अनहद राग रस - सौन्दर्यशास्त्र शृंखला का दूसरा लेख

डॉ मधु कपूर | अध्यात्म-एवं-दर्शन | Mar 17, 2025 | 275

दर्शनशास्त्र शृंखला का दूसरा लेख सौन्दर्यबोध कैसे होता है या रसानुभूति कैसे होती है - इस दार्शनिक प्रश्न पर भी विचार करता है। क्या हमारी भावनात्मक प्रवृत्ति ही वस्तु में सौंदर्य का संचार करती है या फिर वस्तु में अपना सौन्दर्य होता है। आपको ऐसे प्रश्नों का सीधा उत्तर मिले या नया मिले किन्तु ये लेख आपको ऐसे गूढ़ विषयों की गहराई तक ले जाएंगे और वहाँ पहुँच कर आप अपनी मति के अनुसार उस उत्तर तक पहुँच जाएंगे जो आपको जँचेगा। 

अनहद राग-रस

डॉ मधु कपूर 

कुछ पढने के पहले मैंने चाय बनाई और उसमें बिलकुल चुटकी भर केसर मिला दिया, चाय तो  बस गजब की बन गई। मुझे खुद आश्चर्य हुआ, ‘यह कैसे हो गया’। चार तल्ले के फ्लैट में बन्दर ऊपर चढ़ कर खिड़की पर बैठ गया। कोई गणितज्ञ अंदाज़ करते करते थक जायेगा, ‘पर क्या संगणना थी उसकी’! मिनटों में चढ़ गया। अरे, जाने के पहले ही सफाई की थी आलमारी की, और तीन महीने बाद आकर देखा बिलकुल कुतरी हुई किताबें पड़ी है, हैरानी से किताबों की तरफ ताकती रह गई—कागज के टुकड़ों का अम्बार?

 इसी तरह प्रतिदिन की कितनी ही घटनाएँ हमें अचम्भे में डाल देती हैं, जिसका निचोड़ होता है अद्भुत रस अर्थात हैरानी। जलालुद्दीन रूमी कहते हैं हम सारे तर्क और ज्ञान एक तरफ बेच कर खरीदते हैं हैरानी” यानी वह रस जो कबीर की वाणी में अंतर्विरोध के रूप में प्रकट होता है। तर्क अब देखता नहीं है, सुनता नहीं, स्पर्श नहीं करता है, सिर्फ अभिभूत होकर रह जाता है।

एक अचम्भा देख्यौ रे भाई। ठाढ़ा सिंह चरावै गाई ॥
       जल की मछली तरुबर ब्याई। पकड़ि बिलाई मुरगै खाई।।

चरकसंहिता में रस को शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का स्रोत कहा गया है, जो पृथिवी, जल, तेज, आकाश और वायु पञ्चतत्त्वों की साम्यावस्था है, जिससे छः प्रकार के मूल रस —मधुर, तिक्त, कटु, कषाय, लवण और अम्ल ㄧरसनेन्द्रिय के विषय बनते है। लेकिन भारतीय कला चिन्तन में रस को सौंदर्य भावना की प्रतीति अर्थ में भी लिया जाता है। उदाहरण के लिए किसी कला को देख कर या पढ़कर हमें जो रसानुभूति होती है, वह विभिन्न मसालों से बने नाना व्यंजनों की तरह रसनेन्द्रिय ग्राह्य तो नहीं हो सकता, तो प्रश्न उठता है कि ये रसानुभूति कहाँ और कैसे होती है?  वस्तु में या द्रष्टा के चित्त में.

एक ओर आत्मवादी सौंदर्यबोध को चेतन प्रतीति के रूप में स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि में हमारी भावनात्मक प्रवृत्ति ही वस्तु में सौंदर्य का संचार करती है, जो व्यक्ति भेद से भिन्न भिन्न होने के कारण आत्मनिष्ठ ही होती हैं, अर्थात 'आत्मनः कामाय'। दूसरी ओर वस्तुवादी मानते हैं कि सौंदर्य मूलतः वस्तु में होता है। शब्दों का प्रयोग, रंगों का अनुपात, साधारण घटनाओं में वैचित्र्य-वैविध्य आदि के उचित संयोजन से वस्तु में सौन्दर्य की सृष्टि होती है। गुलाब और सूर्यास्त के सौन्दर्य को कौन नकार सकता है?

