अच्छा बनने की कठिनाइयाँ - दर्शनशास्त्र की दुविधाएं

डॉ मधु कपूर | अध्यात्म-एवं-दर्शन | Apr 15, 2025 | 180

डॉ मधु कपूर के इस लेख में आप उन दुविधाओं पर भी चर्चा देखेंगे जिनसे आप अपने जीवन में शायद कभी न कभी रु-ब-रु हुए होंगे, मसलन कभी-कभी तो हम यहाँ तक सोचते हैं कि मुझे अच्छा क्यों बनना है। या फिर यह कि किन परिस्थितियों में झूठ बोलना स्वीकार्य होगा। फिर इस लेख में ऐसे मुद्दे भी चर्चा में आते हैं कि जैसे जीवन मूल्य क्या होते हैं। उत्तर भी मिलता है कि मूल्य वह मान्यताएँ है जो हमें टूटने नहीं देती, चाहें कितने ही दुर्दिन क्यों न झेलने पडें। बहरहाल, अभी हम आपको बिना विलंब के लेख प्रस्तुत कर रहे हैं। 

अच्छा बनने की कठिनाइयाँ !

डॉ मधु कपूर 

मनुष्य स्वाभाविक रूप से अच्छाई की तलाश करता है और बुराई से बचने की कोशिश करता है। प्रश्न है कि हमें अच्छा क्यों होना चाहिए? हम कैसे अच्छे बन सकते हैं या फिर अच्छा व्यक्ति होना क्या है? यह  चर्चा अत्यन्त  गहरी और जटिल है। सबसे अधिक कठिनाई तब उपस्थित होती है जब हम अच्छे बनना चाहते हुए भी अच्छे नहीं बन पाते हैं। ‘अच्छा’ शब्द यद्यपि बहु-अर्थीय है, फ़िलहाल इसे हम नैतिक मूल्यों से जोड़ कर ही देखेंगे। गुरुचरण दास (Gurcharan Das) अपनी पुस्तक “The Difficulty Of Being Good” में उल्लेख करते  है कि महाभारत के करीब-करीब सभी पात्र अच्छा बनने की कोशिश में विफल हो जाते है। दुर्योधन तो साफ साफ कहता है, अच्छा बनने की इच्छा होने पर भी मेरी प्रवृत्ति नहीं होती है, बुराई से छूटने की इच्छा होने पर भी उससे निवृत्ति नहीं होती है।     

यूँ तो संपूर्ण प्राणी जगत सुख की खोज में ही जीवन की सार्थकता  को देखता  है। पर कभी कभी  ऐसा समय आता है जब सब कुछ निरर्थक लगने लगता है। पशुओं के लिए यद्यपि यह कोई समस्या नहीं है क्योंकि वे प्राकृतिक आवास में ही संतुष्ट हो जाते है। समस्या उत्पन्न होती है मनुष्य के साथ जिसमें विवेक और इच्छा का एक अजीब द्वंद्व चलता रहता है। कभी तर्क की अति से और कभी भाव की अति से वह जीवन मूल्यों से खिसक जाता है और उसे एहसास होता है कि इस जीवन का कोई मूल्य नहीं है। 

हमारे पास सिर्फ दो ही चश्मे नहीं होते है देखने के ㄧ अच्छाई और बुराई, सत्य और मिथ्या, काला और सफ़ेद। इन दोनों के बाहर या बीच कई अन्य विकल्प भी होते है, जिसे अक्सर नज़रन्दाज कर दिया जाता है। किसी मटमैले रंग की तलाश! उदाहरण के लिए बाज़ार में तमाम चीजे है, कुछ समझ नहीं आता क्या खरीदें और क्या न खरीदें। रेस्टोरेंट में आर्डर करते समय समझ में नहीं आता क्या आर्डर करें और क्या न करें, कपड़े खरीदने के वक्त भूल जाते हैं कि पॉकेट की कितनी क्षमता है! कब झूठ बोलना चाहिए कब नहीं! हमें अहिंसक होना चाहिए कि नहीं ! हमें रास्ते में पड़े किसी अजनबी की सहायता करनी चाहिए कि नहीं! कितने असहाय लोगों की मदद की जानी चाहिए! अन्याय का प्रतिवाद करने में कहीं अपनी जान ही न गंवानी पड़े! परिस्थितियां जब अजीब हो तो हम कैसे सच बोल सकते है! जब प्राण रक्षा करना अनिवार्य हो जाए तो हम कितना लचीला बना सकते है स्वयं को! जब अधर्म सामने खड़ा हो तो हम उसका सामना कैसे करें?  इसी असमंजस और उधेड़बुन में व्यर्थता का आभास होने लगता है। हमारे पास या तो कोई मानक नहीं है अथवा हम पुराने मानकों को मानना नहीं चाहते है। यह प्रश्न कोई नया नहीं है। महाभारत युग से ही कट्टर नैतिकता के विपरीत एक गतिशील नैतिकता को सिर उठाते देखा गया था। द्रौपदी जब युद्धिष्ठर से पूछती है ‘किसको पहले दांव पर लगाया था मुझे या स्वयं को?  कृष्ण, अर्जुन, कुंती, धृतराष्ट्र सभी इन नैतिक  प्रश्नों के दायरे से छूटते नहीं है। कौन सा मार्ग उपयुक्त है? 

