पुनर्जन्म : स्वयं की वापसी या निराधार भ्रम

डॉ मधु कपूर | अध्यात्म एवं दर्शन | Sep 22, 2024 | 198

पिछले कुछ समय से दार्शनिक प्रश्नों और सिद्धांतों को हमारी वेबपत्रिका के लिए सहज-सुगम शैली में प्रस्तुत कर रहीं डॉ मधु कपूर का यह लेख ‘पुनर्जन्म : स्वयं की वापसी या निराधार भ्रम’ आत्मा पर लिखे जा रहे उनके लेखों की कड़ी में शायद अंतिम है। ‘शायद’ इसलिए कहा कि उन्होंने लेख के साथ भेजे अपने पत्र में लिखा कि “hopefully, this will close the discussion” यानि उन्होंने थोड़ी गुंजाईश रखी है कि अपन आत्मा पर बातें दुबारा भी शुरू कर सकते हैं। हालांकि हमें उम्मीद है कि दार्शनिक विषयों पर उनकी यह शृंखला पूर्ववत चलती रहेगी और दर्शनशास्त्र के विभिन्न आयामों को सरल बनाते उनके लेख इस वेब पत्रिका का गौरव बढ़ाते रहेंगे। 

मानव मन को उलझाने वाले  प्रश्नों में से सबसे अधिक पूछा जाने वाला प्रश्न है मृत्यु के बाद क्या होता है? साधारण व्यक्ति से लेकर विज्ञान और दर्शन भी इस प्रश्न से अछूते  नहीं  रहते है – क्या मृत्यु के बाद मनुष्य का अस्तित्व सम्पूर्ण रूप से मिट जाता है? क्या केवल शरीर ही मृत्यु का शिकार होता है अथवा आत्मा भी इसका शिकार होती है?
पुनर्जन्म एक ऐसा बीज सिद्धांत है, जो आत्मा की अमरता से जुड़ा है। भारतीय सिद्धांत के अनुसार चौरासी लाख योनियों में जीव जन्म लेता है और अपने कर्मों को भोगता है। शरीर की मृत्यु भले ही हो जाय पर इसे जीवात्मा का अंत नहीं कहा जा सकता है। उधर जीवविज्ञानी  हमें बतलाते हैं कि हमारे शरीर में कोशिकाओं का जीवन काल सीमित होता है। जैसे जैसे हमारी उम्र बढ़ती है, हमारी शारीरिक कोशिकाएँ नियमित रूप से बदलती रहती हैं, हालाँकि, हमारी चेतना‒ ‘हम कौन हैं’ अपरिवर्तित रहती है। हमारी पसंद-नापसंद और सोच में बदलाव आ जाता है, पर हम जानते हैं कि हमारे शरीर में परिवर्तन होते रहने के बावजूद हमारा व्यक्तिगत "अस्तित्व" वही है, जो कल था या पिछले वर्ष था और या दशकों पूर्व था। इस तरह  "मैं"  समय के साथ बदलते हुए कई शरीरों से होकर गुजरता है, तो क्या यह संभव नहीं है कि तथाकथित मृत्यु के बाद भी जीवात्मा अपना जीवन क्रम जारी रखती हो?
बौद्ध दर्शन नित्य स्थायी आत्मा का  अस्तित्व स्वीकार न करके  इसे एक "चेतन धारा"  के रूप में स्वीकार  करता  है, जो अतीत से उतनी ही जुडी रहती है जितनी भविष्य से। जिस तरह  बुझती हुई मोमबत्ती की लौ दूसरी  मोमबत्ती की लौ को जलाने का काम करती है, उसी तरह आत्मा की चैतन्य धारा अतीत से वर्तमान और भविष्य की जीवन शिखा प्रज्वलित करती चलती है। चेतना  एक कारण-कार्य की निरंतरता से बंधी रहती हैं। जिस तरह James Joyce के उपन्यास Ulysses में हम देखते है कि इसके पात्र जीवन की एक दिन की घटनाओं के चिंतन प्रवाह के आंतरिक एकालाप में मस्त रहते है, उसी तरह सारी जिंदगी का एकालाप और उससे भी आगे जाएँ तो भविष्य का एकालाप .... पुनर्जन्म की एक तर्कसंगत व्याख्या देने में सक्षम हो सकता है।
 जैविक मृत्यु के बाद आत्मा पिछले जीवन के कर्मों की नैतिक गुणवत्ता के आधार पर नया शरीर वस्त्रों की तरह ग्रहण करता है, और पुराने वस्त्रों को त्याग देता है। ऐसा क्यों होता है ? इस प्रश्न का साधारण उत्तर यही हो सकता है कि जिस वस्तु के प्रति हमारा लगाव जितना ज्यादा होता है उसे हम उतनी ही तीव्र गति से पाने की कोशिश भी करते है, फलस्वरूप उसे प्राप्त भी कर लेते है, बशर्ते हमारी चेष्टा में ईमानदारी शत प्रतिशत हो। संगीत के प्रवाद प्रतीम उस्ताद अल्लाउद्दीन खान साहब अपनी १० साल की छोटी उम्र से संगीत की शिक्षा पाने के लिए गुरु की खोज में घूमते रहे और तकलीफों संघर्षों से जूझते हुए अंत में शिखर में पहुँचने में सफल हुए। ऐसी असंख्य घटनायें सुनने में आती है जब छोटी उम्र में घर से भाग कर व्यक्ति अपने सपनों को साकार करने में सफल होता है। मैं सोचती हूँ उन्हें  ऐसी प्रेरणा कहाँ से मिलती है ?

