मुस्तकीम की चटनी का मिसिंग फ़्लेवर

सत्येन्द्र प्रकाश | साहित्य | Apr 19, 2025 | 613

आमों का मौसम आ चला है। कुछ ही दिन में हमें अपने चारों ओर आम नज़र आने वाले हैं। साथ-साथ ही आया है या बल्कि यों कहें कि आमों से एक कदम आगे चल रहे कच्चे आमों का मौसम! कच्चे आम जिन्हें बिहार-उत्तर प्रदेश में टिकोरा कहा जाता है। अपने अनूठे अंदाज़ में बिहार के पूर्वी उत्तरप्रदेश से जुड़े अंचल की बहुत सी कहानियाँ सुना चुके सत्येन्द्र प्रकाश जो इस वेब-पत्रिका के अति लोकप्रिय लेखक के रूप में स्वयं को स्थापित कर चुके हैं,  इस बार लेकर आए हैं, टिकोरों से बनाई गई चटनी की कहानी। आप उनकी यहाँ प्रकाशित कहानियाँ पढ़ चुके हैं तो आपको समझ आ ही गया होगा कि टिकोरों की चटनी तो सिर्फ बहाना है जिसके माध्यम से वह पाठकों को उस अंचल की जाने कितनी ही प्रवृत्तियों से परिचित कराते चलेंगे। आइए, देखें इस बार क्या है उनकी कथाओं की तिजोरी में! 

मुस्तकीम की चटनी का मिसिंग फ़्लेवर

सत्येन्द्र प्रकाश 

टिकोरा का मौसम आ गया है। मोजरों की मादकता से मदमस्त पेड़ों पर अब हरे हरे टिकोरे निकल आए हैं। कहीं पेड़ों की हरी पत्तियों के बीच से ताका झाँकी कर रहे हैं तो कहीं पत्तियों को पूरी तरह अपनी आगोश में छुपा लेने की कोशिश। बसंत से ग्रीष्म की ओर कूच की दिशा में इन नन्हे हरे टिकोरों की तरुणाई आँखों को शीतलता दे रही होतीं। सुबह की अलसाई पुरवाईं, कोयल की मधुर कूक और बगीचों से छलकती हरीतिमा ग्रीष्म ऋतु के स्वागत के लिए मजबूर करती हैं।

टिकोरों की खट्टी यादों का स्मरण होते ही मुँह में पानी आ जाता है। चटोरी जीभ बेचैन हो  उठती। हर उम्र की जीभों की अपनी दास्तान-ए-इश्क है इन टिकोरों के साथ। बड़ों को टिकोरों के साथ उबली खट्टी दाल की याद सताती और आम-पुदीने का  खट्टा-मीठा शर्बत। गर्मियों के शर्बत सभी सुकून पहुँचाने वाले होते हैं लेकिन टिकोरे-पुदीने का शर्बत नंबर एक होता है। खाने में  दाल-भात पर टिकोरे पुदीने की चटनी का इंतजार कम बेसब्र नहीं करता। पर बड़ों की बंदिशें भी बड़ी होतीं। सतुआनी (मेष संक्रांति) के दिन सतुआ के साथ ही टिकोरे की चटनी पहले पहल जीभ चढ़ती। तब तक बड़ों को इस सुख से वंचित रहने की मजबूरी है। रबी फसलों और इस सीज़न के मौसमी फलों का नेवान सतुआन के दिन होता है।

बच्चों को बंदिशें कहाँ बाँध पातीं। दोपहर स्कूल से लौटे बच्चों को खाने की सुध नहीं रहती। बगईचा पहुँचने की होड़ मची होती। घर में बस्ता पटको और भागो।  महतारियाँ आवाज देती रह जातीं। पर सुनता कौन है। किसी बच्चे ने छुपकर रसोई से पाँच साथ लाल सूखी मिर्च उठा ली होती तो किसी ने कागज़ की पुड़िया में नमक! कोई छोटी छुरी की व्यवस्था की जिम्मेदारी लेता, तो कोई साफ पुरानी धोती का टुकड़ा का जुगाड़ कर लाता। भरी दुपहरी सड़क की तपती छाती रौंदतें इनके नन्हे पाँव बगईचा पहुँच कर ही विराम लेते। ना चईत-बईसाख की तपती सड़कों से जलते पैरों की चिंता होती ना लू की चपेट में आकर बीमार पड़ने की। बस फ़िक्र होती शीघ्र बगईचा पहुँचने की और टपके टिकोरों को इकट्ठा करने की।

