुक्ति नहीं मिल जाती। मुल्क की मौजूदा सरकार के खिलाफ विद्रोह करना आज भारत के हर नागरिक का फर्ज़ हो गया है।... हमारी असली ताकत तो आम लोगों का साथ और उनकी शुभकामनाएँ हैं। ... हमारे महान नेताओं ने हमें प्यार और खुद को कुर्बान कर देने की ताकत दी है। .....लगाव और आस्था दिल से पैदा होती है। उसे भाले की नोक पर नहीं पाया जा सकता।.....हम जितना संघर्ष करेंगे, जितनी कड़ी परीक्षा देंगे, हमारे आज़ाद भारत का भविष्य उतना ही शानदार होगा। .....”
1930 में, जब उन्हें ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की भावना फैलाने के आरोप में पाँचवीं बार जेल की सजा हुई तो सबसे पहले तो उन्होंने, उनके भाषण को नोट करने वाले की समझ का मज़ाक उड़ाते हुए तल्ख टिप्पणियाँ कीं। किसी भी प्रकार के हल्केपन और सतही नज़रिये को बर्दाश्त न कर पाने का नेहरू जी का स्वभाव यहाँ स्पष्ट दिखता है। इसके बाद, उनका ओजस्वी बयान उनके प्रखर समाजवादी, जन-मुखी देशभक्त मानस को व्यक्त करता है। अक्तूबर 1930 के इस बयान को दिसंबर 1930 के कांग्रेस के ‘पूर्ण स्वराज’ के प्रस्ताव के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए, जिसके प्रमुख प्रेरक-प्रणेता युवा नेहरू ही थे। इस बयान में, उसी दौर में जेल में निरंतर प्रखर-परिपक्व हो रहे और अदालतों के बयानों के जरिए देश में अलख जगाते भगत सिंह और साथियों के विचारों की आभा भी है जिनमें आज़ादी और देशभक्ति को भावुक नारे मात्र नहीं, बल्कि ‘हम भारत के लोगों’ की हर तरीके से शोषण से मुक्ति का भाव भी निहित है। इस शानदार वक्तव्य के कुछ अंश ही यहाँ दिए जा रहे हैं:
“.... हर भारतीय का धर्म है कि वह इस सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए विद्रोह करे। यह सरकार जिस बुराई का प्रतीक बन गई है, उसके विरुद्ध नफरत या प्रतिरोध के भाव का प्रसार करना हमारा मुख्य कर्म है। ...”.
भगत सिंह की ही तरह, एक विवेकशील क्रांतिधर्मी नेहरू भी, अन्यायी सत्ता के खिलाफ आक्रोश को, व्यक्तियों के खिलाफ नफरत कर दिए जाने के अंधेपन के खतरों को समझते थे और उससे आगाह करते थे। आज के मूढ़, विषाक्त और उन्मादग्रस्त बना दिए माहौल में, संघर्ष की साफ समझ वाली ये पंक्तियाँ कितनी प्रासंगिक हैं:
“अंग्रेजों, खासकर अंग्रेज़ कर्मचारियों से हमारा कोई व्यक्तिगत झगड़ा तो है नहीं। वे खुद हमारी तरह साम्राज्यवाद के शिकार हैं। हम तो इसी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ रहे हैं।“
और अंत में ये भाव-भरी पंक्तियाँ भी भगत सिंह के विवेक और भावनाओं से पूरित संदेशों की याद दिलाती हैं:
“मैं भारतवासियों के इस विश्वास और प्रेम के लिए पर्याप्त रूप से अपनी कृतज्ञता भी नहीं व्यक्त कर सकता। इस शानदार संघर्ष में सेवा करने तथा इसके लिए मेरा थोड़ा सा भी योगदान, मेरे जीवन की असीम खुशी है। मैं प्रार्थना करता हूँ कि मेरे देश का प्रत्येक व्यक्ति अनवरत रूप से इस संघर्ष को तब तक जारी रखेगा जब तक कि --- हमारे सपनों का भारत साकार नहीं हो जाता। स्वतंत्र भारत अमर रहे!”
