प्रकृति को बचाने के लिए नए आर्थिक मॉडल की आवश्यकता
कुछ ही दिन में गांधी जी की पुण्यतिथि (30 जनवरी) है जब उन्हें रस्मी तौर पर ही स्मरण किया जाता है। फिर जब हमें दीपक धोलकिया जी का यह लेख प्राप्त हुआ तो हमें लगा कि कुछ लोग अभी भी गांधी के बताए रास्ते को गंभीरता से लेते हैं और गांधी द्वारा बताए गए आर्थिक मॉडल में उनकी आशाएँ अभी भी टिकी हैं। प्रस्तुत है दीपक जी का यह लेख जिसमें वह गांधी के बताए रास्ते से प्रकृति के संरक्षण में प्रकृतिजीवियों की भूमिका, विकेंद्रित अर्थव्यवस्था और वैकल्पिक राजनीति की बात करते हैं।
प्रकृति को बचाने के लिए नए आर्थिक मॉडल की आवश्यकता
दीपक धोलकिया
महात्मा गांधी ने जब कहा कि “The world has enough for everyone's needs, but not enough for everyone's greed” (दुनिया में सब की ज़रुरत को पूरा करने के लिए काफ़ी है, लेकिन लालच को संतुष्ट करने के लिए काफ़ी नहीं है) तब इस कथन की गहराई को किसी ने समझा नहीं। अगर समझा होता और इसका मन्तव्य ठीक से समझ में आया होता तो आज दुनिया जिस पर्यावरणीय संकट का सामना कर रही है, वह नहीं करना पड़ता। गांधीजी ने उपभोग की संस्कृति का पर्दाफाश कर दिया था लेकिन दुनिया ने इसे समझा ही नहीं।
हमारे देश में तो त्याग का महिमा मंडन होता रहा है, इसलिए हमने भी इसे एक कान से सुना और ‘संतवाणी’ मान कर दूसरे कान से निकाल दिया। लेकिन ये शब्द एक भविष्यदृष्टा अर्थनीतिकार के थे जिनका केवल अर्थशास्त्र से नहीं बल्कि जीवन के अर्थशास्त्र से संबंध था। यह अलग बात है कि गांधीजी को कभी भी अर्थशास्त्री के रूप में नहीं देखा गया। ज़ाहिर है, किसी शास्त्र को कभी मानवीय जीवन की वास्तविकताओं के साथ जोड़ा नहीं जाता। गांधी का अर्थशास्त्र मानव-सापेक्ष है।
गांधीजी की बात न सुनने की सज़ा आज हम भुगत रहे हैं या यूँ कहें कि पर्यावरणीय विनाश के कगार पर खड़ी दुनिया को कल जाने क्या-क्या भुगतना होगा। आज दुनिया में पर्यावरण के संकट के लिए हमारी सरकारों की उपभोक्तावादी, पूँजीवादी नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं। दशकों से सिर्फ भारत की ही नहीं, दुनिया की सभी सरकारें, पूँजीवादी व्यवस्था के तहत चल रही हैं। इससे प्रकृति का अकूत नुकसान हुआ है और आज यह विश्वव्यापी समस्या बन चुका है।
इन नीतियों का सभी पर बुरा असर पड़ता है। यहाँ तक कि अब तो ऋतुएं अनिश्चित होने लगी हैं, बारिश का पैटर्न बदल रहा है और इसका असर खेती पर दिखने लगा है। दूसरी ओर पूँजीवादियों की माँग पर जंगल बर्बाद हो रहे हैं। जंगल से खनिज तो निकाला जाएगा जो राष्ट्र की संपत्ति है, लेकिन वन में न जाने कब से बसे हुए आदिवासियों का उस पर अधिकार नहीं है। चारागाहों को उद्योग और खनन के लिए सौंप दिया जाता है। कभी सैंकड़ों की संख्या में भेड़-बकरियाँ, गाय-भैंस, ऊँट, याक रखने वाले पशुपालक आज कच्छ के रण से हिमालय तक के प्रदेश में चारागाहों की कमी के कारण अपना पशुधन बेचने के लिए मजबूर हो रहे हैं।
अब बड़ी मशीनें वहाँ धुँआँ उगलती हैं। यह केवल धुँआँ नहीं हैं, जानलेवा बीमारियाँ हैं। आज हज़ारों गाँवों का जीवन, उनकी नदियां, उनके पनि के अन्य स्रोत फ्लाईऍश, धूल, मिट्टी से सन गया है। एक दिन हमारे दुधारु पशु हमें चिडिय़ाघरों में ही देखने को मिलेंगे या स्कूली किताबों में छपी तसवीरों में। एक दिन आएगा कि हम दूध भी आयात कर के पिएंगे और भेड़-बकरियों से मिलने वाले कुदरती ऊन की बातें किसी क़िस्सागो से ही सुनने को मिलेंगी।
