किसी और की कहानी में धंसे, धागों में बंधे पुतले
डॉ मधु कपूर गंभीर दार्शनिक विषयों पर इस वेबपत्रिका के लिए अब पिछले एक लम्बे अरसे से लिख रही हैं. उनके अधिकांश लेख आप अध्यात्म एवं दर्शन नाम की केटेगरी में देख सकते हैं. इस बार उन्होंने विषयांतर करते हुए पुतलों पर एक लेख लिखा है जिसे हमने ‘विविध’ केटेगरी में रखा है. आइये देखें कि उन्होंने पुतलों में कैसे जान डाली है.
किसी और की कहानी में धंसे, धागों में बंधे पुतले
डॉ मधु कपूर
हम अपने आस-पास रोजाना ना जाने कितनी चीजों को देखते हैं। इनमें से कुछ पर ध्यान दे पाते हैं और बाकी कुछ उपेक्षित रह जाती हैं। अब यही देखिये न, पूना आये चार दिन हो गये पर बाज़ार जाने का मौका ही नहीं मिला। आज पहली बार आने का मौका मिला और देखकर भौचक्की! कपड़ों की दुकानों पर 8-10 की कतार में आदमकद साइज़ की मैनिक्विन (mannequins). कहीं कहीं तो पूरा का पूरा मेनिक्विन का परिवार हाथ पकडे खड़ा है, बाकायदा दुकान से बाहर आने के लिए. कहीं झुण्ड के झुण्ड खड़े है, तरह तरह की विवाह की पोशाकों में. गौर से देखे तो इनके चेहरे ज्यादातर भावरहित, निरपेक्ष तथा एकदम सपाट. हिंदी में तो इसे हम पुतला कहते है, जो पुत्तलिका शब्द का अपभ्रंश है और अर्थ है मिट्टी या लकड़ी से निर्मित प्रतिकृति. पर फाइबर, लोहा, सोना, बर्फ (स्नोमैन) इत्यादि के पुतले भी अत्यधिक मात्रा में उपलब्ध होते है. रामायण और महाभारत में भी सोने की सीता तथा धृतराष्ट्र के सामने लोहे के भीम के पुतले का दृष्टान्त हमारी याददाश्त को ताजा कर देते हैं.
मैनिक्विन फ्रांसीसी शब्द है जो डच शब्द मैनकिन (manneken) से आया है जिसका अर्थ है ‘छोटा आदमी'. चूँकि महिलाओं के कपड़ों का विज्ञापन लड़कों के द्वारा किया जाता था तथा फ्रांसीसी उच्चारण के कारण पुतले का भाषाई रूप पुल्लिंग होने के बावजूद स्त्रीलिंग 'मैनिक्विन' में बदल गया. इनका उपयोग दुकानों पर सजावट और विज्ञापन के तहत खरीद-फरोख्त की वृद्धि के लिए होने लगा पर अपना पुतला! वह तो लापता व्यक्तियों के अंतिम संस्कार तथा राजनैतिक नेताओं के कटआउट के रूप में भी प्रयुक्त होता है. ब्राह्म समाज और आर्य समाज के प्रतिष्ठाताओं ने हिन्दू देव-देवियों के पुतलों की प्रथा को ख़ारिज करने की नाकाम कोशिश की. वास्तव में पुतलों के साथ हमारा रिश्ता मजबूत और परम आत्मीयता का होता है. बच्चे अपने गुड्डे-गुड़ियों के टूट-फूट जाने पर इतने दुखी हो जाते कि वे कई कई दिनों तक खाना-पीना भी छोड़ देते हैं.असल में हमारी जिन्दगी में कुछ कमियों को दूर करने के लिए इनका प्रवेश अनायास ही हो जाता है. सुना है जापान के शिकोकू टापू पर स्थित गांव नागोरो को पुतलों का गाँव कहा जाता है, जहाँ सिर्फ ३० लोग और ३०० पुतले रहते है । गाँव खाली हो जाने की अवस्था में, लोगों को अकेलापन महसूस होने लगा तो वे यहाँ पुतलों के साथ थोड़ा वक्त गुजार लेते हैं. अकेलापन आधुनिक युग की सबसे खतरनाक बीमारी है. पश्चिम बंगाल के नवद्वीप जिले में स्थित पुतुल-पाड़ा तो पर्यटन का केंद्र है ।
यूँ तो पुतले बनाना एक प्रकार की कला है जो भिन्न भिन्न संस्कृतियों में भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रयोग में लाई जाती है. ईरान की पुलिस ने दुकानदारों को सावधान किया है कि वे दुकानों के बाहर नुमाइशी महिलाओं के पुतलों को बिना हिजाब के न रखें। वैसे तो इनका उल्लेख पाणिनी के अष्टाध्यायी के नटसूत्र में पुतला नामक नायक के रूप में मिलता है। पर मुझे इसकी कोई खास जानकारी उपलब्ध नहीं है,और इस समय थोड़ा व्यस्त भी हूँ, क्योंकि गली के सामने पुतला फूंका जा रहा है । ऐसे राजनीतिक अनुष्ठान तो सड़कों और चौराहों की शोभा है । जब जी करे, कागज-फूस, लकड़ी इकट्ठा करो, पुतले बनाओ और आग के हवाले कर दो । यह तो हैप्पी बर्थडे का हंसते- मुस्कराते केक काटने का क्रियाकर्म है ! हाथ में कैमरा लेकर गाजे बाजे के साथ दहन क्रिया संपन्न हो जाती है। देखते ही देखते व्हाटसअप में पोस्ट हो जाती है । दशहरा आया, चलो, रावण का पुतला ही फूंका जाए। असली रावणों को तो पकड़ना नामुमकिन है और जलानाㅡतौबा तौबा!
