भूरी हमारी जिंदगी से यूँ गई
नई पीढ़ी की तो क्या कहें, बहुत से नव-वृद्धों (जिनकी आयु 60-65 के आसपास होती है) को भी नहीं मालूम होता कि गाँव की ज़िंदगी कैसी होती है या कैसी होती थी। सत्येन्द्र प्रकाश की कहानियाँ हम में से बहुत से लोगों को एक तरह से शिक्षित कर रही हैं और हमें रु-बू-रु करवा रही हैं उस ग्रामीण परिवेश से जिसके बारे में हमने कुछ विशेष जाना-समझा नहीं है। तिस पर वह हमें इन कहानियों के ज़रिए बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में ले जाते हैं जहां प्रगति की रफ़्तार बहुत धीमी रही है। उनकी पिछली कहानी लालटेन ने बहुत संवेदनशील ढंग से बिहार के गाँवों में रोशनी आने की गाथा कही थी। आज प्रस्तुत है उनकी नई कहानी जिसके ज़रिए आप बिहार में साठ के दशक में पड़े सूखे को तो जान ही लेंगे, साथ ही ग्रामीण परिवारों का अपने पशुओं के साथ क्या रिश्ता होता है, यह भी जान जाएंगे।
भूरी हमारी जिंदगी से यूँ गई
सत्येंद्र प्रकाश
वर्षों बाद भी उसकी याद अक्सर आ जाती है। कौन थी वह, क्या थी, क्यों आई थी हमारी जिंदगी में। कभी सोचता हूँ तो सब एक दैवीय संयोग लगता है। हमारे जीवन में अल्पकालिक उपस्थिति ही रही उसकी। पर इतना गहरा लगाव लंबे अरसे साथ रहने पर भी किसी से नहीं हो पाता। अलग होने के पचास पचपन साल बाद भी वह मुझे याद है तो अवश्य ही उसका और मेरा कुछ खास रिश्ता रहा होगा।
मुझे ध्यान नहीं है कि हमारे परिवार में उसे किसी और ने कभी याद किया भी है! भूले भटके भी उसकी चर्चा नहीं होती। उनके बीच भी नहीं जिनके साथ उसने अपना समय गुज़ारा। तो उसे याद कर मेरा मन क्यों तड़प उठता है, इतने वर्षों बाद भी, खास कर वह क्षण याद कर जब उसे हम सब से दूर करने का निर्णय हुआ था। उससे ऐसी कौन सी गलती हो गई थी! गलती थी भी या बस यूँ ही, किसी अपुष्ट सामाजिक मान्यता के कारण!
जो भी हो उसका जाना तय हो गया था। किसी और चेहरे पर उससे बिछड़ने की वेदना दिख नहीं रही थी। अगर और लोग भी संतप्त थे तो शायद उम्र और मान्यताओं का दबाव उनके संताप को परिलक्षित होने नहीं दे रहा था। पर मुझे लग रहा था कि सबके चेहरे पर जैसे अकृतज्ञता का भाव ही था। मेरे लिए वह क्षण तभी तो और पीड़ादायी बन गया। कच्ची उम्र के कोमल हृदय पर वो घटना गहरी छाप छोड़ गई थी।
जिस तरह उसकी विदाई नाटकीय थी, उसका हमारे घर आना भी अचानक ही हुआ था। वह पहली और आखिरी गाय थी जिसे हमने पाला था। बाबूजी को गाय रखने की इच्छा जताते कभी सुना नहीं था। बिहार के सहरसा जिला के सुखासन मनहरा गाँव में शिक्षण प्रशिक्षण महाविद्यालय के उनके कार्यकाल में शुद्ध दूध आसानी से उपलब्ध था। उसके पहले भी कतिपय ऐसे ही कुछ कारण रहे होंगे जिससे गाय पालने का ख्याल कभी उनके मन में नहीं आया। उन दिनों संभवतः मिलावट रहित दूध सहजता से मिल जाता था। इसलिए शायद गाय पालने की अतिरिक्त जिम्मेदारी उठाने की उन्हें कोई जरूरत कभी महसूस नहीं हुई होगी।
