मोदी की ज़ोरदार वापसी

विद्या भूषण अरोरा | समाज-एवं-राजनीति | May 23, 2020 | 81

आज की बात

23 मई शाम करीब साढ़े छ: बजे जब यह आलेख लिखा जा रहा है तो सभी चुनाव परिणामों के रुझान आ चुके हैं और यह बहुत कम संभावना है कि पूरे परिणाम इन रुझानों से इक्का-दुक्का सीटों के अलावा कुछ ज़्यादा फर्क हों। इन रुझानों के अनुसार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए को करीब साढ़े तीन सौ  लोकसभा सीटों पर बढ़त हासिल हो चुकी है और यूपीए 100 का आंकड़ा भी नहीं छू पा रही और 92 सीटों पर बढ़त के साथ किसी तरह लड़खड़ा कर चल रही है। राहुल गांधी अमेठी से हार मान चुके हैं और उनकी हार की आधिकारिक घोषणा किसी भी समय हो सकती है।

इसी बीच प्रधानमंत्री मोदी का भाषण टेलीविज़न पर आने लगा तो इस स्तंभकार ने उधर अपना ध्यान किया! उनके भाषण में मुझे जो सबसे ज़्यादा आश्वस्त करने वाली बात लगी वो ये थी कि उन्होंने संविधान में अपनी आस्था बहुत जोरदार ढंग से व्यक्त की। इस स्तंभकार की नज़र में यह आश्वासन बहुत आवश्यक था क्योंकि पिछले पाँच वर्षों में ऐसे बहुत से अवसर आए थे जब लगने लगता था कि भाजपा के कुछ नेता (जिन्हें आमतौर पर ‘फ्रिंज एलीमेंट’ या किनारे पर पड़े नेता कहा जाता है) बीच बीच में अल्पसंख्यकों के खिलाफ ऐसी बातें बोल जाते थे जो संविधान की भावना के खिलाफ या संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ जाते थे।

प्रधानमंत्री के भाषण में उतनी ही महत्वपूर्ण बात ये रही कि उन्होने देश की जनता से वादा किया कि वह कोई काम बदनीयती या खराब नीयत से नहीं करेंगे। उन्होने कहा कि काम करते हुए गलती हो जाये तो अलग बात है लेकिन वह अपनी तरफ से ऐसा कुछ नहीं करेंगे जो खराब नीयत से हो। क्या इसका अर्थ ये भी लिया जा सकता है कि वह कोई काम बदले की भावना या क्षुद्र राजनीतिक लाभ के लिए नहीं करेंगे? अगर ऐसा है तो ये बहुत महत्वपूर्ण है। चुनाव परिणाम आने के तीन-चार दिन पहले कुछ ऐसी चीज़ें हुईं जिनके लिए ये कह जा रहा है कि बिना शीर्ष नेता के आदेश के उनका होना मुश्किल था। ये हैं अनिल अंबानी द्वारा राहुल गांधी के खिलाफ अवमानना का केस वापिस लेना, उत्तर प्रदेश के यादव नेताओं को सीबीआई की क्लीन-चिट देना और अडानी ग्रुप द्वारा वायर वेब-पोर्टल के अवमानना का केस वापिस लेना!

प्रधानमंत्री के भाषण में विपक्ष के लिए कोई खास तीखी या कड़वी बात नहीं थी। लेकिन एक बात उन्होंने जो ‘सेकुलरिज़्म’ (धर्मनिरपेक्षता) के लिए कही और जिस ढंग से कही उससे कहीं ये चिंता होती है कि पार्टी के तौर पर भाजपा का चाहे जो स्टैंड हो, एक सरकार के लिए ‘सेकुलरिज़्म’ को नकारना देश के अल्पसंख्यकों के मन में असुरक्षा पैदा कर सकता है। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में ‘सेकुलरिज़्म’ को एक ड्रामा बताया, एक फैशनेबल चीज़ बताया और इसे अपनी एक उपलब्धि के तौर पर पेश किया कि किसी राजनैतिक दल में इस बार ये हिम्मत नहीं थी कि वह अपने चुनाव-अभियान में सेकुलरिज़्म शब्द का इस्तेमाल भी करे। जिस देश की जनसंख्या का पांचवा हिस्सा अल्पसंख्यकों का हो, वहाँ यदि सरकार का मुखिया ही धर्म-निरपेक्षता शब्द को इस तरह पेश करे कि जैसे वह कोई नफरत करने लायक सिद्धान्त हो तो यह चिंता की बात है।

