‘यह है’ ㄧ ‘यह होना चाहिए’ : दर्शनशास्त्र की गुत्थियाँ
दर्शनशास्त्र को सुबोधगम्य बनाने के लिए डॉ मधु कपूर ने हमारे लिए और हमारे पाठकों के लिए अपनी यह 'कक्षा' जारी रखी हुई है। इस बार के लेख में आप जानेंगे कि ये 'चाहिए' क्या बला है? कहाँ से आता है ये 'चाहिए' और फिर ये नैतिक निष्कर्ष क्या होते हैं? कैसे पहुंचते हैं हम उन तक? आइए विचार करते हैं इस लेख के माध्यम से!
‘यह है’ ㄧ ‘यह होना चाहिए’ : दर्शनशास्त्र की गुत्थियाँ
डॉ मधु कपूर
‘मुझे पीओ’ और पीने के साथ ही साथ एलिस सिकुड-के छोटी हो जाती है, ‘केक को खाओ’ और खाने के साथ साथ ही वह लम्बी हो जाती है। एलिस रोने लगी और आंसुओं के सैलाब में तैरने लगी, जहाँ उसकी मुलाकात सैकड़ों अजीबोगरीब प्राणियों से होती है। इस विचित्र दुनिया में जहाँ सब कुछ तथाकथित वास्तविक दुनिया की व्यवस्था के विपरीत घट रहा है, अपने बनते-बिगड़ते स्वरूप को देखकर एलिस प्रश्न करती है ’मुझे किस रास्ते से जाना चाहिए, ऐसी परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए और मैं असल में कौन हूँ’? (एलिस इन वंडरलैंड’ से)।
हमारे सामने भी रह रहकर यही प्रश्न उपस्थित होता हैㄧ ‘हमें अच्छा क्यों होना चाहिए अथवा हम अच्छे कैसे हो सकते हैं ?’ ‘अच्छा होना’ क्या है ? तात्पर्य है कि हम अच्छा होना चाहते हैं। पर जानते नहीं हैं, कैसे अच्छे हो सकते हैं? ‘क्या है’ और ‘कैसा होना चाहिए,’ के बीच की खाई को कैसे पाटा जा सकता है?
शताब्दियों पुराना यह विवाद हैㄧ जो ‘नहीं है’ वह हो नहीं सकता, जैसे बालू से तेल नहीं निकाला जा सकता है, आम के पेड़ से जामुन नहीं तोड़ा जा सकता, गधे को घोड़ा नहीं बनाया जा सकता इत्यादि। इसी तरह ‘नीम को मीठा होना चाहिए’, ‘बिच्छू को काटना नहीं चाहिए’ आदि प्रयोग भी नहीं कर सकते हैं। ‘झूठ नहीं बोलना चाहिए’ और ‘सत्य बोलना चाहिए’ का अर्थ यह कदापि नहीं है कि अब कोई ‘झूठ नहीं बोलता है’ या ‘सभी लोग सत्य बोलते है। यह ‘है’ और ‘होना चाहिए’ हमें उलझन में डाल देता है।
आइये एक पल के लिए इस प्रश्न पर विचार करें कि ‘चाहिए’ कहाँ से आता हैं? हम जिस पृथ्वी पर रहते हैं, वह एक बेजान ब्रह्मांड में तैर रही है, जहाँ केवल पर्वत, चट्टानें, नालें, हवाएँ और बारिश है। अगर एक चट्टान पहाड़ी से लुढ़कती है, या नरभक्षी बाघ जंगल में रहता है, तो क्या इनके विरुद्ध कोई नैतिक कार्यवाई की जानी चाहिए ?