सुखासन मनहरा गाँव को स्वनाम धन्य कहा जा सकता है। वैसे तो बिहार का सहरसा जिला सामाजिक और आर्थिक रूप से अति पिछड़ा माना जाता रहा है। वहाँ की आबोहवा भी कोई बहुत अच्छी नहीं मानी जाती है। तो इसी जिले का यह गाँव सुखासन मनहरा स्वनाम धन्य कैसे हो सकता है। पर वाकई कई दृष्टि से उन दिनों सुखासन मन को हरने वाला सुख का आसन था । आमलोगों में शिक्षा के प्रति काफी आदर था। शिक्षाकर्मी उनके विशेष सम्मान के पात्र होते थे। सौम्य व्यक्तित्व और सहज स्वभाव के धनी हमारे बाबूजी का वहाँ के निवासियों के हृदय में एक अलग ही स्थान था। बाबूजी के घर आने वाले दूध में मिलावट की कोई सोच भी कैसे सकता था। वैसे भी उन दिनों गरीबी और विपन्नता के बावजूद व्यावसायिक ईमानदारी सामाजिक संबंधों की खासियत हुआ करती थी।
अगर मैं कहूँ कि उस समय हमारे घर दूध की नदी बहती थी तो कुछ गलत नहीं होगा। दूध की नदी सिर्फ घर में अपनी प्रचुरता के कारण नहीं बहती थी। बचपन में दूध से मेरा शरारती रिश्ता था। पता नहीं क्यों, मैं दूध पीना बिल्कुल नहीं चाहता था। दूध से बना पेड़ा जितना ही भाता था, दूध अपने मूल रूप में उतना ही नापसंद था। मैं दूध पीऊँ इसके लिए मेरा मनुहार माई(माँ) करते ही रहती थीं। मनुहार कभी डाँट में भी बदल जाती। डाँट पड़नी ही है तो दूध पीने के लिए क्यों पड़े। कुछ ऐसा क्यों न किया जाए कि दूध पीने से जान बच जाए। फिर एक तरकीब सूझी - दूध को समूल नष्ट करने की! यह तरकीब थी चूल्हे पर गरम होने के लिए रखे दूध के पतीले को डंडे की मदद से पलट देना। पतीले के पलटते ही दूध की नदी बहने लगती। यही तो मैं कह रहा था कि हमारे घर दूध की नदी वाकई बहती थी। अपने करतूत की सूचना मैं स्वयं माई को देता, एक शरारती अंदाज में, कुछ यूँ, चल के देखो न मैंने क्या किया है। जैसे मैंने कोई बड़ा तीर मारा हो और माई से शाबाशी लेना चाहता हूँ।
मेरी शरारत देख माई गुस्सा होने का नाटक करती, पर फिर जल्द ही नरम पड़ जातीं। दूध नष्ट होने पर भी वे परेशान नहीं होती। दूध की अगली खेप शीघ्र ही पहुँच जाती। दूध की आपूर्ति निर्बाध चलती रहती और अवसर मिलने पर दूध की नदी बहाने वाला मेरा खेल भी। मेरी उम्र तीन-चार साल की ही रही होगी। पर यह समझ थी की चूल्हे पर रखे पतीले को हाथ से नहीं पलटना है। गरम पतीले से हाथ जलने का भय था। पतीले के पास खड़े हो कर उसे गिराने पर गरम दूध भी देह पर गिर सकता था। डंडे का सहारा सुरक्षित था इतनी सूझ-बूझ थी। मैं पतीला पलटने के अवसर की ताक में रहने लगा और माई उसे बचाने की जुगत में।
एक जिरह अक्सर होती माई और मेरे बीच में। दूध से बना पेड़ा मुझे पसंद है। दूध की जगह मुझे वही क्यों नहीं देती। माई का तर्क होता कि दूध वाली ताकत और गुण पेड़े में नहीं है। ऊपर से, माई यह भी समझाती कि खोए की गरिष्ठ तासीर मेरे कमजोर पेट को और नुकसान पहुँचाएगी। पर मैं समझने को राज़ी होता तब ना! ऐसी नोंक-झोंक माई और मेरी रोजमर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन गई थीं।