एक तीसरा समन्वयवादी दृष्टिकोण भी है, जो सौंदर्य को पदार्थ का गुण मानता है, परन्तु उसकी प्रतीति सिर्फ प्रमाता में स्वीकार करता है। इस तरह से सौंदर्य न तो पूर्णतः प्रमाता की चेतना में रहता है और न ही पदार्थ में। उसकी सत्ता वस्तुतः व्यक्ति और वस्तु के तनाव को दूर करके संतुलन स्थापित करती है, जिसे cognitive engagement of appreciation कह सकते है। पर सत्य यह है कि कलागत सौंदर्यबोध के लिए मनुष्य में अभिरुचि का होना आवश्यक है। जिस तरह मधुमक्खियाँ ही केवल फूलों की सुगंध को पहचान कर उसका रस निचोड़ सकती है, बाकी कीट पतंगों में यह क्षमता नहीं होती है। उसी तरह एक सहृदय पाठक या रसिक श्रोता ही कला के सौंदर्य को पहचानने में समर्थ होता है तथा काव्यकला का आनंद अपने हृदय में स्थित  स्थायी भावनाओं के उद्रेक से कर लेता हैं। दृष्टान्तस्वरूप  –

पूस मास सुनि सखिन संग साईं चलत सबार

लेकर बीन प्रवीन तिय गायो राग मल्हार.

पूस के महीने में प्रातःकाल पति का विदेश गमन सुन कर पत्नी वीणा पर राग मल्हार बजाने लगती है। कहा जाता है कि मल्हार राग बजाने से बरसा होती है, और बरसात में विदेश गमन की मनाही है। इस तरह पति को वह विदेश जाने से रोक लेती है। जैसे सूखे काठ में ईषत् अग्नि संयोग से ही अग्नि प्रज्वलित हो उठती है, उसी तरह उपर्युक्त व्यंजनार्थ सह्रदय  पाठक के सामने  सहज ही प्रकट हो जाता है।

यह भी कम दिलचस्प बात नहीं है कि ललित कला का उद्गम शिव की लीला सखी महामाया है, जो मूर्तिकला, स्थापत्यकला, चित्रकला, संगीतकला, नृत्यकला आदि की स्रष्टा मानी जाती है। सांसारिक गतिविधियों से उत्पन्न पीड़ा, क्रूरता, प्रेम, करुणादि से मुक्त होने की कोशिश शिल्पकला में रूपान्तरित होकर फूट पड़ती है। इस मानव-रचित-सौंदर्य को रमणीय, चारु, मनोरम, साधु, सुषमा, शोभा आदि शब्दों से भी अभिहित किया जाता है।

वास्तव में रस का मुख्य स्रोत वे स्थायीभाव है जो मानव मन में बीज रूप से निवास करते हैं, जिसकी अभिव्यक्ति रस रूप में होती है। जैसे रति, उत्साह, भय, क्रोध, जुगुप्सा, भयंकर, विस्मय, हास्य और शोक, जिन्हें जाग्रत करने का काम विभाव अर्थात वस्तु या परिस्थितियां होती है। उदाहरण के लिए सुदामा की दीन दशा देख कर श्रीकृष्ण का  स्थायी भाव शोक उद्बुद्ध हो जाता है, और वे द्रवित होकर रो पड़ते हैं। यहाँ सुदामा आलम्बन विभाव है। कृष्ण की आँखों से आँसू बहना अनुभाव है। इसके अलावा स्थायी भाव को उत्तेजित करने वाला उद्दीपन विभाव, यथा लक्ष्मण का परशुराम को ललकारना, व्यंग्य करना, मुस्कुराना उनके क्रोध को बढ़ावा देना है, जो आग में घी डालने का काम करता है। कम्पन, होठों का फडकना, आँखे लाल होना, मुट्ठी बांधना इत्यादि संचारी या व्यभिचारी भाव कहे जाते हैं.

साधारणतः रसों  की संख्या नौ कही जाती है। यथा ㄧ श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, अद्भुत, वात्सल्य, वीभत्स। दार्शनिक अक्सर इस बात पर बहस करते है कि रस का स्वरूप क्या होता है? वास्तव में रचनाकार अपने जीवन के अनुभवों का निचोड़ कृति के माध्यम से श्रोता, पाठक और दर्शक के सामने प्रस्तुत करता है। ऐसा करते समय वह जागतिक सम्बन्धों और व्यक्तिगत विघ्न बाधाओं से तटस्थ होकर अपनी अनुभूति को रचना का विषय बनाता है। अर्थात किसी विशेष आवेग ㄧश्रृंगार, हास्य, वीर आदि से स्वयं को एकात्म कर लेता है, जिसे हम तन्मयता कहते है। उदाहरण के लिए जब हम कहते है ‘यह व्यक्ति हँस रहा हैं’ तो उसके ‘हँसने की क्रिया’ से व्यक्ति का तादात्म्य हो जाता है, जिसे व्यक्ति से पृथक नहीं किया जा सकता है.। एक ओर तन्मयता और दूसरी ओर तटस्थता दोनों स्थितियाँ उसकी अनुभूति को अभिव्यक्त करने में समर्थ होती है। व्यक्तिगत सुख-दुःख रचना का आधार जरूर होता है, पर रस की उपलब्धि उससे निरपेक्ष होकर ही हो सकती है.