सवाल ये भी है कि जो तथ्य है, उसे बदला नहीं जा सकता है, जैसे ‘दो और दो मिलकर चार होते है,’ ‘पंडित नेहरु भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे’ इत्यादि। डेविड ह्यूम के अनुसार तथ्यमूलक वाक्यों से कभी भी, किसी भी नैतिक निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते है। तथ्यमूलक वाक्य और नैतिक वाक्य को परस्पर जोड़ना वैसा ही है जैसे सिरकटे धड़ की सिलाई करना। ओलिम्पिक पदक जीतने की इच्छा रखने वाला खिलाडी कमजोर पैरों से 20 फीट ऊँची छलांग नहीं लगा सकता है, तो उससे यह कहना कि ‘तुम्हें यह छलांग लगानी चाहिए’ बकवास होगा। इस तरह तथ्यात्मक ‘है’ वाक्य को ‘चाहिए’ के फ्रेम में नहीं बाँध सकते है और ‘चाहिए’ वाक्य को तथ्यात्मक ‘है’ के चौखटे में फिट नहीं कर सकते है।
‘क्या हैं’ और ‘कैसा होना चाहिए’ दो भिन्न प्रकार के प्रश्न है। यह भेद प्रकृति में कहीं नहीं है यह तो मनुष्यकृत भेद है, जो नैतिक द्वंद्व से उत्पन्न होता है। हम प्रतिदिन अनगिनत नैतिक निर्णय लेते हैं, जो तथ्य वाक्यों की सत्यता पर ही निर्भर करते है। उदाहरण के लिए तथ्यात्मक वाक्य ‘झूठ बोला जाता है.’ ‘चोरी की जाती है’, का नैतिक मूल्यांकन हम करते हैㄧ ‘झूठ नहीं बोलना चाहिए’, ‘चोरी नहीं करनी चाहिए’। यदि किसी व्यक्ति के लिए कहा जाए कि ‘यह रसोइया है’ तो उम्मीद की जाती है कि उसे खाना बनाना आना चाहिए। यदि कोई वादा करता है कि ‘मैं तुम्हारा उधार अगले महीने चुका दूंगा’ तो उसे उधार चुका देना चाहिए। मीठा खाने का लोभ मधुमेह के मरीज को खतरे में डाल सकता है, इसलिए लोभ को संयमित करना चाहिए। इस तरह बिना मूल्यांकन के तथ्य अपनी मर्यादा खो देते है।
अक्सर शर्त-सापेक्ष वाक्य ‘चाहिए’ पद से व्यक्त किये जाते है। जैसे ‘यदि परीक्षा में प्रथम श्रेणी पाना चाहते हो, तो नियमित पढना चाहिए’ अथवा ‘यदि बारिश से बचना चाहते हो, तो छाता प्रयोग करना चाहिए.’ हत्या करने के समय यदि कम मात्रा में जहर दिया जाता है, तो हत्या का मामला सफल नहीं होगा। ऐसी अवस्था में हत्यारा सोचता है कि ‘अधिक मात्रा में जहर देना चाहिए था.’ माएँ अक्सर बच्चे से कहती है ‘यदि तुम अच्छा बच्चा बनना चाहते हो तो तुम्हें जल्दी से दूध पी लेना चाहिए.’ शर्त-सापेक्ष वाक्यों की विशेषता यही है कि वे किसी न किसी उद्देश्य पालन का निर्देश देते है, जो नैतिकता का बोध नहीं भी करवा सकते है। फ़िलहाल इस लेख में ‘चाहिए’ शब्द का प्रयोग नैतिक अर्थ में ही किया जायेगा.
जर्मन दार्शनिक Immanuel Kant (1724-1804) इसके विपरीत कहते है कि नैतिक परिप्रेक्ष्य में ‘करता है’ और ‘करना चाहिए’ के बीच कोई अंतराल या खाई नहीं होती है, क्योंकि नीति का नियम है कि जो हमें करना चाहिए, वह हम कर सकते है। जो हमें नहीं करना चाहिए, वहां हम कह ही नहीं सकते कि ‘हमें करना चाहिए.’ जब कोई बीस फीट ऊँचा कूद नहीं सकता तो यह कहना बेकार है कि उसे पदक पाने के लिए बीस फीट कूदना चाहिए। उनके अनुसार नैतिक नियम विशुद्ध विवेक पर आधारित है, अतएव यदि कोई कहता है कि वह बीस फीट कूद सकता है तो उसे कूदना चाहिए। उनके अनुसार नैतिक वाक्य शर्त निरपेक्ष होते है.