एक ओर नैतिक निरपेक्षता कहती है, ‘चोरी करना गलत है’, ‘सत्य बोलना हर परिस्थिति में उचित है’, जो गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत की तरह सार्वभौमिक सत्य है। क्या हम चाहेंगे ‘चोरी करना’ तार्किक रूप से एक सार्वभौमिक नियम बन जाए ? मान लिया जाए एक  हत्यारा मुझे पकड़ने के लिए दौड़ रहा है, और मैं सामने पड़ी कार को चुराकर भाग सकती हूँ, पर नैतिकता का सिद्धांत मुझे ऐसा करने से रोकता है। ठीक उसी समय बन्दूक की गोली मेरे सिर को चीरकर निकल जाती है। अब मैं एक अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी हूं। डॉक्टर ने सी टी स्कैन किया और एक बड़ा ट्यूमर पाया और अब मैं बंदूक चलाने वाले को धन्यवाद देती हूँ, जिसने मुझे खतरे से बचा लिया। किन्तु मैं इन नैतिक प्रश्नों को हल करने में अपनी असमर्थता से अभी भी परेशान हूँ। 

नैतिकता मानव-मूल्यों की वह व्यवस्था है जो हमारी जीवनशैली को नियंत्रित कर हमें ‘लक्ष्य तक ले जाती’ है। मूल्य ‘प्रतिमान या कसौटी’ है, जिसके आधार पर हम अपने कार्यों का, उचित-अनुचित विचार करते हैं। यूँ नीतियाँ तो कई है, जैसे चन्दन-नीति,  कोई काटे या जलाये, उसका काम है  खुशबू देना। ‘जैसे को तैसा’ कोई काटे तो उसे भी काटना ही चाहिए ㄧ ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहिए। लेकिन यदि कोई अपना प्रिय हो या राजनैतिक प्रसंग हो तो साम-दाम-दण्ड-भेद की कूटनीति अपनानी चाहिए। अब यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम किसे प्राथमिकता देना चाहेंगे। उदाहरण के लिए, मूल्यों के टकराव में  ईमानदारी को महत्व देने वाला व्यक्ति अपने वरिष्ठ द्वारा वित्तीय घोटाला करने पर चुप नहीं रह पाता है, जबकि दूसरा जो वफ़ादारी को महत्व देता है, वह चुप रह जाता है। एक अन्य समय मित्र को नुकसान पहुँचाने के लिए यदि कोई अपराधी दरवाज़ा खटखटा कर मित्र का ठिकाना पूछता है तो जाहिर है झूठ बोलना पड़ता है। 