पुतले के नाम से याद आया लन्दन का मैडम तुसाद म्यूजियम, जिसको देखने का टिकट 22 पौंड था एक समय । वैसे यह म्यूजियम देखने की मुझे कोई ललक नहीं थी, क्योंकि चारो तरफ इतने पुतले घूमते रहते है कि किसे देखूँ और किसे न देखूँ, चुनाव करना मुश्किल हो जाता है. लो! इस्कोन के कार्यालय में घुसते ही मुझे चक्कर आने लगा ㅡक्या यह ‘सच्चীमुच्चী’ के प्रभुपाद है ! वैसे धोखा खाना भी आजकल एक आध्यात्मिक लक्षण हो चुका है । गांधी जी के तीन बंदरों की राजनीतिविदों ने जो छिछालेदर कीㄧ न तो जनहित की सुनते हैं, न देखते हैं और न बोलते ही हैं । इनमें एक बंदर की बढ़ोतरी हो गई, जो सिर पर हाथ रखकर जनहित के बारे में सोचता भी नहीं है।
धार्मिक प्रथाएं भी अजब-गजब की है । बंगाल में दुर्गा पूजा के समय देवी के पुतले में जब प्राण प्रतिष्ठा हो जाती है, तो उन्हें मूर्ति कहा जाने लगता है । विसर्जन के पहले देवी को सजा-संवार कर उनका चेहरा आईने में दिखा दिया जाता है और विसर्जन मन्त्र के बाद वह प्राणहीन पुतले में बदल जाती है । बामियान की मूर्ति हो या मुजीब की मूर्ति हो उनका तोड़ना यह एहसास दिलाता है कि उनके साथ हमारा रागात्मक सम्बन्ध होता है, अन्यथा उन्हें तोड़ने का कोई औचित्य नहीं होता.
अक्सर बड़ों को कहते सुना था ‘पुतलों की तरह खड़ी मत रहो, जल्दी जल्दी काम समेटो’ - बेचारे पुतले! मिट्टी के माधो नहीं होते है, वे तो अक्ल के पुतले है,अन्यथा प्रथम विश्व युद्ध में खाइयों में भी पुतलों का इस्तेमाल किया गया. चिकित्सा विज्ञान में मानव-शरीर को मॉडल के रूप में व्यवहार किया जाता है. परमाणु हथियारों के परीक्षणों में तथा अपशकुन को रोकने के लिए भी इनका सहारा लिया जाता है. ये पुतले (बिजुका) ही खेतों में फसल की रक्षा करने के लिये खड़े रहते है. बचपन में माँ आकाश की तरफ अंगुली उठा कर चाँद नहीं दिखाती थी, चुड़ैल दिखाती थी. पुतला बाँस में बाँधकर निंदा करना या कंजूस कहकर गालियाँ देने का भी चलन हैं. इस संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास का यह कथन श्रोतव्य है— तौ तुलसी पूतरा बाँधि है ।
खबर है कि काफी हाउस में एक काफी-प्रेमी किसी से टकराया वह माफ़ी मांगने जा ही रहा था कि उसने देखा यह तो पुतला है, वह मुड़ा और उपेक्षा के भाव से जाने लगा. पुतले ने पकड़ लिया और कहा ‘महाशय मैं एक programmed entity हूँ मुझे भी चोट लगती है. कृपा करके क्षमा मांगे मुझे यही सिखाया गया है’. इस तरह पुतले अपने आवेगों का इज़हार भी करते हैं.