सुखासन गाँव की चर्चा में कहानी मुद्दे से भटक गई। गाय पालने की इच्छा बाबूजी के मन में कैसे उठी और एक गाय हम सबसे के जीवन से कैसे जुड़ी, कहानी उसकी है। आम तौर पर गाँवों में कुत्तों के अलावा किसी अन्य घरेलू पशु को नाम देने की चलन नहीं रहा है। उनकी पहचान उनके रंग से होता रही है। जिस गाय की कहानी मैं कहने जा रहा हूँ, वो गहरे भूरे रंग की थी। उसी आधार पर मैं उसे भूरी नाम दे रहा हूँ। १९६७ में सुखासन से स्थानतारित हो कर बाबूजी बिहार के ही गोपालगंज जिला में स्थित थावे शिक्षण प्रशिक्षण महाविद्यालय आ गए। आबोहवा की प्रतिकूलता के बावजूद सुखासन का वातावरण जितना ही जीवंत था, थावे का उतना ही नीरस और बेजान। देश-व्यापी दुर्भिक्ष के आमद से महाविद्यालय परिसर में अजीब सी घुटन थी, एक अतिरिक्त चुनौती सामने थी।
फसलों की अप्रत्याशित क्षति से देश के समक्ष अकाल की विभीषिका थी। गाँव में हमारी फसलें भी बर्बाद हुई थीं। लंबे चौड़े संयुक्त परिवार के लिए आवश्यकता-भर अनाज भी बमुश्किल हो पा रहा था। गाँव से राशन पानी की आपूर्ति का कोई सवाल ही नहीं था। बाबूजी के तनख्वाह का एक बड़ा अंश संयुक्त परिवार की सेवा में समर्पित था। बाजार में भी चावल गेंहू बड़ी मुश्किल से मिल पाता। मड़ुआ (रागी), ज्वार-बाजरा ही गाँव और शहर तथा आम और खास सबकी जरूरतें पूरी कर रहे थे। तब ज्वार, बाजरा आदि श्रीहीन हुआ करते थे। उन्हें गरीबों और गँवारों का भोजन माना जाता था। श्रीअन्न का सम्मान तब उन्हें नहीं मिला था।
दाल सब्जी की किल्लत भी कुछ कम नहीं थी। कहीं कोई सब्जी दिख भी जाए तो कीमतें आसमान छू रही होतीं। लहसुन मिर्ची का रगड़ा(मोटी दरदरी चटनी) के साथ ज्वार-बाजरे की मोटी रोटी उस समय का मुख्य भोजन था। यह बच्चे को क्या, बड़ों को भी शायद ही रास आए। यह वो दौर था जब देश को भुखमरी से निपटने के लिए बहुचर्चित अमरीकी पी एल 480 (PL 480) के तहत मदद लेनी पड़ी थी। स्कूल के बच्चों को अमरीकी मकई (मक्के) का दलिया और सीएसएम (कॉर्न सोया मिक्स/मिल्क) दोपहर के भोजन में दिया जाता था।
अकाल के समय मवेशियों के दाना-पानी और चारे का भी सर्वथा अभाव था। चारा और दाना पानी ना मिले तो वे दूध भी क्या ही देतीं, थोड़ा बहुत दूध होता तो इतना महँगा कि कोई खरीदे भी कैसे। तब भूरी का ख्याल आया बाबूजी के मन में। एक छोटी सी देशी गाय, जिसके रख-रखाव में बहुत तामझाम ना हो, विशेष खर्च ना हो। सोचा होगा कि वह परिसर के आसपास की परती जमीन की घास चर लेगी। घर का बचा-खुचा खाना और बागवानी से निकले घास-फूस और पत्ते आदि से पेट भर कर संतुष्ट हो जाएगी। ऐसी सीधी सादी छोटी सी गाय जिसे खूँटे से कोई खोल-बाँध ले। बाबूजी ने अपनी इच्छा पास के गाँव के प्रशिक्षु शिक्षकों को बताई। फिर तो खोज शुरू हो गई और जल्दी ही भूरी हमारे घर आ गई।
