सत्य की धुंध में न्याय का डगमगाता साया
इस लेख का उद्देश्य पाठकों के समक्ष यह तर्क सामने लाना है कि जिसे हम तथाकथित न्याय कहते हैं, वह क्षितिज रेखा की तरह क़ानूनी शिकंजे में पड़ कर दूर होता चला जाता है, जिसकी दुर्गति न्याय की देवी की तरह ही होती है जो सत्य को मुकुट पहनाने की इच्छा रखने के बावजूद असमर्थ होती है। इसके अलावा लोभ, क्रूरता,दीर्घसूत्री बहसें और दलीलें तो हैं ही ।
सत्य की धुंध में न्याय का डगमगाता साया
डॉ. मधु कपूर
‘अंधा कानून’ फिल्म का एक गीत हैं ㄧ ‘अस्मतें लुटीं, चली गोली, इसने आंख नहीं खोली...’। अन्याय के खिलाफ सुनवाई न होने पर दुनिया का हर इंसान अदालत में न्याय की गुहार लगाता है और न मिलने पर अक्सर लोग इन पंक्तियों को दोहराते हैं कि ‘कानून अंधा होता है’ । कानून के तहत ही सुकरात को विषपान करने के लिए मजबूर किया गया था । इस तरह अन्याय के चलते न्याय की देवी की आँखों में काली पट्टी बाँध दी गई और कानून को व्यंग्य से अँधा कहा जाने लगा । हो सकता है न्याय की दुर्दशा देखकर न्याय की देवी ने खुद ही शर्म से आँखों पर काली पट्टी बाँध ली हो । देवी के एक हाथ में तराजू है पर इसका एक पलड़ा धन और क्षमता की बोरियों से भारी होकर साधारण जनता के न्यायविचार को पैरों तले कुचल रहा है । कहा तो यह भी जाता है कि कानून के हाथ लम्बे होते है, लेकिन उन हाथों की उँगलियों ने भी रुपये और सत्ता को इस कदर दबोच रखा है कि उँगलियाँ भी अवश हो जाती है ।
लेकिन १५वीं शताब्दी के अंत में ‘आँखों में पट्टी ‘औपनिवेशिक प्रभाव के फलस्वरूप निष्पक्षता के अर्थ में व्यवहार किया जाने लगा जो आज तक प्रचलित है । आँखों में पट्टी बाँध कर न्याय की देवी अपराधी की जाति, ओहदा, और पार्टी के रंग से बेखबर रहती हुई बिना किसी भेदभाव के विवादों का हल करती है । उसके एक हाथ में तराजू जो पक्ष-विपक्ष के सबूतों के आधार पर न्याय को तौले जाने का प्रतीक है। हालाँकि, सबूत की कमी के कारण कई बार फैसले गलत भी हो जाते है । देवी के दूसरे हाथ में तलवार है जो सत्य और शक्ति का प्रतीक कहा जाता है तथा पोशाक यूनानी-रोमन राजशाही वंश की है।
इन सबके विपरीत हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला लिया कि न्याय की देवी की आंखों से काली पट्टी हटा दी जाए । देवी के हाथ में तलवार की जगह संविधान की प्रति पकड़ाई जाए, क्योंकि न्याय हिंसा से नहीं संविधान के नियमों के अनुसार होता है । वैसे भी भारतीय संस्कृति में यम न्याय के देवता है और उनकी आँखें न सिर्फ़ बेहतर है बल्कि उन्हें हिसाब किताब का बहीखाता तक देखना पड़ता है ।
अब तक अंधे कानून की त्रासदी न्याय की देवी देख नहीं पाती थीं, लेकिन अब वह खुली आंखों से सब देखेंगी। उम्मीद की जा सकती हैं कि उनकी संवेदना जागेगी । स्मरण हो कि महाभारत में गांधारी ने तत्कालीन युग की प्रथानुसार पतिव्रता बनकर अपनी आँखों में पट्टी बाँध ली थी। किन्तु शंका होती है कि यदि वह ऐसा नहीं करती तो शायद धृतराष्ट्र को अंध पुत्र मोह से बचा सकती थी ।
पर यह आपत्ति भी निराधार नहीं है कि मूर्ति की आंखों से पट्टी हटा देने भर से क्या कानूनी प्रक्रिया पर कोई असर पड़ने वाला है? क्योंकि आये दिन हम सुनते है उच्च पदस्थ अधिकारी तथ्यों को अर्द्धसत्य तथा विकृत सत्य के रूप में पेशकर लोगों को विभ्रांत कर देते है । एक ओर कानून की धज्जियां उड़ाते है, दूसरी ओर सत्य को भी धुंधला कर देते है । दलीलों और तारीखों के बोझ तले न्याय भी कुचला दबा पड़ा रहता है। हरिशंकर परसाई की एक कहानी हैㄧ