टपके टिकोरों की आस ही इन बच्चों को होती। किन्तु नजरें बचाकर पेड़ों से कुछ टिकोरे तोड़ लाने से भी गुरेज नहीं था। आखिर सोख शरारतें ही तो बचपन है। बचपना अगर संयमित और मर्यादित हो तो फिर बुढ़ापा क्या होगा! पेड़ों पर चढ़ना और उछल कूद करना गाँव के बच्चे को ना आए तो जीवन एक बड़े रोमांच से महरूम रह जाएगा। गिरे पड़े टिकोरों की कमी पूर्ति तोड़ कर पूरी करने के बाद शुरू होती उस नायाब व्यंजन की तैयारी जिसके लिए बच्चे बगईचा पहुँचने के लिए उतावले थे।  

निपुण हाथों में टिकोरों को छीलने-काटने की जवाबदेही होती। टिकोरों को बारीक काटा जाता लगभग वैसा जैसा चील्ला  के लिए प्याज- टमाटर काटा जाता है। फिर इन बारीक कटे टिकोरों में नमक और सुखी लाल मिर्च मसल कर धोती के टुकड़े के एक सिरे पर मजबूती से बाँधा जाता। एक सिरे से बँधी इस पोटली को धोती का दूसरा सिरा पकड़ हवा में तेजी से घुमाने का उपक्रम शुरू होता। कुछ उस तरह जैसे गोला फेंकने से पहले हाथ घुमाया जाता है। नमक मिर्च और कटे कच्चे आम साथ-साथ हवा में झूम-झूम एक दूसरे में रच बस जाते। पानी जिसे इनका साथ नागवार गुजरता, रोते गाते धोती से रिस-रिस कर बाहर हो जाता। इस तरह जो व्यंजन तैयार होता उसे बच्चों ने नाम दिया था भुजिया। बारीक कटे टिकोरों की सूरत छोड़ इनमें भुजिया माफ़िक कुछ नहीं होता। ना यूपी- बिहार की आलू-परवल की भुजिया जैसा, ना ही भुजिया नमकीन जैसा। जीभ से छेड़ छाड़ करता यह स्वाद जितना जीभ को भाता उतना ही मन को लुभाता। बच्चों के दिल में पके रसीले खाने आम की बेताबी से कतई कम टिकोरों की इस भुजिया की नहीं होती।

कोई साल ऐसा नहीं बीतता जब मोहन की जीभ भुजिया के इस स्वाद को आवाज़  नहीं देती। फिर भी बड़े हो जाने पर टिकोरों के उपलब्ध होने पर भी मोहन ने यह भुजिया बनाने की कभी कोशिश नहीं की। पर टिकोरों से बने एक अति साधारण व्यंजन का स्वाद मोहन के जीभ ऐसा चढ़ा कि वह बरसों लगातार उस स्वाद को पुनः पाने का प्रयास करता रहा है। यह स्वाद है मुस्तकीम के हाथों बनी टिकोरों की चटनी। मुस्तकीम की उस चटनी का स्वाद मोहन की जीभ को जब-तब छेड़ जाती है। अमियों की चटपटी चटनी का इस मौसम बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजन  में खास स्थान होता। इसकी अनुपस्थिति में भोजन अधूरा सा लगता है।

चटनी मुख्य भोजन की एक अदना सहचर ही रही है। खाने पर एक दीर्घजीवी असर छोड़ जाए चटनी की इतनी औकात नहीं है। लेकिन मुस्तकीम की चटनी का स्वाद मोहन की जीभ फिर भी ढूँढती है। १९६९ से अबतक ना जानें मोहन ने कितने प्रयास किए। पर टिकोरों की चटनी को वो जायका मिल नहीं पाया। वह समझ नहीं पाता यह उसका दुर्भाग्य है, या फिर चटनी का। किन्तु हकीकत यही थी कि मुस्तकीम और मोहन की चटनी के बीच कोसों का फासला बरकरार रहा।