इस सन्दर्भ में वैदिक ऋत की धारणा का उल्लेख करना प्रासंगिक हैं जिसका अर्थ है जगत की व्यवस्था और संतुलन करने वाला सिद्धांत। सूर्य, चन्द्रमा, तारे, दिन, रात आदि इसी नियम के द्वारा संचालित होते हैं। ऋत को ब्रह्मांडीय व्यवस्था की अंतहीन लय के रूप में देखा जाता है और समाज में यही नैतिक कानून के रूप में लागू होता है, जो जीवन को व्यवस्थित और नियमित करता है। कहने का तात्पर्य है कि ऋत की धारणा में ‘हैं’ (तथ्य) और ‘चाहिए’ (मूल्यांकन) में कोई व्यवधान नहीं है। ऋत का अर्थ है, जो होना चाहिए वही होता है। इसे किसी भी अर्थ में नियति के समकक्ष नहीं लिया जाना चाहिए। इस पर हम फिर कभी बात करेंगे।
मानवीय प्रसंग में ‘है’ और ‘चाहिए’ का द्वंद्व स्वाभाविक है, क्योंकि मनुष्य का अस्तित्व दैवीय नहीं है, वह केवल विवेक से संचालित नहीं होता है तथा वह पूर्ण रूप से पाशविक भी नहीं है, क्योंकि वह सिर्फ आवेग से नियंत्रित नहीं होता है। भावना और तर्क के द्वंद्व में वह फंसा रहता है। अतएव उसके नैतिक चरित्र की उत्कृष्टता द्वंद्व से उबरने की है, जो सद्गुणों के अभ्यास पर निर्भर करता है।
ग्रीक दार्शनिक अरस्तू के अनुसार ‘है’ और ‘चाहिए’ के बीच की खाई को पाटा जा सकता है। अच्छा क्या है, इस प्रसंग में वे अच्छी वस्तुओं की कोई सूची इकठ्ठा नहीं करते है, जैसे ㄧअच्छी दोस्ती, अच्छा स्वास्थ्य, अच्छा यश और अच्छा साहस का प्रदर्शन इत्यादि। उनकी खोज सर्वोच्च अच्छाई की खोज है। इसी तरह सत्य कब बोलना चाहिए? इसकी वे तालिका नहीं बनाते है। हम कब अच्छे होते है, इसका कोई पैमाना नहीं है। कुछ अपवादों को छोड़ कर व्यक्ति मानक स्वयं खोज लेता है। किन्तु मानक वह क्षैतिज रेखा है जहाँ हम पहुँच नहीं सकते है, पर पहुँचने की कोशिश करते रहते है। अरस्तू इस मानक को दो चरम सीमाओं के बीच की स्थिति को मानते है। उदाहरण के लिए, साहस दिखलाना सद्गुण है लेकिन जहाँ साहस दिखलाना खतरे से खाली न हो वहां साहस दिखलाना वेबकूफी है, अर्थात कायरता और उतावलेपन के बीच के मार्ग को अपनाना ही साहस है। कभी-कभी केवल थोड़ी मात्रा में क्रोध करना उचित होता है, लेकिन अन्य समय परिस्थितियाँ बहुत अधिक क्रोध की माँग करती हैं।
आत्म-विश्वास का अर्थ अहंकार और आत्म-हीनता के मध्य की स्थिति में ठहरना है। अरस्तू इस मध्य-मार्ग (golden mean) की नीति को अपनाते है। यद्यपि यह सांख्यिकी औसत (statistical mean) की तर्ज़ पर निर्णय लेने का सुझाव देता है, पर चूँकि हर व्यक्ति की परिस्थिति अलग अलग होती है, इसलिए इस अंतर्दृष्टि का अभ्यास अत्यन्त जटिल प्रक्रिया है। एक अच्छा शिल्पकार जैसे अपनी कलाकृति में संतुलन, अनुपात और सामंजस्य स्थापित कर, निरंतर अभ्यास से सुन्दर सृजन करता है, उसी तरह सद्गुणी व्यक्ति अपनी अंतर्दृष्टि के द्वारा नैतिक निर्णय की सूक्ष्मताओं को पहचानकर निर्णय लेता है। हालाँकि ऐसा कोई किताबी नियम नहीं है। अरस्तू का नीति सिद्धांत eudaimonia, (happiness) की खोज है, जो साधारण ख़ुशी से पृथक एक अद्भुत संतुष्टि प्रदान करने वाला होता है। इसका सम्बन्ध वे kalon—पद से जोड़ते है जिसका अर्थ होता है ‘मर्यादित’ और ‘सुन्दर’ जो नैतिकता को नई ऊँचाइयां प्रदान करता है.
पहले भी इस मत के ही समान आधुनिक अस्तित्ववादी दार्शनिकों का उल्लेख किया जा चुका है। मानव अस्तित्व स्वयं एक कलाकृति है जिसे हम नैतिक कर्तव्य बोध और मूल्यों से गूंथते है। किसी याचक को दरवाजे पर धक्का देकर बासी रोटी का टुकड़ा फेंक देना या नचिकेता के पिता के द्वारा बूढी। पीली, दुर्बल तथा दुग्ध देने में अक्षम गायों का दान करना, एक विकृत मनोवृत्ति का प्रदर्शन है। ‘दान देना’ व्यक्ति को महत नहीं बनाता है, ‘दान देने की प्रक्रिया’ व्यक्ति को महत बनाती है, यद्यपि इसकी कोई सीमा नहीं है।
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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance प्रकाशित हुआ है।