“एक बार नर्क के लोगों ने दीवार तोड़कर स्वर्ग पर कब्जा कर लिया। धर्मराज की अदालत में लंबा मुकदमा चला और नर्क वालों ने मुकदमा जीत लिया। कारण—सारे अच्छे वकील नर्क में थे”। न्याय वकीलों की बाजीगरी ही तो होती है ।
न्यायविचार का सीधा-सादा अर्थ है ㄧ जिसका जो हक़ हैं उसे वह मिले । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, उसे मनमानी कार्रवाई करने की कोई गुंजाइश नहीं होती है । उनके आपसी हितों में टकराव होना भी लाजिमी है । उदाहरण के लिए हम प्रतिदिन जोर से माइक चलाकर आसपास रहने वाले लोगो को परेशान नहीं कर सकते हैं, बिना ट्रैफिक नियम के गाड़ी नहीं चला सकते हैं, अपने घर का कूड़ा पड़ोसी के दरवाज़े पर नहीं फेंक सकते हैं। ऐसा करना ही परस्पर विवादों को जन्म देता है । विवाद और संघर्ष को सुलझाने के लिए न्यायायिक प्रशासन की आवश्यकता पड़ती है, जिसका मुख्य कार्य सभी व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करना, समाज में कानून और व्यवस्था को बनाए रखना तथा विवादों का निर्णय करना होता है।
इस प्रसंग में Hart और Fuller के सिद्धांत का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा । हार्ट के अनुसार कानून का नीति से कोई वास्ता नहीं है, न्याय हमेशा कानून के अनुसार ही होना चाहिए । जैसाकि पहले भी कहा जा चुका है ‘आसमान टूट जाए पर कानून को विचलित नहीं होना चाहिए’ । आत्मीय स्वजनों के प्रति अर्जुन की मानविक दुर्बलता को दरकिनार कर महाभारत में श्रीकृष्ण अर्जुन को अन्याय के विरुद्ध युद्ध करने की ओर प्रवृत्त करते है । आँखे खुली होने पर कम से कम मानवीय दुर्बलताएं तो सामने आ जाती है और न्याय कानून के अनुसार निर्णय देने में समर्थ हो सकता है ।
दूसरी तरफ फुलर कहते है न्याय-विचार नीति के अनुकूल होना चाहिए. परिस्थितियों के अनुसार कानून में बदलाव आना चाहिए तथा कोई भी कानून तब तक वैध नहीं हो सकता, जब तक वह नीति की देहलीज़ को पार नहीं करता है । किसी जरूरी काम से निकलते वक्त रास्ते में यदि कोई आकस्मिक दुर्घटना घट जाए तो हम दुविधा में पड़ जाते है क्या करें? काम छोड़ कर उस व्यक्ति को अस्पताल ले जाए या उसे वहीँ छोड़कर अपने काम पर निकल जाए ! दोनों ही अवस्था में हम स्वयं को ग्लानि से मुक्त नहीं कर सकते हैं। ऐसे द्वंद्व हमारे सामने हरदम उपस्थित होते है और हम अपनी सामर्थ्य और जरूरत के हिसाब से समाधान भी करते हैं। मानवीय नियति शायद इसी को कहते है जिससे कोई निज़ात नहीं है। भगवती चरण वर्मा का कथन शायद युक्तिसंगत जान पड़ता है ㄧ हम न पाप करते है न पुण्य करते है हम वही करते है जो हमें करना पड़ता है (‘चित्रलेखा’ उपन्यास से).
इस तरह कानून हो या नैतिकता दोनों का उद्देश्य न्याय दिलवाना होता है। न्याय के अभाव में राज्य तथा समाज का ढाँचा ही नष्ट हो जाता है । न्याय को इसलिए द्विमुखी कहा जाता है, जो कभी विधिसम्मत होने की और कभी नैतिकता की दुहाई देता है । कुछ दृष्टान्तों पर गौर करना आवश्यक है यथा ㄧ
एक फिल्म निर्माता पहले शो के सारे टिकट खुद खरीद कर हाउसफुल का बोर्ड लगवा देते है, यह कोई क़ानूनी जुर्म नहीं है, किन्तु उन्हीं टिकटों की काला बाजारी करना अपराध है। चिकित्सक अक्सर दुविधा में पड़ जाते है एक ही आक्सीजन सिलिंडर होने पर बच्चे को बचाया जाय या वृद्ध को ?