मुस्तकीम* की चटनी मोहन के मुँह अकस्मात ही लगी थी। श्रीकांत पाण्डेय, मोहन के मझला बाबूजी, शिक्षण प्रशिक्षण महाविद्यालय के प्राचार्य थे। प्रिंसिपल साहब के रूप में आस पास के इलाके में उनकी अच्छी ख्याति थी। छात्र जीवन से ही बहुचर्चित रहे। अपने जिले के पहले दूसरे मैट्रीकुलेट थे। पिछड़े इलाकों में १९२०-३० के वर्षों में शिक्षा अर्जित करने की न तो सोच थी न सुविधा। घर से डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित मकतब** से श्रीकांत की स्कूली शिक्षा शुरू हुई। उर्दू, फारसी, गणित आदि के आरंभिक ज्ञान के बाद बिहार में हथुआ राज द्वारा संचालित ईडेन स्कूल से हाई स्कूल किया। अपनी प्रतिभा और अनुशासन से शिक्षकों को न सिर्फ प्रभावित किया, बल्कि उनके कृपा पात्र बने रहे। महात्मा गाँधी की पुकार पर खादी को आधार बनाया। बुनियादी तालीम के मुहिम से स्वयं को जोड़ा और शिक्षा प्रसार के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन में अपना विनम्र योगदान दिया।

१९३० के दशक के उतरार्द्ध में प्रांतीय सरकार बनी। शिक्षा सहित कई अन्य क्षेत्रों में प्रांतीय सरकारों को अंग्रेजी हुकूमत से कुछ स्वायतता मिली। महात्मा गाँधी के मार्गदर्शन में डॉ जाकिर हुसैन की सक्रियता से बुनियादी तालीम की शुरुआत हुई। मातृभाषा में सातवीं-आठवीं तक की शिक्षा दी जाए और उसके संग स्थानीय हस्त शिल्प में दक्षता की तालीम भी मिले, इसी लक्ष्य से बुनियादी विद्यालयों का गठन हुआ। शिक्षा साधकों के समक्ष एक अद्वितीय अवसर उपलब्ध हो आया, गरीब पिछड़े क्षेत्रों में शिक्षा के साथ गाँधीजी के विचारों और आजादी की भावना का प्रसार।

बुनियादी विद्यालय के प्राचार्य के रूप में उनकी रचनात्मक सोच, सृजनात्मक पहल और कार्यशैली से प्रभावित होकर कालांतर में उन्हें शिक्षण प्रशिक्षण महाविद्यालय के प्राचार्य का दायित्व सौंपा गया। देश को योग्य और कुशल शिक्षकों की आवश्यकता थी। उन्हें प्रशिक्षित करने की महती जिम्मेवारी देश के ऊपर थी। श्रीकांत जैसे अनुभवी और योग्य शिक्षकों को यह जिम्मेवारी सौंपी गई।  

मोहन ने इन्हीं के घर मुस्तकीम की चटनी चखी थी। मोहन की मझली माई का असमय निधन हो गया। बेटियाँ अभी छोटी थीं। छोटी बेटी मंजु तब तीन साल की होगी। बड़ी सरोज भी सात आठ से ज्यादे की नहीं होगी। प्रिंसीपल  साहब को रसोईये की जरूरत थी। उन दिनों प्रशिक्षु शिक्षकों के मेस्स में रसोइयों को अनुबंधित मुलाजिमों की हैसियत से बहाल किया जाता। इस प्रक्रिया में स्वयं तनख्वाह देकर अपने लिए रसोइया ढूँढ लेना कोई खास मुश्किल नहीं था। अगर कुछ मुश्किल था तो रूढ़िवादी पाबंदियों को तोड़ना!