भूरी आने वाली है इसकी पूर्व सूचना बाबूजी ने घर में दे दी थी। माई ने लोटा राख से माँज पानी भर लिया था। सिंदूर और गुड़ एक छोटी थाली में रख ली थीं। आने पर भूरी का स्वागत जो करना था। माई के मन में जाने क्या चल रहा था। पर उन्हें इतना जरूर पता था कि उस विपदा में भूरी कामधेनु बन कर आ रही थी। ज्वार बाजरा की रोटी बे-मन पेट में ठूँस ली जाए तब भी शरीर को अतिरिक्त पौष्टिकता की आवश्यकता तो होगी है। साग-सब्जी की किल्लत भी थी, ऐसे में भूरी एक उम्मीद के रूप में आ रही थी। माई उसकी खातिर-तवज्जो कैसे नहीं करतीं। हम बच्चों में भी उत्साह था। जैसे वह दरवाजे के समीप आई, माई ने उसके खुर पर लोटे से पानी डाल कर उसके पाँव पखारे। माथे पर सिंदूर का टीका लगाया और गुड़ खिलाया। अपना सिर ऊपर उठा भूरी ने जैसे माई को आश्वस्त किया - मैं आ गई ना, अब सब ठीक हो जाएगा।
रम्भा कर भूरी ने बच्चों का ध्यान अपनी ओर खींचा, फिर जैसे कहा, चिंता मत करो, दूध दही ही नहीं मैं तुम्हें प्यार भी दूँगी। लगा नजरों के इशारे से उसने हमें अपने पास बुला लिया हो। उसके सिर और पीठ पर हाथ फिरा कर हमने भी उसे अपना प्यार जताया। दूध से दुराव होते हुए भी भूरी के करीब जाकर मुझे अच्छा लगा। कभी उसके सिर पर हाथ फिराता तो कभी पास में सब्जी की क्यारियों से घास निकाल उसे खिलाने लगता। यह सब अनायास ही होने लगा था। भूरी और मेरी इस आत्मिक रिश्ते का संज्ञान माई को तुरंत हो गया। उन्होंने ने इसका फायदा उठाया और मुझे समझाना शुरू कर दिया कि अगर मैं दूध नहीं पीऊँगा तो भूरी को बुरा लगेगा, उनका यह ईमोशनल-ब्लैकमेल काम कर गया और भूरी को बुरा ना लगे, ऐसा सोच कर मैं दूध पीने लगा और उस मुश्किल दौर में कुपोषण का शिकार होने से बच गया।
भूरी को भी जैसे इतनी आत्मीयता पहले कभी नहीं मिली थी। इस आत्मीयता का प्रतिफल वह अपनी औकात से अधिक दूध दे कर देना चाहती थी। हम पाँच भाई-बहन, दो-तीन चचेरे- ममेरे भाई, माई और बाबूजी सब की दूध दही घी आदि की जरूरत को अकेले पूरा करने का संकल्प भूरी ने ले रखा था। मानो पहली नजर में ही माई के मन को उसने पढ़ लिया था। जैसे माई ने उससे कहा हो कि इस संकट के क्षण हम सब की नैया उसे ही पर लगानी थी।
समय बीतता गया। अकाल का असर कुछ होने लगा। बाबूजी का तबादला शिक्षा उपाधीक्षक के रूप में अन्यत्र हो गया। आपसी बँटवारे के बाद बाबूजी के पाँच भाइयों का संयुक्त परिवार बिखर गया। मेरे बड़े भाई हायर सेकन्डेरी पास कर आगे की पढ़ाई के लिए पटना चले गए। बाकी बच्चों और भूरी के साथ माई गाँव आ गईं।
भूरी पुनः गर्भवती हुई और उसने दूध देना बंद कर दिया। उसके पेट में पल रहे बच्चे ने आकार लेना शुरू कर दिया था। उसकी अगुआई के लिए मैं आतुर था। मुझे तो उसका साथ पसंद था, दूध तो इस लिए पीने लगा था कि उसे बुरा न लगे। उसके दूध नहीं देने से मेरी उसकी घनिष्ठता प्रभावित नहीं हुई। मेरी उम्र बढ़ रही थी और भूरी से मेरा लगाव भी।
गाँव में बाबा से पौराणिक कहानियाँ सुनने का क्रम शुरू हुआ। साथ में श्लोक और स्तोत्र सीखने का सिलसिला भी। कभी कान्हा और वृंदावन की गायों की कहानी भी बाबा सुनाते। उनकी आँखें नम हो जातीं, कान्हा और गायों की अंतरंगता के बखान के साथ। उन नम आँखों में वृंदावन की कुंज गलियाँ होतीं, कान्हा और उनकी गायें जो बाँसुरी की मधुर तान से मंत्र मुग्ध हो कान्हा को निहारती होती। भूरी से लगाव में मुझे अपने भीतर कान्हा दिखने लगता। सोचता, घर में मुझे सभी मोहन नाम से बुलाते हैं। बाबा से कहानियाँ सुनते-सुनते ऐसा लगता कि मेरे नाम में कोई दैवीय संदेश छुपा है। भूरी के प्रति मेरी भावुकता गहरी होती जा रही थी। कान्हा की तरह मैं अपनी भूरी को चराने निकल पड़ता, आस पास के खाली खेतों में, जिसमें फसल कटने के बाद घास उग आई होती। बाल-सुलभ बातों को समझने के लिए उससे बढ़िया मेरा कोई सहचर नहीं होता।
