उत्तराखंड का पर्यावरण और विकास से जुड़े सवाल

| पर्यावरण | Jun 03, 2022 | 278

आखिरी पन्ना

आखिरी पन्ना उत्तरांचल पत्रिका के लिए लिखा जाने वाला एक नियमित स्तम्भ है। यह लेख पत्रिका के जूम 2022 अंक के लिए लिखा गया।

उत्तराखंड के पर्यावरण की चिंता कोई नई तो नहीं है और अक्सर हमने देखा है कि तमाम तरह के बहस-मुबाहिसों के बावजूद नतीजे कुछ खास निकलते नहीं बल्कि स्थितियाँ अक्सर और भी खराब होती जाती हैं। पूरी पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन के काले बादल मंडरा रहे हैं और मनुष्य जाति की बढ़ती लापरवाहियों को अगर तुरंत ना रोका गया तो आंशिक प्रलय जैसे विनाशकारी नतीजे जिनकी परिकल्पना वैज्ञानिक बरसों से कर रहे हैं, अब अनुमानित समय से पहले ही घटित होने लगेंगे। ऐसे में इस स्तंभकार को जब पता चला कि उत्तरांचल पत्रिका का जून अंक पर्यावरण पर केन्द्रित होगा तो मन को कुछ संतोष हुआ और इस स्तंभकार ने भी तय किया कि इस बार अपने इस स्तम्भ मेँ हम सामाजिक या राजनीतिक विषयों पर चर्चा की बजाय पर्यावरणीय विषयों पर ही फोकस करेंगे।

हालांकि उपरोक्त वाक्य लिखते ही हमें एहसास हो रहा है कि सिर्फ उत्तराखंड की ही नहीं बल्कि विश्व भर की पर्यावरणीय परिस्थितियाँ नितांत दोषपूर्ण राजनीतिक निर्णयों का ही नतीजा हैं। ये हो सकता है कि शुरू के वर्षों में शायद ये दोषपूर्ण नीतियाँ अनजाने में ही बनी हों लेकिन आगे चलकर जब ये बिलकुल स्पष्ट हो गया था कि प्रकृति के साथ किया गया कोई भी लालच प्रकृति द्वारा अनदेखा नहीं किया जाएगा और उसके कोई ना कोई दुष्परिणाम तो सामने आएंगे ही, उसके बावजूद विश्व भर के आर्थिक एवं राजनैतिक नीति-नियामकों ने कोई चिंता नहीं की और बिलकुल बेरोक-टोक ऐसी नीतियाँ बनाते चले गए जैसे कल तो कभी आना ही नहीं – इसलिए जितना दोहना है, आज ही दोह लो।

वैसे ऐसा नहीं है कि इस प्रकार के अंधाधुंध दोहन के विरुद्ध सिर्फ पिछले कुछ दशकों से ही आवाज़ें उठी हैं – विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों और समुदायों में प्रकृति के साथ तादात्म्य बना कर ही जीवन-यापन करने की परंपरा रही है लेकिन करीब ढाई सौ-तीन सौ बरस पहले शुरू हुई औद्योगिक क्रांति ने पहले यूरोप और अमरीका में और फिर धीरे-धीरे पूरे विश्व में मुनाफे की संस्कृति को इतना वैधता प्रदान कर दी कि दूसरी सब आवाज़ें दब कर रह गईं। महात्मा गांधी द्वारा वर्ष 1909 में लिखी गई ‘हिन्द स्वराज’ में इसे ‘राक्षसी सभ्यता’ कहा गया था। एक तरह से यह बहुत ही महत्वपूर्ण वक्तव्य था किंतु उस समय उनकी इन बातों पर बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया गया। आज जितना भी नहीं। जब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में अपने सत्याग्रह के प्रयोगों के ज़रिये वहाँ की नस्लवादी नीतियों के खिलाफ सफल संघर्ष किया और बाद में उन्हीं प्रयोगों को भारत के स्वतन्त्रता आंदोलन में दोहराना शुरू किया तो कुछ लोगों का ध्यान ‘हिन्द स्वराज’ की ओर भी गया किन्तु अधिकांशतः लोगों ने उसमें कही बातों को अव्यावहारिक  मानकर उन्हें उस समय भी कोई विशेष महत्व नहीं दिया। इस स्तंभकार का मशवरा है कि इस छोटी सी पुस्तिका को नई पीढ़ी के लोगों को और नीति-नियामकों को ज़रूर एक बार पढ़ लेना चाहिए।  इसलिए कि इसमें पश्चिमी सभ्यता की मूल प्रस्थापनाओं को ही गंभीर चुनौती दी गई है और आधुनिकता के प्रगति एवं विकास के दावों पर प्रश्न-चिन्ह लगाया गया है। ऐसे मेँ आने वाले वर्षों में दुनिया को हिन्द स्वराज से भी दिशा लेनी पड़ सकती है, चाहे आज वह कितनी भी अव्यवहारिक क्यों ना लगे।