दकियानूसी विचारों का अभाव तो अब भी नहीं है। फिर उन दिनों एक ब्राह्मण का रहन-सहन तो सार्वजनिक विश्लेषण का विषय हुआ करता था। ब्राह्मण महाराज ही कुलीन ब्राह्मणों की  रसोई की शोभा बढ़ाते नजर आते थे। पत्नी वियोग में दुखी और भोजन की व्यवस्था को लेकर चिंतित प्रिंसीपल साहब के लिए निर्णय लेना कठिन था।

प्रिंसीपल साहब के सेवा-काल की मिसाल दी जाती थी। हफ्ते-दस दिन मझला बाबूजी के साथ रहते हुए मोहन ने इसे देखा था। उनके घर  मोहन को आए हुए दो ही दिन हुए थे। परिसर की गहमा-गहमी से लगा, उस दिन कुछ खास होने वाला था। हाँ खास ही था। सरकारी परती जमीन पर प्रिंसीपल  साहब ने पोखरा खुदवाया था। इसमें ग्रामीणों का पूर्ण सहयोग उन्हें मिला था। नेतृत्व की अद्भुत क्षमता थी उनमें। लोगों को साथ लेकर चलने की कला में निपुण थे।

पोखरे की ऊँची भीतों की मजबूती सुनिश्चित करने के पश्चात उस दिन पानी भरा जाना था। इक्कीसवीं सदी में जल संचयन और संरक्षण की चर्चा मोहन को अपने मझला बाबूजी की याद दिलाती है। पोखरे की जल भराई रस्म अदायगी भर नहीं थी। उसकी दीर्घजीविता भी सुनिश्चित करना प्रिंसीपल  साहब की ही जवाबदेही थी। भीतों के ऊपर वृक्षारोपण की योजना भी तैयार थी। आने वाले बरसात की शुरुआत में ही शीशम, जामुन, पीपल, नीम आदि के पौधों को रोपने का निर्देश उन्होंने दे दिया था। पोखरा से सटे परती जमीन का जो हिस्सा खाली था उसमें बरगद लगाने की योजना थी।

महाविद्यालय में हरीतिमा बनी रहे, इसके लिए सघन वृक्षारोपण प्रशिक्षण कार्य योजना का अभिन्न अंग बन गया। वृक्षों की देख रेख के आधार पर अंक आबंटित होते जो परीक्षा अंतिम परिणाम में इंगित होता। आस पास के गाँवों को इस मुहिम से जोड़ने की उनकी कोशिश सदैव होती। परिसर की सांस्कृतिक गतिविधियों में स्थानीय प्रतिभाओं का समुचित भागीदारी सुनिश्चित करना भी उन्हें बखूबी आता था।   

इतने अग्र-सोची मोहन के मझला बाबूजी को अपने घर एक रसोइया रखना था। एक तरफ कुलीन ब्राह्मण घराने की कृत्रिम  बंदिशे थी तो दूसरी तरफ गाँधीजी की विचारों को व्यावहारिक जीवन में उतारने का उदाहरण समाज के सामने पेश करने का अवसर। उपलब्ध विकल्पों में मुस्तकीम भी था। मुस्तकीम को चुनने का निर्णय कितना दुष्कर रहा होगा उनके लिए। जब उन्होनें मुस्तकीम को रखने का फैसला अपने सहकर्मियों और प्रशिक्षु शिक्षकों को बताया होगा, एक पल को सब स्तब्ध रह गए होंगे। पर मुस्तकीम अब उनके रसोई का संचालक था।

यम-नियम, प्राणायाम के अनुशासन में बँधे, वेदांती गुरु से सीखे हुए अपने मझला बाबूजी की रसोईं में मुस्तकीम को देख मोहन भी विस्मित था। पर हकीकत यही थी। जिस दिन मोहन उनके घर पहुँच था, उस शाम थाली में खाना परोस मुस्तकीम ने सबके के सामने रख दिया। मझला बाबूजी ने पहले भगवान का ध्यान कर भोग लगाया और फिर खाना शुरू किया। ग्रामीण परिवेश की कुंठाओं के बीच पले-बढ़े मोहन पर भूख हावी थी। मझला बाबूजी ने खाना शुरू किया ही था कि मोहन खाने पर टूट पड़ा। और मोहन की थाली में पड़ी मुस्तकीम की चटनी उसी दिन मोहन के मुँह लग गई।

