एचएमटी किडज़ (KIDZ) ऑफ इंडिया
देश में 1989 के आम चुनावों से भारतीय राजनीति को एक नई दिशा मिली थी। 1977 की गैर-कांग्रेसी सरकार आपातकालीन स्थिति की विशेष परिस्थिति के कारण संभव हो सकी थी। इसके बिल्कुल अलग 1989 में बिना आपातकाल जैसी बैसाखी के गैर-कांग्रेसी विपक्ष ने अभूतपूर्व बहुमत से बनी राजीव गांधी सरकार को अपदस्थ करके सत्ता हासिल की। गठबंधन की यह अप्रत्याशित विजय विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में चले भ्रष्टाचार उन्मूलन के आंदोलन के साथ-साथ उत्तर भारत की पिछड़ी जातियों के संगठित होकर कांग्रेस के अभिजात्य चरित्र के खिलाफ गोलबंद होने का भी परिणाम थी। चुनाव-परिणाम ने ग्रामीण क्षेत्रों में लोकप्रिय चौधरी देवी लाल को वी पी सिंह के समक्ष ही एक सशक्त नेता के रूप में स्थापित कर दिया था। चंद्रशेखर भी एक मज़बूत दावेदार थे किन्तु वी पी सिंह और चौधरी देवीलाल ने हाथ मिलाकर उन्हें पटखनी दे दी। सत्येन्द्र प्रकाश ने अपने अनूठे अन्दाज़ में, भारतीय राजनीति के इस संक्रमण काल को खूंटा बनाकर यह लेख लिखा है जिसमें वह बताते हैं कि कैसे अंग्रेज़ी के अभिजात्यवाद के कारण प्रतिभाएं कुंठित होती हैं और कैसे उनके विद्यार्थी-काल में बदलते समय की आहट सुनाई दी।
एचएमटी किडज(KIDZ) ऑफ इंडिया
सत्येन्द्र प्रकाश
एक दिसम्बर 1989, देश की एक प्रतिष्ठित समाचार एजेंसी से एक खबर प्रसारित होती है। कांग्रेस के खिलाफ बने विपक्षी मोर्चे के एक ठेठ देशी नेता का नाम भारत के प्रधान मंत्री पद के लिए नामित होता है। पर यह क्या, अगले ही पल यह नामित नेता प्रधान मंत्री पद स्वीकार करने से मना कर देते हैं और किसी दूसरे नेता का नाम प्रस्तावित कर देते हैं। कारण स्पष्ट नहीं थे और ना ही किसी ने खुल कर कुछ कहा किन्तु ऐसी चर्चा सुनने को मिली कि इन देशी नेता को राजकाज में अभिजात्य-वर्ग के वर्चस्व का अन्दाज़ था और उस वर्ग के साथ केंद्र सरकार का शासन चलाने में क्या परेशानियाँ आ सकती हैं, उन्हें इस संबंध में अपनी सीमाएं थी। मालूम थीं। प्रधान मंत्री पद के लिए नामित हो जाने भर से उनका राजनीतिक महत्व भी रेखांकित हो गया था और आत्म-सम्मान भी संतुष्ट हो गया। इसलिए उन्होंने व्यावहारिक रास्ता चुना और विपक्ष के दूसरे बड़े नेता का नाम आगे कर दिया। कहने की आवश्यकता नहीं कि इनका नाम अभिजात वर्ग में भी स्वीकार्य था।
उस समय जब यह घटना-क्रम चल रहा था तो खबर सुनकर याद हो आया- लगभग दस वर्ष पहले का अगस्त 1978 का विज्ञान महाविद्यालय, पटना। सब इसे पटना साइंस कॉलेज कहते हैं। गाँव, कस्बा, शहर सभी जगह साइंस कॉलेज के नाम से ही इसे जाना जाता है। विज्ञान महाविद्यालय तो स्वतंत्रता के बाद हर अंग्रेजी शब्द का हिन्दी रूपांतर की राज भाषा की अनिवार्यता के कारण अस्तित्व में आया लगता है। शायद गाँव देहात में विज्ञान महाविद्यालय पटना कहने पर लोकप्रिय और लब्ध प्रतिष्ठित साइंस कॉलेज ध्यान में भी ना आए।