मनोभावों की उठती गिरती लहरें और मेरा भूरी के साथ विचरना चलता रहा और उसके 'ब्याने' का समय पास आ गया। बाछा होगा या बाछी, अटकलें लगाई जाने लगी थी। गाय के दूध, दही, घी की महत्ता लोग बताते नहीं थकते। पर आस बाछा की लगी होती। बड़ा होकर बैल बनेगा और खेत जोतेगा, बैलगाड़ी खिचेगा।
एक चर्चा और होती थी, भूरी सावन में ही बच्चा जने। गलती से भी भादो हो गया तो बहुत अशुभ हो जाएगा। भादो में ब्याने वाली गाय और बछड़े को उसी घर में नहीं रखा जा सकता। ये बातें मेरी समझ से परे थीं।
हर उलझन की परिणति होती है। इसकी भी होनी थी। आखिर वह क्षण आ गया। रक्षा बंधन की मिठाई मुँह में धीरे धीरे घुल रही थी। उधर धुकधुकी भी लगी थी क्योंकि मुझे भी पता चल गया था कि गोधूलि के साथ ही भादो शुरू हो जाएगा। अब ये ज़रूरी था कि भूरी आज दिन में ही अपना बच्चा जने। मन ही मन मैं कान्हा की गुहार लगा रहा था। भूरी शाम ढलने से पहले बच्चा दे दे। दोपहर तक भूरी में कोई लक्षण नहीं दिखा कि उसका बच्चा आज ही पैदा हो जाएगा।
दिन ढल रहा था। गोधूलि का समय नजदीक था। अचानक भूरी की चहलकदमी बढ़ गई। उसकी रंभाहट तेज हो गई। बड़े-बुजुर्गों की बातों से लगा कि वह समय आ गया है। अब एक बेचैनी थी, क्या भूरी भादो की दस्तक को दरकिनार कर पाएगी। बारी-बारी सबकी नजरें डूबते सूरज और गाय की प्रसव क्रिया पर पड़ती। इस रेस में कौन जीतेगा। सूरज पहले अस्ताचल पार करेगा, या भूरी का बछड़ा डूबने से पहले एक नजर सूरज को देख पाएगा। पैदा होने वाले बछड़े से सूरज की दौड़ तेज साबित हुई और वह अस्ताचल पहुँच गया। बछड़े को जैसे इसी की प्रतीक्षा थी। इधर सूरज अस्त हुआ, उधर वह इस दुनिया में आया।
भादो दस्तक दे चुका था। इल्म मुझे भी था। पहले भी चर्चा हुई थी, सूर्यास्त के साथ भादो शुरू हो जाएगा। मेरा चेहरा पीला पड़ गया, क्या भूरी को अब घर से हटा देंगे। कहीं और भेज देंगे या बेंच देंगे। मायूस मन ने दुस्साहस किया। काका से दुराग्रह कर बैठा। काका, भूरी को अपने घर से मत हटाओ। भादो में तो गोपाल का जन्म हुआ था, फिर भादो गौवंश की वृद्धि के लिए अशुभ कैसे है। मान्यताएं अक्सर तर्क पर भरी पड़ती हैं। फिर वही हुआ, अगले ही दिन भूरी की डोर किसी और को पकड़ा दी गई। चलने से पूर्व उसकी नजरें जैसे मुझ पर ही थीं। वह जानती थी, यह मेरे लिए किसी सदमे से कम नहीं था। उधर भूरी चली, इधर बिलखता हुआ मैं माई की गोद में गिर पड़ा। घंटों बाद मेरी सिसकी थमी। भूरी जा चुकी थी। उसका नन्हा बछड़ा भी।
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*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ अध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है।