नए प्रयोग करती मोहन राणा की कविता - अनुवादक
अगर आप मोहन राणा की इस कविता की आरम्भिक 'दुरूहता' को आत्मसात कर आगे बढ़ते हैं तो आपको जल्द ही ग़ज़ब के प्रयोग करती ऐसी कविता मिलेगी जिसमें प्रयुक्त बिम्ब और प्रतीक आपको चकित कर देंगे। ना केवल यह कि यह बिम्ब और प्रतीक बिल्कुल नई तरह के हैं बल्कि इनके माध्यम से कविता को जो गहराई और व्यापकता मिल रही है, वह भी अनूठी है। इसी वेब पत्रिका में कुछ महीने पहले प्रकाशित मोहन राणा का लेख 'कविता अपना जन्म खुद तय करती है' यदि आपसे पढ़ने से छूट गया हो तो हमारी सलाह है कि उसे भी अवश्य पढ़ लें। वैसे इसी वेबसाइट पर उनकी कविताएं और उनकी पुस्तकों की समीक्षाएं आप पहले भी पढ़ चुके हैं। लीजिए प्रस्तुत है आज की कविता - 'अनुवादक' !
अनुवादक
प्रेम और युद्ध में अनुवादक नहीं होते
वे अदृश्य संवादी
मेरी और तुम्हारी पहचान और उस
अन्य की तरह होते हैं वे नाम अनाम
चेहरों की दीर्घा में
पहले अजनबी जैसे मैं तुम कभी
आजीवन खोजते अपना पता अनिकेत
फिर दिन रात की करवट में एक साथ एक नाम
स्मृति की सलवटों में उकरते कुछ मनोकाल की दीवाल
आमने सामने,
हम दो सर्वनाम व्यक्त एक पंक्ति में
उनकी ज़रूरत नहीं होती चार चौक सीमा बंदोबस्त
कि कोई जानना नहीं चाहता
उस इस भाषा का अर्थ
पहचान खोकर अपना मैं तुम फिर से,
अजनबी भय के साथ
दुनिया में होकर भी अकेले
जेलख़ानों में यातनाएँ परोसते मित्र शत्रु
वहाँ अनुवादक ज़रूरी होते हैं
अदालतों में कानून की मंडी में
सच झूठ की सफ़ाई गवाही के लिए
शतंरज की बिसात पर कौड़ियों से खिलते
डॉक्टर मरीज़ के बीच हस्पताल में
दवाओं के कारोबार में
जीवन में मृत्यु विज्ञापन बेचते
कई भाषाओं में बीमा
जीवन की परिभाषा का अनुवाद करने
प्रेम और युद्ध में रखवाले नहीं होते
इतिहास में आततायी और सताये के बीच
बतकही की व्याख्या बदलते
एक शोकगीत समवेत गायन के साथ
हर संवाद पटल पर
युद्ध और प्रेम में घायलों के सबूत और गवाह नहीं होते,
जहाँ सबका अपना पक्ष एक अर्थ
देना और
छुपाना चाहता है सामने वाले से,
कंधे पर सब कुछ स्मृतियों के सौदे में बस्ताबंद
उपस्थित रहते हैं नज़रबंद
हर बादल में छतरी के साथ अनुवादक
लिखने वह इकबालिया मौन बयान स्वगत,
समय कर चुका इसे लिपिबद्ध पानी में
मंझधार के पत्थर पर फीकी होती मुस्कराहट
प्रेम और युद्ध में सूत्रधार नहीं होते
पर ज़रूरी हैं प्रेम और युद्ध के नेपथ्य में विदूषक,
प्रेम कोई निशान नहीं छोड़ता
पर बदल देता है एक खिड़की से अपना अपनों का दृश्य
प्रेम और युद्ध में अनुवादक नहीं होते
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दिल्ली में जन्मे मोहन राणा पिछले दो दशकों से भी ज़्यादा से ब्रिटेन के बाथ शहर में रह रहे हैं। हाल ही में प्रकाशित ‘एकांत में रोशनदान’ सहित, उनके दस कविता संग्रह निकल चुके हैं। इंग्लैंड की आर्ट्स काउंसिल के सहयोग से उनकी ढेर सारी चुनी हुई कविताओं का अँग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है। उनकी अनेक कवितायें यूरोप की कई भाषाओं में पढ़ी और अनुवाद की गईं हैं।