दार्शनिक श्री अरबिंद के अनुसार  पुनर्जन्म  मनुष्य को विकास का अवसर देता है, हम अपनी आकांक्षाओं को उच्चतम शिखर की पूर्णता तक पहुंचा सकते है। एक आत्मा अनगिनत वर्षों के लिए एक जीवन से दूसरे जीवन में स्थानांतरित होती रहती है, जब तक वह अपने अर्जित कर्मों का आवश्यक फल नहीं पा लेती है।

कई बार हमारे सामने ऐसी ऐसी घटनायें घटती हैं, जो होती तो पहली बार है, लेकिन हमें महसूस होता है कि इस तरह की परिस्थिति से हम पहले भी गुजर चुके हैं। चिकित्सा विज्ञान इसे अवचेतन मन की यात्रा मानता है, ऐसी स्मृतियां जो पूर्व जन्मों से जुड़ी होती हैं। पूर्व जन्म में विश्वास न करने वाले नास्तिक भी इसे नकार नहीं सकते कि एक ही प्रकार की शिक्षा पाने वाले दो व्यक्ति बिलकुल भिन्न भिन्न होते है। पारिवारिक संस्कार पहलवानों के होने के वाबजूद पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी विख्यात बांसुरी वादक बने। कहने का तात्पर्य है कुछ गुण मनुष्य में पूर्व जन्म के संस्कारों से गृहीत होते है जिनकी हम उपेक्षा नहीं कर सकते है।

पुनरागमन को प्रमाणित करने वाले प्रमाणों में सबसे बड़ा प्रमाण ऊर्जा संरक्षण का सिद्धांत है, जिसके  अनुसार ऊर्जा का किसी भी अवस्था में विनाश नहीं होता है, मात्र ऊर्जा का रूप परिवर्तन हो सकता है। अर्थात् जिस प्रकार ऊर्जा नष्ट नहीं होती, वैसे ही चेतना का नाश भी नहीं हो सकता। चेतना को वैज्ञानिक शब्दावली में ऊर्जा की शुद्धतम अवस्था कहा जा  सकता हैं। चेतना का मात्र एक शरीर से निकल कर नए शरीर में प्रवेश करना ही पुनर्जन्म  है। पूर्वभव के संस्कारों के बिना विश्व विख्यात संगीत रचनाकार Mozart के लिए मात्र चार वर्ष की अवस्था में संगीत कम्पोज करना संभव नहीं होता।

भर्तृहरि इसी तरह सवाल करते है मछलियों को तैरना कौन सिखाता हैं? पक्षियों को घोंसला बनाना कौन सिखाता है?  कोयल को पंचम स्वर में तान छेड़ना कैसे आया? इस तरह की तमाम घटनाएं हमें विवश करती हैं यह सोचने के लिए कि प्राणी पूर्वजन्म के संस्कार लेकर आता है।  हालाँकि, ये सभी वृत्तियाँ सहजात कही जाती है, जिनके लिए शिक्षण की आवश्यकता नहीं होती है। मनुष्य की भी सहजात वृत्तियाँ, भय, क्रोध, प्रेम, इत्यादि है, जिन्हें सीखने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

इस सन्दर्भ में विख्यात मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग (Carl Jung) का उल्लेख करना भी प्रासंगिक है। उनके अनुसार शारीरिक संरचना में जो काम सहजात वृत्तियाँ करती है, चेतन जगत में वही काम सामूहिक अवचेतना (collective unconscious) करती है, जो सभी मनुष्यों में आदिम वासनाओं  (archetypes) के रूप में  विद्यमान रहती हैं। इस तरह  समाज और संस्कृति के अनुसार उनके रूप बदल जाते है, पर मूल धारणा अवचेतन मस्तिष्क में एक ही आकार में बनी रहती है। यह वासनाएँ ही हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करती है। उदाहरण के लिए माँ की धारणा एक बुनियादी धारणा है, जो सभी प्राणी जगत के बच्चों में पाई जाती है, किन्तु परिस्थिति  के अनुसार अभिव्यक्ति भिन्न भिन्न हो सकती है।  इसी तरह क्रोध सबके अन्दर होता है जिसे हम मौका मिलने पर प्रकट करते है। जब तक वह प्रकट नहीं होता है, हम इस भ्रम में रहते है, ‘मुझे गुस्सा नहीं आता है.’ पर परिस्थितियां इन्हें प्रमाणित करने में सहायक हो जाती है।  आप शांत मन से घर से आफिस के लिए निकलते है, पर जाम में फंस जाते है, बॉस की धमकी खाने के डर से क्रोध से भभक उठते है। यद्यपि इस  संभावना को नकारा नहीं जा सकता की हम इससे ऊर्ध्व भी सोच  सकते है  इसके स्वरूप को बदल कर ‘क्रोध’ अन्याय के विरुद्ध, ‘प्रेम’ प्राणी जगत के असहाय लोगों के प्रति, ‘डर’ दुर्नीति और दुराचार से इत्यादि के विरुद्ध कर उसकी निकासी का मार्ग बदल सकते है।  