बच्चों की थाली में मुस्तकीम ने चटनी नाम मात्र की डाली थी। खट्टी तीखी चटनी बच्चे खा पाएंगे, मुस्तकीम को संदेह था। पर बड़ों की थाली में परोसी सब कुछ बच्चों की थाली में ना हो तो वे जिद करने लगते। यही सोच मुस्तकीम ने सभी थालियों में चटनी भी परोसी थी। चटनी मोहन को कुछ ज्यादे भा गई। थाली में पड़ी चटनी चट कर, मोहन ने और की गुहार लगा दी। मुस्तकीम को हैरत हुई। पर खुशी भी हुई, उसके हाथ की बनी चीजें बच्चों को भी पसंद आई।

मुस्तकीम को फिर भी ताज्जुब हो रहा था। खाने की कई चीजों के बीच बच्चे को चटनी कैसे पसंद आ सकती है। मोहन को सभी चीजों में अलग स्वाद मिला एक था।  अन्य चीजें भी पसंद आई थी। पर चटनी की कोई सानी नहीं थी। तभी तो एकदम से चटनी की तारीफ मोहन के मुँह से निकल पड़ी।

मोहन की चटोरी जीभ तभी से इस ज़ायके के पीछे पागल रही है। हर सीज़न मोहन का प्रयोग होते रहता। टिकोरों के साथ पुदीना और अजवाइन पीसकर  लगा था कि मुस्तकीम की चटनी का स्वाद आ जाएगा। यह चटनी भी स्वादिष्ट लगी, पर वह स्वाद कहाँ। हरी मिर्ची के बदले लाल मिर्ची डाली, फिर भी उस स्वाद का कोई अता-पता नहीं था। लाल मिर्च को आग में भून कर और सरसों तेल मिला कर मोहन ने सोचा, अब तो मुस्तकीम की चटनी बन ही जाएगी। पर हाथ लगी वही निराशा। वर्षों उस स्वाद को जीभ तलाशती रही। फिर एक सीज़न मोहन ने कच्ची अमियों और पुदीने के साथ जीरा पीस डाला। सरसों के तेल की मात्रा थोड़ी बढ़ा दी। और नमक की नजाकत को समझ, साधारण की जगह काला नामक डाला। इस बार मुस्तकीम की चटनी का स्वाद कुछ वापस मिलता सा लगा।

सालों की जद्दोजहद और प्रयोगों की इंतहा के बाद, मोहन सोच रहा था, क्या सिर्फ टिकोरों के साथ जीरा पीस कर चटनी ने वह स्वाद पा लिया। या उस स्वाद के पीछे कोई और बात थी। या प्रिंसीपल  साहब की रसोई में गाँधीवादी सोच द्वारा दकियानूसी पुरातनता की जो शिकस्त की मूक क्रांति हुई थी, वह उस स्वाद को खास बनाती रही थी। कई बार मोहन का प्रौढ़ मन ऐसी सोच का दुस्साहस कर बैठता कि एक ब्राह्मण की रसोई में मुस्तकीम का होना ही चटनी में जीरे का मिसिंग फ्लेवर था। 

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*नाम मुस्तकीम है जिसका अर्थ सच्ची राह होता है, जैसे हर नमाज़ मे ईश्वर से सच्चे रास्ते पर चलने की हिदायत मांगना होता है इस आयत को दुहराते हुए - 
इहदिना सरात अल-मुस्तकीम ...
यानी हे ईश्वर! हम सबको सच्ची राह पर चलाना...

**मकतब, अरबी भाषा के क त ब अक्षरों से मलकर बना शब्द है। इन अक्षरों से बने अन्य शब्द किताब, किताबत (लिखत-पढत) हैं। 
मकतब का अर्थ विद्यालय यानी जहां किताबों के माध्यम से लेखन व पठन होता हो। सादे अर्थों मे कहें तो मकतब यानी स्कूल, विद्यालय या शिक्षण संस्थान ।

 

 

सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है।

 


       



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