नदियों में व्यापार की सुविधा के लिए जलमार्ग बनाए जा रहे हैं, व्यापारी बड़े-बड़े ट्रौलर लेकर आते हैं और सारी मछलियाँ बटोर कर ले जाते हैं। इससे मछलियों का वंशनाश होने लगा है क्योंकि पारंपरिक छोटे मछुआरे शिशु मछलियों को प्रजनन की क्षमता की आयु तक पहुँचने देते हैं लेकिन बड़े जहाज़ों के जालों से किसी का बचना मुमकिन नही है। इतना ही नहीं, तटों के आरक्षित क्षेत्रों का विस्तार आधा कर दिया गया है और वहाँ होटल बनने लगे हैं। छोटे मछुआरे के लिए मछली पकड़ने के बाद उस पर संस्करण प्रक्रिया करने के लिए जगह भी नही बचती है।
आदिवासियों की बात करें तो आज़ाद भारत की सरकारों ने अंग्रेज़ी शासन से मिली वन विभाग की विरासत को न केवल अच्छी तरह संभाला है बल्कि उसका संवर्धन कर के और पुख़्ता बनाया है। अब वन विभाग को इतनी सत्ता दी गई है कि वन विभाग वन का मालिक है और वन में रहने वाले आदिवासी, अन्य निवासी और वन से बेदखल जैसे हो गए हैं।
एक ओर से पर्यावरण का संकट गहराता जाता है और दूसरी ओर से पूँजीवादी नीतियाँ थमने का नाम नहीं ले रहीं। किसान, मछुआरे, आदिवासी, पशुपालक प्राथमिक उत्पादक हैं, जो प्रकृतिजीवी हैं। प्रकृति के संकट के लिए ये समुदाय ज़िम्मेदार नहीं है, लेकिन इसका खामियाजा केवल ये ही लोग भुगतते हैं। सरकारी नीतियों का सबसे बुरा प्रभाव प्रकृतिजीवी समुदायों और प्राकृतिक सामग्री का इस्तेमाल करने वाले, कुम्हार, बुनकर जैसे कई कारीगरों पर पड़ता है। कुल मिलाकर, वे 60 करोड़ से अधिक हैं, मतलब कि हमारी आधी से अधिक आबादी इन्हीं लोगों की है।
देश में 14.6 करोड़ छोटे और सीमांत किसान, 14.4 करोड़ खेतीहर मजदूर (उनमें बड़ी संख्या दलितों की है), 27.5 करोड़ आदिवासी, अन्य वननिवासी और वनोपजीवी लोग, 2.8 करोड़ मछुआरे, 1.3 करोड़ पशुपालक और 1.7 करोड़ कारीगर हैं जो सीधे तौर पर प्रकृति के साथ और प्रकृति के भरोसे काम कर रहे हैं। लगभग 6 करोड़ मौसमी मजदूर हैं जो काम की खोज में लगातार अपने गांव से बाहर जाते हैं और लौटते हैं। वे अपनी आजीविका के लिए काम करते हैं, न कि मुनाफ़ा कमाने के लिए। वे प्रकृति को बचाते हैं, उसकी पूजा करते हैं। प्रकृति के वे संरक्षक और सैनिक हैं, प्रकृति उनकी पालनहार है। लेकिन वे गाँव और शहर के बीच भटकते रहने वाले प्रवासी मजदूर बन गये हैं। इस आधी आबादी के लिए किसी भी राजनीतिक दल के पास कोई कार्यक्रम नहीं है। इस पर्यावरणीय संकट के कारण समय आ गया है कि किसी भी संवेदनशील और ज़िम्मेवार राजनीतिक कार्यकर्ता के एजेंडा पर प्रकृतिजीवी समुदाय होना ही चाहिए। ऐसे सभी लोगों को अपने-अपने राजनीतिक दलों के इसके लिए मजबूर करना चाहिए कि उनकी नीतियाँ एवं कार्यक्रम प्रकृतिजीवी लोगों के अनुकूल हों।
अगर पर्यावरणीय संकट से ऊबरना है तो प्रकृति के संकट को राजनीति के नज़रिए से देखना होगा । हमें देखना होगा कि क्या हमारी आर्थिक व्यवस्था और उसके लिए चलने वाली राजनीतिक व्यवस्था प्रकृति को बचाने के लिए सक्षम या इच्छुक है? हमें अब प्रकृतिजीवी समुदायों को केन्द्र में रख कर नीतियाँ बनानी होगी। हम मध्यवर्गीय लोग मुख्य रूप से उपभोक्ता हैं। हम कैसे प्रकृति को बचाएंगे? प्रकृति को बचाना व्यक्तिगत मुद्दा नहीं है कि हमने एक पौधा लगा दिया और प्रकृति को बचा लिया। इतने से नहीं चलेगा। देश को चलाने की नीतियों में बल्कि यूं कहें कि विश्व भर की नीतियों में बदलाव ज़रूरी है। आज के आर्थिक मॉडल की जगह नई तरह का मॉडल अपनाना होगा जिसमें पारिस्थितकीय संतुलन बनाना अनिवार्य हो ताकि हम आसन्न पर्यावरणीय संकट से जूझ सकें। क्या हम इसके लिए तैयार हैं?