हर साल की तरह अगस्त 1978 में भी महाविद्यालय प्रांगण में चहल पहल बढ़ गई थी। नए सत्र के लिए नामांकन के बाद क्लासेस (कक्षाएं) शुरू हो रहीं थी। बिहार के अलग-अलग क्षेत्रों के होनहार विद्यार्थियों का जैसे हुजूम उमड़ पड़ा हो। उत्कृष्ट अंकों से हाई स्कूल पास करने वाले साइंस के छात्रों का सपना होता था इस कॉलेज में पढ़ना। साइंस की पढ़ाई के स्तर को लेकर इस कॉलेज की ख्याति कुछ वर्षों की नहीं थी। पाँच दशकों से भी अधिक की उच्च कोटि की स्तरीय शिक्षा से यह ख्याति अर्जित की थी इस संस्थान ने। इस कॉलेज के पढे छात्रों की उपलब्धियों की चर्चा पूरे प्रदेश में होती रहती थी। यहाँ पढ़ाने वालों की प्रसिद्धि भी कोई कम ना थी। आखिर किसी भी संस्थान का स्तर पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले, दोनों पर निर्भर होता है।
नामी गिरामी शिक्षकों के बावजूद भी अगर पढ़ने वाले अच्छा परिणाम ना दें तो उस संस्थान में कोई मेधावी छात्र पढ़ने जाएगा भी क्यों। गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह और भौतिक विज्ञानी हरीश चंद्र वर्मा का जिक्र इस कॉलेज की चर्चा के साथ अनिवार्य रहा है। साल दर साल तकनीकी शिक्षा संस्थानों की राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में साइंस कॉलेज के छात्र बड़ी तादाद में सफलता प्राप्त कर इस कॉलेज की ख्याति में चार चाँद लगाते रहे हैं। प्रदेश के मेडिकल और इंजीनियरिंग संस्थानों के साथ साथ आई आई टी, एम्स, आई एस एम, एस सी आर ए आदि राष्ट्रीय संस्थानों में भी इस कॉलेज के विद्यार्थियों की अच्छी उपस्थिति रहती चली आई है। भारतीय प्रशासनिक सेवा तथा अन्य सम्बद्ध सेवाओं के लिए संघ लोक सेवा आयोग द्वारा चयनित अभ्यर्थियों में इस कॉलेज के विद्यार्थी अपनी खासी उपस्थिति दर्ज कराते रहे हैं।
मैट्रिक पास कर जिन बच्चों को साइंस कॉलेज में दाखिला मिल जाता, वे कॉलेज में पाँव रखते ही स्वयं को आई आई टी या वैसे ही किसी बड़ी संस्थान में पाते। स्कूली शिक्षा के परिवेश और वातावरण की कुंठाओं के मन मतिष्क पर होने वाले दुष्प्रभाव से बेखबर सरकारी स्कूल के बच्चे भी उसी जोश और उमंग से कॉलेज प्रांगण में कदम रखते। इस सोच और जोश के साथ कि जंग जीतने की पहली पायदान उन्होंने पार कर ली है। स्वतंत्रता के पूर्व स्थापित एक संस्थान में अपने स्वागत के अंदाज का उन्हें बिल्कुल भी आभास नहीं होता।
अलग-अलग सरकारी स्कूलों के छात्र अपने अपने स्कूल से आए छात्रों की छोटी छोटी टोली में कॉलेज प्रांगण में दाखिल होते। कुछ चार पाँच की संख्या में, तो कुछ दो या तीन। शुरू में उनके कदमों की तेजी उनके आत्म विश्वास से सरोबार जोश को दर्शाती रही होतीं। लगता था वो सब जिसका सपना सँजो लाए थे वे, बस पूरा हो गया। पर उनके ये कदम अचानक सहम से जाते हैं। जैसे किसी स्वचालित बटन ने एक साथ इन सब के दिमाग में एक संशय सा पैदा कर दिया हो। और फिर लगा कि जैसे सामूहिक आत्मावलोकन चल पड़ा हो। स्वतः वे सब इस प्रांगण में स्वयं को ही अजूबा लगने लगते हैं। संख्या में बहुतायत होने के बावजूद अपनी वेश भूषा, अपने पहनावे, केश-विन्यास ही नहीं, यहाँ तक की अपनी चाल तक में उन्हें कुछ असामान्य दिखने लगता है।