‘द ट्वीलाईट जोन’, ‘द आफ्टर आवर’ जैसे सीरियल में मेनिक्विन वास्तव जीवन में उपस्थिति का एहसास दिलाते है । ‘डाक्टर हू’ तथा ‘स्पीयरहेड फ्राम स्पेस’ में एक चतुर मेनिक्विन ऑटोन्स नामक प्लास्टिक पुतलों के साथ पृथ्वी पर कब्ज़ा करने का प्रयास करता है. और तो और रोमांटिक कॉमेडी फिल्म ‘मैनिक्विन’ में एक विंडो ड्रेसर को पुतले से प्यार हो जाता है।
बचपन में हम बहनें भी सूक्ष्म वातावरणीय तरंगों के माध्यम से मोमबत्ती जलाकर पुतली विद्या का प्रयोग करते थे परीक्षाफल जानने के लिए लेकिन उसका प्रभाव कुछ ऐसा उल्टा हुआ कि अंग्रजी और गणित में अक्सर फेल हो जाते थे, ऊपर से धमकी सुननी पड़ती ‘पढाई लिखाई छोड़ो, चूल्हा-चौका झोंको'.
मौर्य साम्राज्य महाराज चंद्रगुप्त के राजदरबार में एक सौदागर तीन ऐसे पुतले लेकर हाज़िर हुआ जो देखने में एक जैसे पर उनका दाम क्रमशः एक लाख मोहरें, एक हज़ार मोहरें और केवल एक मोहर. सभासद इस गुत्थी को सुलझाने में असमर्थ. महामंत्री चाणक्य आगे आए उन्होंने पहले पुतले के कान में तिनका डाला. तिनका सीधे पेट में चला गया। थोड़ी देर बाद पुतले के होंठ हिले और बंद हो गए. फिर दूसरे पुतले के कान में तिनका डाला. तिनका कान से बाहर आ गया और पुतला ज्यों का त्यों खड़ा रहा। तीसरे पुतले के कान में ज्योंही तिनका डाला, तिनका मुँह से बाहर आ गया है और पुतले का मुँह बराबर हिलता रहा. इसका रहस्य! बुद्धिमान व्यक्ति सदा सुनी-सुनाई बातों को जाँच करने के बाद ही अपना मुँह खोलता हैं. स्वयं में मग्न रहने वाला व्यक्ति एक कान से सुनता है दूसरे से निकाल देता है । तीसरा पुतला दिलचस्प ? कान का कच्चा, पेट का हल्का । कोई भी बात सुनी नहीं कि बस मुँह खोल भड़-भड़ करता रहता है । ‘सिंहासन बत्तीसी’ में विक्रमादित्य के सिंहासन की बत्तीस पुतलियों के बारे में कौन बच्चा नहीं जानता.
चलते चलते राजस्थान की परंपरागत कठपुतलियां, जो एक अत्यंत प्राचीन लोकनाट्य शैली है, कर्नाटक की धागा पुतली (गोम्बेयेट्टा) जिसका सम्बन्ध यक्षगान से, ओडिशा की छाया पुतली, केरल की पावाकूथू, पश्चिमी बंगाल की छड़ पुतली (पुत्तलनाच) जिसका जात्रापाला से काफी साम्य है, उत्तर प्रदेश की दस्ताना पुतली आदि का उल्लेख भी आवश्यक है। लेखन, नाट्य, वेशभूषा, रूप-सज्जा, संगीत, नृत्य और काष्ठकला आदि का एक अद्भुत समन्वय, जिनके द्वारा जीवन के विविध प्रसंगों की अभिव्यक्ति हास्य-व्यंग्य के माध्यम से मंचन की जाती है. इनका संचालन पर्दे के पीछे खड़ा अदृश्य सूत्रधार यानी धागों से खेल करता है. प्राचीन हिन्दू भारतीय दार्शनिक पुतलकारों को सर्वशक्तिमान विधाता और पूरे ब्रह्माण्ड को एक पुत्तल मंच मानते थे. धागे सत्, रज और तमोगुण के प्रतीक है, जो पूरे विश्व को कठपुतली की भांति नचाते हैं ।
पुतला बनाने वाले कारीगरों का कहना है कि अब पुतले बनाने में न तो पहले जैसा मुनाफा है और न ही वैसी मांग है। मै इस बात से सहमत नहीं हूँ, क्योंकि अब पुतले बनाने की जरूरत नहीं रह गई, क्योंकि हम सभी धागे में बँधे खुद पुतलियां है, जिसे एकमात्र विधाता ही जानता है, कैसे नचाना है. लेकिन यदि कभी धागे उलझ गये तो, कौन जाने, उसका भी भट्ठा बैठ जाएगा !
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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance प्रकाशित हुआ है।