मूल्य वह मान्यताएँ है जो हमें टूटने नहीं देती, चाहें कितने ही दुर्दिन क्यों न झेलने पडें। एक धावक जो दुर्घटना में अपने पैरों को खो देता है, उसे भी अपने स्वास्थ्य की देखभाल अपने मूल्यों पर करनी पड़ती है। वह अपने जीवन में अन्य तरीकों से अर्थ को खोजने की चेष्टा करता है। मानव समाज की रचना ही पाशविक वृतियों का परित्याग कर शिवत्व की प्रतिष्ठा के लिए हुई है, अन्यथा पशु समाज क्या बुरा है! साहित्य का अर्थ  भी ‘सहितस्य भाव समुदाय’ लोकहित की नैतिकता से जुड़ा है, जो कर्तव्य- भावना से प्रेरित होता है, भले ही परिणाम अच्छे न हों। कोई एकान्त में रह कर नैतिकता का पालन नहीं कर सकता। शास्त्रों के अनुसार भी नैतिक द्वंद्व उपस्थित होने पर यदि कहीं भी आस्था का पड़ाव न मिले तो जो खुद को अच्छा लगे वही करना चाहिए। यहाँ ‘खुद को अच्छा लगने का’ अर्थ स्वेच्छाचार न होकर, अन्त:करण की पवित्रता से है। इस तरह नैतिकता का स्वरूप बहुत सूक्ष्म और विचित्र होता है, जो विवाद का विषय भी बन जाता है। दृष्टान्त स्वरूप जब कोई बड़ा संकट सिर पर हो, तो अपनी या दूसरों की प्राण-रक्षा के लिए नैतिकपथ से थोड़ा हटना भी उचित माना जाता है।  अकाल के समय भूख से बिलबिलाते हुए उषस्ति चाक्रायण ऋषि ने एक हाथीवान से जूठी उड़द खाना स्वीकार किया, लेकिन जूठा पानी पीना मंजूर नहीं किया, क्योंकि तब तक वे अपने प्राणों की रक्षा कर चुके थे। इसी तरह गुप्तचर आदि भी विषम परिस्थिति में झूठ बोल सकते है।  ये सब नैतिक अपवाद आपत्धर्म कहलाते है।  महाभारत युद्ध में, पाण्डवों को हार की कगार पर देख कर युधिष्ठिर ने अश्वत्थामा के विषय में झूठ बोलना स्वीकार किया।  

हम यह नैतिकता की बहकी बहकी बातें क्यों करने लगे जबकि बात तो कला की करनी थी। कारण है कला का मूल्यांकन नैतिक दृष्टिकोण से भी किया जा सकता है। पंचतंत्र की कहानियां हमें परोक्ष रूप से नैतिक संवेदनशीलता को विकसित करने की क्षमता देती है। कलाकृतियों के नैतिक रवैये की आलोचना करने पर भी हम किसी कलाकृति की कलात्मक खूबियों की प्रशंसा कर सकते हैं, उदाहरण के लिए, एक व्यंगात्मक कार्टून या उक्ति  किसी नेता के सम्बन्ध में नैतिक रूप से कुत्सित हो सकती  है, पर लोगों को सचेतन करने के उद्देश्य से सफल कही जा सकती है। कला और नैतिकता के बीच यह सम्बन्ध दार्शनिक शोध का एक खुला क्षेत्र है। एक कथा में इसका रहस्य छिपा है। 

एक दिन एक व्यक्ति ने  गुरु से पूछा, ‘जीवन का मूल्य क्या है?' गुरु ने उसे एक पत्थर देकर कहा इसका मूल्य बाज़ार में जाकर पता करो, लेकिन इसको बेचना नहीं।' वह व्यक्ति  पत्थर लेकर  एक संतरे बेचने वाले के पास,  सब्जी वाले के पास, सुनार के पास और जौहरी के पास लेकर पहुंचा और उसकी कीमत पूछी। उत्तर में कोई संतरा, कोई आलू, कोई ५० लाख तक देने को तैयार था। अंत में  जौहरी ने जब उस बेशकीमती रुबी को देखा तो पहले उसने रुबी को एक  लाल कपड़े पर रखा , फिर उसकी परिक्रमा लगाई, और बोला,  ये बेशकीमती रुबी सारी दुनिया को बेचकर भी इसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती।' वह व्यक्ति हैरान-परेशान, पर गुरु कृपा से समझ गया कि व्यक्ति की  सोच ही निर्धारित कर देती है कि जीवन को कितना बेशकीमती बनाया जा सकता है। हमें यह तय करना होता है कि मूल्यों में जब  टकराहट हो तो हमारे लिए कौन सा मूल्य सबसे ज़्यादा मायने रखता है।  मूल्यों को जीने का कोई एक निर्धारित तरीका नहीं है। ख़ाली जेब वाला फ़कीर बारिश में झूमकर नाच सकता है, लेकिन जिसकी जेब में रुपया भरा हुआ हो, उसकी प्राथमिकता होती है जेब में भरे रुपए को भीगने से बचाना! प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक Immanuel Kant के शब्दों में ㄧ 

“What is relative to (our)… need has a market price: what accords with a certain taste… has a fancy price; but that which …is an end in itself, having no relative value (that is, unconditional) is, Dignity”।  

डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक मेला में रिलीज़ हुआ है।



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