पहली बार कोई ड्रेस पहनने से उत्पन्न असहजता, चेहरे और चाल दोनों में स्पष्ट दिख रही थी। तेल चुपड़े बाल और पैंट के ऊपर झूलते शर्ट स्वयं-सिद्ध हीनता का बोध करा रहे थे। हवाई चप्पल के अभ्यस्त जिन पाँवों को चमड़े या रेक्सिन का चप्पल नसीब हुआ था, वो भी असहज हो रहे थे। फिर असहजता-जनित स्वत:स्फूर्त हीन भावना से ग्रसित बच्चों के कदमों का सहम जाना असहज नहीं था। खास कर तब जब उनकी नज़रें जा टिकी हों वैसे छात्र समूहों पर जिनका हाव-भाव और पहनावा उनकी अभिजात्यता की कहानी बयाँ कर रहे हों। उनमें से अधिकांश के पैट शर्ट की क्रीज़ सुव्यवस्थित थी। शर्ट का निचला हिस्सा कमर से पैंट के अंदर दबा था। बेल्ट की जकड़ से पैंट यथास्थान बने रहने को बाध्य था। जूतों की पॉलिश कुछ यूँ चमक रही थी कि उनमें चेहरा दिख जाए। उनके केश-विन्यास उनकी कुलीनता का प्रमाण देते प्रतीत हो रहे थे।
उन अभिजात्य छात्र समूहों से कतरा कर निकल जाने की कवायद में अन्य छात्रों का अपने में सिमट कर रह जाना ही जैसे उनकी नियति हो। संचित सपनों के पूर्ण होने का भाव क्षणिक साबित होते हुए उनके दिलो-दिमाग से काफूर हो गया। अब जैसे स्कूल के अपने अपने उपलब्धियों के अस्तित्व और अस्मिता को संभाल भर लेने की जद्दोजहद इनकी प्राथमिकता बन गई। बहुतों की बौद्धिक प्रखरता स्वयं के मजाक बनने के भय से क्लास रूम और छात्र समूहों के बीच सहम कर रह गई।
कॉनवेंट और पब्लिक स्कूल तमगाधारी कुलीनता छलकाते इन छात्रों के बीच एच.एम.टी. का प्रायः ज़िक्र छिड़ जाता। एचएमटी उन दिनों आत्म निर्भरता की ओर भारत का बड़ा कदम माना जाने लगा था। 1953 में हिन्दुस्तान मशीन टूल्स (एचएमटी) की स्थापना और आने वालों सालों में इस कंपनी द्वारा भांति-भांति के मशीन टूल्स और यहाँ तक कि ट्रैक्टर बनाने में इस कंपनी ने खूब नाम कमाया। पचास के दशक तक भारतीय बाँहों की शोभा स्विस, जर्मन या जापानी घड़ियाँ बढ़ाती थीं। एचएमटी आम मध्यमवर्ग के बीच अपनी पहचान कलाई-घड़ियाँ बनाकर बनाई और ‘जनता’, ‘चिनार’ और ‘सोना’ इत्यादि जैसे लोकप्रिय मॉडेल्स का बनाया जाना भारतीय आत्म सम्मान की पुनर्वापसी थी।
कुलीनता का जामा पहने इन छात्रों द्वारा जब सरकारी स्कूल के छात्रों के लिए एचएमटी का प्रयोग सुनने में आया तो उन तमाम मानसिक ग्रंथियों के बावजूद इन छात्रों को गर्व की अनुभूति हुई। इन्हें लगा बेकार ही वे उस दूसरे ग्रुप से स्वयं को अलग-थलग किये हुए थे। उनके हृदय में हमारे देशीपन का वही सम्मान है जो देश में एच एम टी के प्रोडक्टस का है। एक पल को लगा साइंस कॉलेज तक का हमारा सफर उन्हें देश के आत्म गौरव की दिशा में बढ़ते दमदार कदम लग रहे थे। एहसास मात्र से मानव मन गर्वित या लज्जित होता है। इस एहसास ने हममें से कुछ को उनसे रूबरू होने की हिम्मत दे दी। हाँ एक अड़चन फिर भी थी। आपसी संवाद की भाषा की अड़चन।