उत्तराखंड पर वापिस आयें तो कहना होगा कि हमारा राज्य केवल अपने नहीं बल्कि पूरे देश और व्यापक अर्थों में पूरी दुनिया के लालच का शिकार हुआ है। उत्तराखंड से दशकों तक जो पेड़ों और पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई होती रही और एक तरह से अभी वो क्रम रुका नहीं है, वह हमारे राज्य के लोगों के विकास के लिए नहीं है बल्कि वह तो विकास के इस नए मॉडल में जल-जंगल-ज़मीन और खनिज की जो राक्षसी भूख बढ़ जाती है, उस क्षुधा को शांत करने के लिए है। हिमालय के जो ग्लेशियर पिघल रहे हैं, वो उत्तराखंड और ऐसे राज्यों की गलती के कारण नहीं पिघल रहे जहां हिमालय स्थित है बल्कि उसी राक्षसी सभ्यता के कारण पिघल रहे हैं जिसके अनन्त लालच का ज़िक्र हम बार-बार कर रहे हैं। यह बात सही है कि पिछले कुछ दशकों में उत्तराखंड में ‘यात्रा-टूरिज़्म’ विकसित करते-करते हमने अपने राज्य में हमने बहुत ज़्यादा अनियमित और अनाप-शनाप निर्माण कर लिए हैं। पानी कि धारे जो हमारे गावों की शान होते थे, कुछ तो पिघले ग्लेशियरों के कारण सूख गए तो कुछ पहाड़ और जंगल काटने के कारण नहीं बचे। मई से अक्तूबर के महीनों मेँ यात्रा तो हमारे पहाड़ों में सैंकड़ों सालों से चल रही है लेकिन उसका पवित्र और धार्मिक स्वरूप कब का विद्रूप हो चुका है और ये यात्रा पैसे वाले लोगों की दासी हो गई है। अगर ये बात सही है कि यात्रा से बहुत सारे हमारे प्रदेशवासियों को रोजगार मिलता है तो वहीं ये भी सही है कि यात्रा के वर्तमान  स्वरूप से पहले भी हमारे लोग उस पुराने स्वरूप में भी अपनी अर्थव्यवस्था चला ही रहे थे। उस समय के उत्तराखंड के बच्चे यहीं के स्कूलों में पढ़ लिखकर फिर उच्च शिक्षा के लिए बाहर भी जाते थे रहे हैं और अच्छी नौकरियाँ भी पाते रहे हैं। कुल मिलाकर यह कि पिछले दो-तीन दशकों मेँ पनपे इन हजारों होटलों ने या शराब माफिया ने हमारे प्रदेशवासियों को ऐसा कुछ नहीं दिया जिस पर हम गर्व कर सकें।

इस स्तंभकार की राय में अब हमारी नई पीढ़ियों को दो स्तरों पर सोचना शुरू करना होगा – एक तो अपने समुदाय के स्तर पर कि हम अपने आस-पास, अपने गाँव या कस्बे में, किस तरह का विकास चाहते हैं। समुदायों को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनका प्रकृति से पूरा तादात्म्य हो अर्थात समुदाय के मनुष्य उपलब्ध संसाधनों को केवल अपने लिए ही ना झटक लें बल्कि देखें कि उनके पानी के स्रोत, उनके पड़ोसी पेड़-पौधे, उनके जानवर (पालतू एवं आवारा), उनके एरिया के पक्षी इत्यादि सभी अपने हिस्से का पा रहे हैं। सभी गावों और समुदायों को अपने गोचर सुरक्षित करने चाहिएं और यदि उनपर कोई अवैध कब्जा हो चुका है तो उससे मुक्त करवाने के लिए दबाव बनाना चाहिए। सोचने का दूसरा स्तर वैश्विक एवं राष्ट्रीय होना होगा यानि ‘ह्यूमन रेस’ को विकास के मॉडल पर पुनर्विचार करना चाहिए। इस स्तंभकार को उम्मीद है कि इस गहन सवाल पर ना केवल इस अंक में विचार किया गया होगा और बल्कि आने वाले अंकों में यह चर्चा जारी रहनी चाहिए।

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विद्या भूषण अरोरा 



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