कार्ल जुंग कहते है कि हम विश्वास करते है कि ‘मैंने यह  सृष्टि की है पर वास्तव में हमारे अन्दर छिपी वासनाओं के बीज हमसे ऐसा करवाते है.’ आदिम धारणाएं बहुत है जो मनुष्य को सृजनशीलता की ओर, साहित्य, फिल्म, संगीत आदि की तरफ भी ले जा सकती है अथवा खून, हत्या, चोरी इत्यादि जघन्य कार्यों की तरफ भी ठेल सकती है। कलासृजन  का उत्कृष्ट उदाहरण कार्ल जुंग के शब्दों में‒ “It is not Goethe who creates Faust, but Faust which creates Goethe”    

बौद्ध दर्शन में इन आदिम धारणाओं को  आलय विज्ञान की संज्ञा दी  गई  है, जो संस्कार रूपी बीज को संगृहीत रखती है और इंधन मिलने पर भड़क उठती है। मुझे याद है, जब मैंने शिवाजी सामंत का उपन्यास  ‘मृत्युंजय’ पढ़ा था, तो मेरा रो रो कर बुरा हाल हो गया था। करुणा से द्रवित होकर यही हाल हुआ था जब महाभारत युद्ध में अभिमन्यु का वध देखा था। यदि यह करुणा भीतर न होती तो कुछ पन्ने पढ़ कर या देख कर वह फूट फूट कर नहीं निकलती। कहने का तात्पर्य है कि वासनाएं प्राणी मात्र में रहती है, पर उनका  निर्गम परिस्थितियों पर निर्भर करता है.

वासना का मतलब ही वह भाव है, जो अन्दर दबा पड़ा है। जैसे पानी जम कर बर्फ बन जाता है और अनुकूल  समय आने पर यानि ताप मिलने पर पिघलने लगता है, उसी तरह संस्कार जम कर बर्फ की तरह हमारे दिमाग में छिपे रहते है, समय आने पर वह अनुकूल आचरण में बदल जाते है।  संस्कार पदचिह्नों की तरह होते है, जिनके निशानों के छाप हमारे मन मस्तिष्क की गुप्त कंदराओं में बसे रहते है। किसी एक कहानी का प्रसंग  मुझे याद आ रहा है कि विद्रोही पुत्र पिता से आजीवन संघर्ष करता रहा किन्तु उनकी  मृत्यु के बाद वह स्वयं  पिता के जूते पहनने लगा, यानि उनकी तरह आचरण करने लगा।

चेतना के समुद्र में ये वासनाएँ शक्तिशाली लेन्स की तरह  होती है, जो धुंधली आँखों से नहीं देखा जा सकता, धुंध छटने पर  वे ही  हमें दृष्टि प्रदान करती है। हमारी भूमि जैसी होगी हमारी फसल भी वैसी ही होगी। अंत में चर्चा को विश्राम देने के लिए इतना ही कहा जा सकता है कि पुनर्जन्म की धारणा के सम्बन्ध में कोई गतिरोध दिखाई नहीं पड़ रहा  है।  पुनर्जन्म वास्तव में  तर्क का नहीं अनुभूति का विषय है। आनंद कुमार स्वामी के अनुसार जिस तरह एक बिलियर्ड बाल दूसरी बाल को धक्का देकर स्वतः स्थिर हो जाती है, और रुकी हुई बाल चलना शुरू कर देती है, ठीक उसी तरह जीवन की अंतिम चेतना का बिंदु एक नई चेतना को उद्बुद्ध करके बुझ जाती है, लेकिन चेतना का प्रवाह चलता रहता है। कवि अनुज लुगुन के शब्दों में ̶̶

लेकिन हम जीवित रहते हैं आने वाली पीढ़ियों में

हज़ार-हज़ार शताब्दियों से भी आगे

फसलों में, गीतों में, पत्थरों में

मृत्यु के बाद भी हम

अपनी धरती से दूर नहीं होते।

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