यह सुपठित विनम्रता आज के मदांध,अपठित बड़बोलेपन को आईना दिखाती है।
इन स्थायी महत्व के संदेशों के बीच-बीच में, विद्वान लेखक ने नेहरू जी के कालजयी लेखन – उनकी आत्मकथा और ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के अंश पिरोये हैं। नेहरू जी का सारा लेखन जेलों में ही हुआ है। इनमें घर-परिवार का गहन अनुरागी – कमला का प्रेमी पति, इन्दिरा का प्रेरक पिता और मोतीलाल का गौरव बढ़ाने वाला जवाहर है; स्वप्नदर्शी कवि का हृदय और वैज्ञानिक का प्रखर मस्तिष्क रखने वाले, हमारे समय के अग्रणी बौद्धिक नेहरू भी हैं।
यह पुस्तक अपनी हीन-भावना और साज़िशों के तहत नेहरू परिवार के ‘ऐश-आराम वाली’ छवि बनाने वालों को भी अपने अंदर झाँकने का मौका देती है। मोती लाल नेहरू और उनके पूरे परिवार ने अपना समूचा ऐश्वर्य देश को समर्पित कर दिया। 1920 के दशक के मध्य से यह परिवार कुछ कमा नहीं रहा था। बस, देश को, उसके स्वतन्त्रता-संघर्ष को दे ही रहा था। दिसंबर 1921 से 1946 में अन्तरिम सरकार बनने तक, जवाहर लाल नौ बार – कुल 3259 दिन जेल में रहे – यानी हर तीसरे दिन से भी ज्यादा। इस परिवार का बच्चा-बच्चा तक, ऐश-आराम छोड़ कर, देश के लिए कष्ट झेल रहा था, जेल जा रहा था। इसी पुस्तक में, पिता-पुत्र के साथ जेल में होने के दौरान जवाहर द्वारा अपने पिता के भी कपड़े धोने का मार्मिक प्रसंग है। इन्हीं संघर्षों और व्यस्तताओं के बीच जवाहर ने माता, पिता और पत्नी का बिछोह झेला। उनकी इकलौती पुत्री एक जगह टिक कर पढ़ाई-लिखाई नहीं कर सकी। नेहरू जी की बहन विजय लक्ष्मी पंडित की विदुषी पुत्री नयनतारा सहगल की एक किताब का शीर्षक है –‘प्रिजन एंड चौकलेट केक।‘ यानी बच्चों को चौकलेट से बहला-फुसला कर घर के बड़े लोग जेल जाते थे। सामान्य वात्सल्य से वंचित इस परिवार के अबोध बच्चे जेल का संबंध मिठाई मिलने से जोड़ते थे। यह राष्ट्र को न्यौछावर परिवार था। इसे क्षुद्र दृष्टि से नहीं आँका जा सकता।
ठोस तथ्यों पर आधारित यह किताब नाभा रियासत में जेल-यात्रा के दौरान रिहाई के लिए नेहरू जी की कथित माफी के सफ़ेद झूठ से भी पर्दा उठती है। वास्तव में, ‘व्हाट्सएप’, फर्जी ट्रोलिंग से इतिहास-कथन और बुद्धिहीनता के इस दौर में पुख्ता तथ्यों, दस्तावेजों पर आधारित और अकादमिक अनुशासन की गरिमा वाली ऐसी किताबों की आज सख्त ज़रूरत है ताकि भविष्य में जब समझदारी और मुहब्बत के दिन आएँ, तो हम भावी पीढ़ियों के लिए पुख्ता ‘डॉक्यूमेंटेशन’ सुरक्षित बनाए रख सकें।
इस पुस्तक की भूमिका कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे ने लिखी है जिसमें उनका भविष्य-दर्शी चिंतक का रूप उजागर हुआ है। हमारे संविधान में निहित उदात्त मानवीय मूल्यों को साकार करने में नेहरू के योगदान की उन्होंने चर्चा की है। उन्होंने भारत को विश्व भर में अपनी साख छोडने वाला प्रभावी लोकतन्त्र बनाने में नेहरू के महत्व को रेखांकित किया है। साथ ही, लोकसभा में छोटे से विपक्ष को भी मान देने के उनके बड़प्पन का भी उल्लेख किया है। नेहरू जी के 17 वर्षों के प्रधानमंत्रित्व-काल में आमूल सामाजिक सुधार हुए, सार्वजनिक उपक्रमों के जरिए आत्मनिर्भरता की दुनिया रखी गई। खडगे जी इन बातों की भी याद दिलाते हैं।
‘भारत के लोगों’ के संविधान में जिस ‘स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे और न्याय’ की आकांक्षा है, उससे सम्पन्न देश-समाज बना पाने की राष्ट्रीय यात्रा में नेहरू ध्रुव तारे जैसे दिशा-बोधक हैं। इस कठिन समय में नेहरू-साहित्य में यह पुख्ता योगदान किया है।
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लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से रागदिल्ली.कॉम में लिखते रहे हैं।