इसे एक उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है। किसी नाटक की प्रस्तुति में जो अभिनेता राम के चरित्र का अभिनय करता है, रसानुभूति का वह आधार होता है, दर्शक जो अभिनेता को भगवान राम का स्वरूप समझ बैठता है, वह भी राम-रस में डूबा रहता है, लेखक जो राम के चरित्र की रचना करता है वह भी रस से सराबोर रहता है, मंच सज्जा का संयोजन भी रस की अभिव्यक्ति में सहायक होता है। कहने का तात्पर्य है कि सभी अपनी अपनी परिस्थिति के अनुसार व्यक्तिगत बाधाओं से मुक्त होकर रस को आत्मसात करते है, और तभी नाटक की प्रस्तुति  सफल कही जा सकती है। अतएव यह एक ऐसी अनुभूति है जो व्यक्तिगत न होकर भी व्यक्ति को उपलब्ध होती है मंचस्थ नाटक में परशुराम के क्रोध के अभिनय को देख कर दर्शक को रसानुभूति होती है, पर दर्शक स्वयं जब किसी के प्रति क्रोधित होता है, तो वह रसात्मक नहीं होता है।        

इस तरह रस का आस्वाद्य है कला और आस्वादन है रस, जो प्रेक्षक के ह्रदय में  चमत्कार की अनुभूति (जिसे हम ऊपर अद्भुत रस कह चुके है) का आनंद देता है। लेकिन हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि अभिनेता हो या लेखक या दर्शक सभी उस पात्र की तरह होते है, जिसमें मदिरा तो रखी जाती है, पर उस पात्र को मदिरा का कोई स्वाद उपलब्ध नहीं होता है, फ़िलहाल वह तटस्थ रहता है। यह एक अद्भुत अनुभूति है, जो  योगियों की अनुभूति को भी मात दे देती है, जहाँ विषय का त्याग नहीं होता है, विषय आत्मरूप बन कर विलक्षण आनंद का उत्स बन जाता है।  

यह विलक्षण अनुभूति ज्ञान का विषय नहीं होती है, इसकी  सिर्फ प्रतीति होती है। समीक्षक के लिए यह ज्ञाप्य है पर दर्शक के लिए अनुभूति है। क्रोधावस्था में  हम होते है, उसे जानते नहीं है। जैसे ही जानते है, वह क्रोध नहीं रह जाता है। जबकि ज्ञान का विषय ज्ञात और अज्ञात दोनों अवस्थाओं में समान रूप से रह सकता है। जैसे घट की सत्ता हमारे ज्ञान की अपेक्षा नहीं करती हैं, अज्ञात और ज्ञात दोनों ही अवस्थाओं में  घट रहता है। पर क्रोध, प्रेम, करूणा आदि बिना प्रतीति के नहीं रह सकते। अतएव रस न अनुभव के पूर्वकाल में रहता है, न अनुभव के विनाश के बाद रहता है। रस ‘उत्पन्न नहीं होता हैं’, क्योंकि यह कार्य नहीं है, यह सिर्फ अभिव्यक्त होता है। कार्य तो कारण के न रहने पर भी रह सकता है, जैसे कुम्भकार के न रहने पर भी घट विद्यमान रहता है। किन्तु आनंद-रस चेतन सत्ता की अनुपस्थिति में नहीं रह सकता। रस, इस तरह  न परोक्ष अनुभूति है, और न ही प्रत्यक्ष अनुभूति है। क्योंकि एक ओर रस की प्रतीति साक्षात कही जाती है, दूसरी ओर यह शब्दादि द्वारा अनुभवजन्य होने के कारण परोक्ष कही जाती है। जीवन में शोक की अनुभूति से शोक उत्पन्न होता है, जबकि कला में शोक की अभिव्यक्ति आत्मसाक्षात्कार के द्वारा आनंद का रसास्वादन कराती है। यह अनिर्वचनीय अनुभूति न ही यथार्थ होती है और न ही अयथार्थ। यह अनहद रस है जो बिना आघात के अभिव्यक्त होता है।    

तो कहना न होगा कि कला एक वृक्ष है जिसका जन्म कलाकार के मानस में होता है, उसके फूल कला के उपादान होते है, और रसास्वादन रसिक दर्शक या पाठक को होता है। इस तरह  सारा जगत रस के सागर में  गोते लगाता दिखाई देता है।  

                                    ‘रसौ वै सः रस’ (तैत्तिरीय उपनिषद्)

डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance  प्रकाशित हुआ हुआ है।

 

 



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