प्रश्न हो सकता है बांसुरी पर किसका हक़ है? जो बजा सकता है ? या जो उत्पादन करता है? या जो बांसुरी का व्यवसाय करता है? जिसने बनाई है वह बजाना नहीं जानता है, जिसने बनबाई है उसे भी बजाना नहीं आता तो बांसुरी किसके हाथ में होनी चाहिए? प्रश्न अधूरा जरूर है पर न्याय की दृष्टि से सशक्त है जो अधिकारी को खोजता है।
न्याय कैसे किया जाता है इसका कोई गाणितिक फार्मूला नहीं है । फाइनल परीक्षा छोड़ कर भी जो दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को अस्पताल पहुंचाता है, उसका कार्य प्रशंसनीय होता है, किन्तु वह परीक्षा में पास नहीं हो सकता । नानावती केस शायद लोगों को आज भी याद दिलाता है कि सामाजिक दवाब के कारण नेवी ऑफिसर को किस प्रकार मृत्यु दंड से बचाया गया था । गुजरात हाई कोर्ट का निर्णय आता है कि पक्षियों को ‘उड़ने देना’ उनके प्रति प्राकृतिक न्याय की पुकार है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में न्यायाधीश को अक्सर धर्माधिकारी कहा जाता है क्योंकि न्याय धर्म का ही स्वरूप होता है। यह धर्म कोई संप्रदायगत नहीं बल्कि न्याय-विचार है। वकील न्याय नहीं करता वह तो अपने पक्ष में सिर्फ तर्क उपस्थित करता है। न्यायाधीश दोनों तरफ के विचारों को सुनकर, आँख खोलकर तौलने की कोशिश करता है और सत्य को जान कर ही अपनी अद्भुत अंतर्दृष्टि से परखकर निरपेक्ष फैसले की तरफ आगे बढ़ता है । किन्तु ऐसा कब होता है? तीस-चालीस साल के पश्चात् यदि किसी अपराधी को सजा मिलती भी है अथवा अपराधी निरपराध बरी भी हो जाता है, तो क्या इस हास्यास्पद विचार को न्याय कहा जा सकता है ㄧ ‘का बरसा जब कृषि सुखाने, समय चूकि पुनि का पछताने’ ।
एक गरीब रिक्शा वाला गहनों का बॉक्स खोज कर वापस कर जाता है और एक उच्च पदस्थ अधिकारी जो लाखों में कमाता है, लोगों के करोड़ों रुपये हड़पने में हिचकता नहीं है ।
यह तय करना मानव-जाति के लिए हमेशा से एक पहेली रहा है कि न्याय का ठीक-ठीक अर्थ क्या होना चाहिए । लगभग हर युग में समय और परिस्थिति के अनुसार न्याय की व्याख्या बदलती रहती है, फिर भी न्याय की कोई आम समझ आज तक उपलब्ध नहीं है और इसके लिए कोई अनूठी किताब या पाठ भी नहीं है । न्याय का विचार उन मूल्यों और सिद्धांतों पर आधारित है जो मानव स्वभाव में अंतर्निहित हैं । संभवतः इसलिए महाभारत का कवि कहता है न्याय का मर्म कोई नहीं भेद सकता है ㄧ धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम ।
“The allegory of Justice” A Painting by Giorgio Vasari (1543)
१५४३ में बने इस चित्र को ध्यान से देखें किस तरह न्याय की देवी अर्द्धनग्न (अर्द्धसत्य) अवस्था में चित्रित है, जो सत्य को मुकुट पहनाना चाहती है पर असमर्थ है । सत्य के हाथ में दो निर्दोष पक्षी है । न्याय की देवी चारों तरफ से घिरी हुई है—कानून की किताब से, समय से जो सत्य की ठुड्डी पकड़ कर सराहता है कि समय आने पर सत्य प्रकट होगा । न्याय की कमर से लटक रही सात जंजीरें जो बुराइयों की प्रतीक है । भ्रष्टाचार में लिप्त वृद्ध धन संपत्ति को ललचाई निगाह से देख रहा है । भय और धोखे के चेहरे पक्षी के नीचे से झांक रहे है जो सत्य के बोझ तले दबा हुआ है । न्याय के दाहिने पैर के नीचे हरी और लाल किताब है जो सामाजिक और क़ानूनी संस्थाओं का प्रतीक है इत्यादि ।

डॉ. मधु कपूर
डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance प्रकाशित हुआ है।