यह और भी चिंता की बात हो जाती है जब हम देखते हैं कि भाजपा प्रज्ञा ठाकुर जैसे लोगों को चुनाव लड़ाने में नहीं हिचकती और वह आराम से भोपाल से चुनाव जीत भी गई हैं। प्रज्ञा ठाकुर सिर्फ वह नहीं हैं जो मालेगाँव बम ब्लास्ट मामले में एक अभियुक्त रही हैं। वह मामला तो अभी तक चल ही रहा है और हो सकता है कि उन्हें इस मामले में बारी कर दिया जाये या फिर उनका दोष सिर्फ उनकी मोटरसाइकिल इस्तेमाल होने तक सीमित मान लिया जाये। लेकिन उन्होंने हाल ही में यानि चुनाव प्रचार के दौरान सरेआम कहा कि वो गांधी के हत्यारे नथूराम गोडसे को देशभक्त मानती हैं।

मामला सिर्फ इतना भर नहीं है कि वह गोडसे को देशभक्त मानती हैं। ये उससे थोड़े आगे की बात है। वह यह है कि गोडसे को देशभक्त मानने का अर्थ है कि वह हिंसा और नफरत की राजनीति को बुरा तो नहीं ही मानती बल्कि वह उसे देशभक्ति का पैमाना मानती हैं। उनके इस ब्यान को लेकर प्रधानमंत्री ने भी चिंता और दुख ज़ाहिर किया और यहाँ तक कहा कि वह उन्हें कभी माफ नहीं कर कर सकेंगे लेकिन यह स्पष्ट नहीं हुआ कि उन्हें भाजपा ने टिकेट ही क्यों दिया। चिंता की बात ये है कि आने वाले दिनों में अगर भाजपा ऐसे ही लोगों को राजनीति की मुख्य-धारा में स्थापित करने की राजनीति जारी रखी तो ना सिर्फ गांधी के सिद्धांतों की हत्या होती रहेगी बल्कि संवैधानिक मूल्यों की भी धज्जियां उड़ती रहेंगी। आज प्रधानमंत्री के भाषण में जिस प्रकार से सेकुलरिज़्म का ज़िक्र हुआ, उससे भी कोई विश्वास नहीं उपजता।

मोदी जी के नेतृत्व में नई सरकार अगले कुछ दिनों में शपथ लेगी – उस सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि देश का कोई भी नागरिक अपने को असुरक्षित महसूस ना करे।

देश को ‘खिचड़ी सरकार’ नहीं चाहिए थी, देशवासियों ने ये स्पष्ट संदेश दे दिया है। इसीलिए उन्होंने क्षेत्रीय दलों को खासतौर पर उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश यादव के ‘महागठबंधन’ को बुरी तरह हरा दिया है। द्रमुक को छोड़ कर सब क्षेत्रीय दल घाटे में हैं। बीच बीच में ये आवाज़ें आती रहीं कि ‘खिचड़ी सरकारों’ के समय में अर्थव्यवस्था बेहतर काम करती है लेकिन लोगों को इस पर विश्वास नहीं हुआ और उन्होने प्रधानमंत्री की चुनावी रैलियों में गठबंधन को‘ महामिलावटी’ बताए जाने की बात पर ज़्यादा यकीन किया।

बहरहाल, अब मोदी सरकार को अपनी दूसरी पारी में तुरंत अर्थव्यवस्था की तरफ ध्यान देने की आवश्यकता होगी क्योंकि पिछले काफी समय से इसकी हालत डांवाडोल हो रही है। भारतीय कृषि, किसान और खेतिहर मजदूर का संकट शायद नई सरकार के सामने सबसे पहले आने वाले विषयों में होगा जिन पर तत्काल कुछ समाधान की ज़रूरत होगी। अर्थव्यवस्था को सम्हालना भी कृषि क्षेत्र से जुड़ा हुआ है। अब सरकार को विपक्ष के साथ कड़वाहट वाली लड़ाई का रवैय्या छोड़ कर सहयोग का रवैय्या अपनाना चाहिए ताकि जल्दी से जल्दी राष्ट्रीय सहमति से ऐसे सब काम हो शुरू हो जाएँ जो देश के गरीब किसान, आदिवासी और हाशिये पर पड़े समूहों के लिए लाभकारी हों।

विद्या भूषण अरोरा



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