पर जब मन में हिम्मत आ जाए बड़ी से बड़ी बाधाएं स्वतः दूर हो जाती है। देशी स्कूलों के कुछ होनहार विद्यार्थियों में देशीपन की अलग ठसक होती है। सो वे उस विशिष्ट अभिजात्य दुर्ग को भेदने को तत्पर हो चले। धीमे धीमे ही सही उनकी बौद्धिक प्रखरता क्लास में परिलक्षित होते रहती। कुलीनता के मुखौटे के अंदर उस ग्रुप के बीच कुछ छात्रों के मन में इनकी ओर झुकाव होना भी स्वाभाविक था। जिसका लाभ चुनिंदे ही सही कुछ एचएमटी बच्चों को मिला। स्वयं के लिए एचएमटी सम्बोधन पर उनके प्रति मन में अव्यक्त आभार था। वे आगे बढ़े और औपचारिक संवाद का आरंभ हुआ। कभी किसी विज्ञान की जटिल अवधारणाओं को समझने समझाने के क्रम में तो कभी किसी कार्यक्रम के आयोजन के सिलसिले में।
इस दौरान दुर्ग भेदी एचएमटी बच्चों ने महसूस किया की उनकी उपस्थिति में अभिजात्य छात्रों के मुँह से एचएमटी का सम्बोधन प्रायः नहीं होता। एचएमटी सम्बोधन से सम्मानित महसूस करने की अभिव्यक्ति पर कॉनवेंट पब्लिक स्कूल के छात्रों के चेहरे विस्मयकारी मुस्कान इन्हें चकित कर जाता। तरुण मन को औपचारिकता से अनौपचारिकता का रास्ता तय करने में वक्त नहीं लगता। इस विस्मयकारी मुस्कान का रहस्य अधिक दिनों तक छुप नहीं पाया। स्वयं के मध्य कुछ एचएमटी छात्रों की उपस्थिति से अनजान एक के मुहँ से निकल गया, इन हिन्दी मीडियम टाइप्स (एचएमटी) लड़कों ने कैंपस को पूरा देहाती बना दिया है। इनमें ना कोई ड्रेसिंग सेन्स है ना ही बोलने का शऊर। इंग्लिश बोलना तो इन्हें नहीं ही आता, हिन्दी में भी बात करें तो भाषा से भोजपुरी, मैथिली, मगही की बू आती है।
घड़ी भर पहले जो सम्बोधन आत्म गौरव का एहसास करा रहा था, अब भयंकर हीनता का बोध करा गया। प्रतिवाद का कोई विकल्प एकदम से समझ नहीं आया। मुँह की चमक तत्क्षण गायब हो गई। मन एक बार पुनः सहम सा गया। हीन भावना संक्रामक रोग जैसी तेजी से मन को प्रभावित करता है। अंग्रेजी ना बोल पाने से उत्पन्न हीनता से कई मेधावी छात्रों ने अपनी अकादमिक उत्कृष्टता खो दी।
बात सिर्फ हिन्दी मीडियम टाइप्स छात्रों तक सीमित नहीं रही है। अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा अर्जित करने वाले छात्र अपने अपने परिवेश में ऐसी ही हीनता और कुंठा का शिकार होते रहे हैं। आजादी के दशकों बाद दिसम्बर 1989 में नामित होने पर भी प्रधानमंत्री के रूप में अन्तर्राराष्ट्रीय नेताओं और मंचों से अंग्रेजी में संवाद या सम्बोधन में स्वयं को असमर्थ पाकर पद अस्वीकार करना मजबूरी थी या उदारता।
स्वतंत्रता के 70-75 वर्षों बाद भी देश में हिन्दी और अन्य देशी भाषाओं से राष्ट्रीयता और भारतीयता का प्रमाण अपेक्षित हो, समझ नहीं आता। कैंपस के सीमित दायरे से शुरू राष्ट्र के व्यापक पटल तक भाषाई और सामाजिक अभिजात्यवाद किस हद तक देश हित में रहा है! इन कृत्रिम और प्रत्यारोपित बाध्यता के कारण देश ने कितनी प्रतिभाएं ज़ाया कर दी है, राष्ट्र को इसका हिसाब कौन देगा! आज राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में संवाद करने लग पड़ा है। विश्व फिर भी भारत की सुन रहा है। देश में भाषाई हीनता का दंश झेलने वाली प्रतिभाओं को आज सुकून और उम्मीद दोनों है।
***********

*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ अध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है।