मोहन राणा की तीन शानदार कविताएं

मोहन राणा | साहित्य | Jan 27, 2019 | 90

सोते जागते

यहीं कहीं जो रह जाता फिर वहीं
भूल कर याद रह जाता

मैंने रोपा था उखड़े पेड़ की छाया को
आकाश के संताप को अपने सीने पर
सांस भर एक दम

उन आलिंगनों में लिपटी छायाएँ
हिलती दोपहर छू कर वे सुनती धड़कन
मेरी हथेली पर तुम्हारा स्पर्श

पारगमन

मैं अतीत था फिर भी मैं सबको भूल जाऊँगा
मैं सब सुन लेता हूँ अब, मैं अनहद हो गया हूँ
दूर तक देख लेता अब, मैं क्षितिज हो गया हूँ
सबसे दूर चला गया मैं ; अगोचर इतना पास कि
एक हो गया हूँ अब तुम्हारी सांस में,
मिट्टी का पुतला मैं मिट्टी हो गया हूँ।

कि कहने के लिए

समय की पहचान अगर नाम पता ना हो
सुबह शाम जगते सोते  अपने बुत को आइने में देखते
कि समय का पुल्लिंग काल होता है कहने के लिए
अनुसार लिखूँ  अवसर उसे कि  गोचर में उपयुक्त काल
कह कर कुछ नज़ूमी दौड़े आते हैं शब्द की पहचान करने कि
गिर कर घुटने पर लग गई गुम चोट भाषा में,
देह की जिल्द में स्मृति उलटते पुलटते मौज़ूद नहीं है वह पन्ना हमेशा

दोपहर की चमक में फीके पड़ गए सारे विचार
वह तारा नहीं सूरज उगता है दैनिक फिर जग उठने और याद दिलाने
जिसकी रोशनी में दिन को अंत में  तीसरे पहर लिखने एक पूर्व विराम
उजले संकट को विचारने कई बार कि आशा  भी एक भय है,
अपनी छाया पर झुका अनुपस्थित यह चुपचाप कोने में मेरी स्थिति एक ख़ाली कुर्सी सी
मैं कर चुका समर्पण पराजय  ख़ुद से विरोध कोरे काग़ज़ पर लिख कर,
मन के कोलहाल घुटती अभ्युदय रिसती घनीभूत पीड़ाएँ नये देश काल की

आशा करते मैं और तुम बनाते अपने अपने जीवन के नक़्शे में
एक एक  बिन्दु जो एक रेखा से बने कि कह सकें जमीन के एक टुकड़े  को
वह मेरा घर वहाँ  मेरा देस आबोहवा बोतलबंद
जहाँ नागरिक सहेज कर रखते टूटा फूटा अपना सफरी संदूक,
अपने मील के पत्थरों को तोड़ते बदलते सच की निर्वासित सीमा को  
बिना संकोच स्मृतियाँ किताबों में  बुकमार्क भूलने की चीज़ पुरखों की सीख
आले पर रखी है  कबके,  वे कहते
जाओ अपना समय मत भूलो, आना फिर घर
भले ही थे प्रेम और भय एक साथ
थोड़ी दूर सम्बंध रहे और आत्मीयता ताज़ा वापस
औरों का जिया कहते कान भर यह एक सलाह ; मैं ठिठकता बदलते रास्तों पर,
इतिहास का मंथर ठहराव यह सबका उथला सच
कहीं  हो जाय साकार
यह नई सूक्तियों की कलम शक़ की नई जड़ों में लगाने का मौसम,
चुनती एक चेहरा उनकी आत्ममुग्ध तिरछी मुस्कान
मैं ही रख लूँ किसी एक पराए को सुदूर अपनों से
समीप बैठक में,
परंपरा की गति ही ऐसे संस्कारी  जुग के नाम पते 
विधि कितनी हैं बंद हथेली में  दुख की छूने भर बचे रहे का अनुमान
थोड़ा एक सांस भर लेने इसी धरती पर आयास

मोहन राणा

(दिल्ली में जन्मे मोहन राणा पिछले दो दशकों से भी ज़्यादा से ब्रिटेन के बाथ शहर में रह रहे हैं। हाल ही में प्रकाशित ‘शेष अनेक’ सहित, उनके आठ कविता संग्रह निकल चुके हैं। इंग्लैंड की आर्ट्स काउंसिल के सहयोग से उनकी ढेर सारी चुनी हुई कविताओं का अँग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है। उनकी अनेक कवितायें यूरोप की कई भाषाओं में पढ़ी और अनुवाद की गईं हैं। मोहन राणा ने उपरोक्त तीन कवितायें विशेष तौर पर raagdelhi.com के लिए भेजी हैं।)

 



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