बढ़ती उम्र और दीपाली शर्मा 'डीज़' की अन्य कविताएं
डॉ दीपाली शर्मा 'डीज़' ने फिर से कुछ कविताएं भेजी हैं। एक बार हमने अपनी संपादकीय टिप्पणी में कहा था कि डीज़ की कविताएं अपना रास्ता तलाशती लग रही हैं। यह कहना मुश्किल है कि उनकी तलाश पूरी हो गई है। यह भी लग रहा है कि तलाश पूरी ना होना भी शायद उन्हें 'क्रिएटिव' बनाए रखेगा। उनकी पिछली कविताएं आप सबसे ऊपर जहां उनका नाम लिखा है, उस पर क्लिक करके देख सकते हैं। इस बार की इन तीन छोटी-छोटी कविताओं को आप अलग-अलग कैटेगरी में रख सकते हैं। इन कविताओं को पढ़कर हम इतना तो अंदाज़ लगा सकते हैं कि इस कवि में कविता अभी खूब बाकी है। आइए पढिए और हम इंतज़ार करेंगे कविताओं की अगली खेप का जो हम आप तक पहुंचा सकें।
बढ़ती उम्र
कभी बातों की मोहताज थीं बातें
अब खामोशियों में ही बात हो जाती हैं
कभी दिन साथ बिता के आता था सुकूँ
अब दूर की एक ही नज़र सुकूँ दे जाती है
कभी मिल के ही हाल जानना पड़ता था
अब तुम्हारी तरफ़ की हवा हाल बता जाती है
या तो ये मेरी बढ़ती उम्र का है तकाजा
या तो ये मोहब्बत गहरी हुई चली जाती है
बादल
तपती हुई गर्मी में
बारिश के बादल यूँ छा गए
मानो दिन की थकान के बाद
तारे मुझे नींद सुलाने आ गए
मानो इक अरसे बाद यूँ ही
पुराने दोस्त चाय पे आ गए
मानो भीड़ में अकेले इंसान को
अपने कहीं दूर से नज़र आ गए
और मानो ढलती हुई शाम में
तुम मुझसे मिलने आ गए
गाँव
गाँव को शहर बनने की होड़
शहर को बड़े शहर बनने की
बड़े शहर को महानगर बनने की
और महानगर को और बड़ा बनने की ..
गाँव से महानगर के इस सफ़र में
खो गए हम शहरी रह-बसर में
क्यों ना शहर में एक गाँव बसायें
अपनों को ढूँढ के ले आयें
चूल्हा हो साँझा और साँझा हो दुख
इसमें ही ढूंढे खोया सुकूँ खोया सुख
पड़ोस में जाने में हिचक ना हो
मिलने-जुलने में झिझक ना हो
ग़म एक का हो तो सब मिल के रोयें
ख़ुशी में भी साथ ही आखें भिगोयें
चलो अपनों को ढूँड लायें
और शहर में एक गांव बसायें
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डॉ. दीपाली शर्मा श्री गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज, दिल्ली यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र विभाग में एसोसियेट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं। करियर के तौर पर अर्थशास्त्र को अपनाने के बावजूद उनका साहित्यिक रुझान हमेशा ही बना रहा। स्वयं उनके शब्दों में, “मैं सिर्फ़ अपने मन में उमड़ते-घुमड़ते विचारों को कविता में पिरो देती हूं, बिना यह चिंता किये कि वो तयशुदा साहित्यिक मानदंडों पर खरी उतरती हैं या नहीं हैं! मेरी कविताएं अगर कुछ सहृदय पाठकों के मन को भी छू जाती हैं तो यह मेरे लिए बहुत संतोष की बात होगी।"