प्रकृति को केन्द्रीकरण पसंद नहीं है। वह हर जगह एक-सी नहीं होती। दो पहाड़, दो नदियाँ , दो जंगल एक-समान नहीं होते। उनके पेड़-पौधे, जीव-जंतु अलग होते हैं, इतना ही नहीं, वहाँ बसे हुए लोगों की संस्कृति भी अलग होती है। इस लिए प्राकृतिक संसाधनों की कोई एक नीति या एक केन्द्रीकृत व्यवस्था नहीं चल सकती है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था स्वभावतः एकाधिकारवादी है और वह असमानता की नींव पर ही खड़ी होती है। इस व्यवस्था में ग़रीबी और बेरोज़गारी अनिवार्य है। इसलिए हमें विकेन्द्रित अर्थ व्यवस्था लागू करनी होगी।
रास्ता तो जे. सी. कुमारप्पा, जिन्हें ‘गांधी का अर्थशास्त्री’ होने की पहचान मिली है, ने बताया है कि कैसे हम प्रकृति से जुड़े रह कर विकास भी कर सकते हैं। या तो याद करें शूमाकर को, जिन्होंने अपनी छोटी-सी पुस्तक Small is Beautiful लिख कर बड़े पैमाने पर उत्पादन की अर्थव्यवस्था को चुनौती दी है।
इस नई आर्थिक प्रणाली को व्यवहार में लागू करने के लिए चाहे नए कानून बनाने पड़े या मौजूदा कानूनों में सुधार करना पड़े, सब करना चाहिए। सरकारों को नागरिकों के प्रति जवाबदेह बनाए बिना प्रकृति को बचाया नहीं जा सकेगा। प्रकृतिजीवी समुदायों – किसानों, मछुआरे, आदिवासी और अन्य वन-निवासी तथा पशुपालकों – इन सभी को एक राजनैतिक शक्ति बनना होगा। ‘प्रकृतिजीवी समुदाय’ के रूप में अपनी नई अस्मिता को स्थापित करना होगा।
सही काम ग्रामसभाओं से शुरु होगा क्योंकि प्रकृतिजीवी लोग गाँवों में ही बसते हैं। इन समुदायों का सदस्य ग्राम सभा का भी सदस्य होता है। इसलिए, इनके लिए काम करना है तो गांधी के बताये रास्ते पर चल कर ग्रामसभाओं को भी सशक्त बनाना होगा। ग्लोबल वॉर्मिंग हमारी आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था की देन है। इसका मुक़ाबला भी नई आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था से ही किया जा सकता है। ऐसा नहीं होगा कि हम उपभोगवादी नीतियाँ चालू रखें और पर्यावरण के संकट का भी हल ढूँढने में कामयाब हो जाएं। इससे कम जो भी होगा, वह केवल अपना दिल बहलाने का खेल होगा। यह समझ ही वैकल्पिक राजनीति है।
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दीपक धोलकिया (निवृत्त समाचार-वाचक, आकाशवाणी, दिल्ली)
संपर्कः 98188 48753 ईमेलः dipak.dholakia@gmail.com