कविता अपना जनम ख़ुद तय करती है
कुछ बेतरतीब बातों की पूर्व पीठिका
मैं शब्दों को मन के कैनवस रचता, रोज़-ब-रोज़ कविता की खिड़कियाँ बनाता हूँ अपने रास्ते पर समय के बुलबुलों की मानिंद क्षणिक खिड़कियाँ। मैं क्षणिकता को गढ़ता खिड़की-साज़ हूँ। इस पटल पर निबंध के वर्तमान रूप में पहुँचने में मुझे करीब तीस बरस से अधिक लगे पर अभी भी बहुत कुछ अधूरा और याद नहीं रहा जो जैसा जिया उसे भूलते हुए अपनी रचना प्रक्रिया पर कुछ लिखते।
यह निबंध अभी अधूरा है बहुत कुछ जैसे और मैं कह सकता हूँ पर अभिव्यक्ति अभी भी तैयार नहीं है तथापि जो बन पाया यहाँ इसे निबंध के रूप में शेयर कर रहा हूँ।
यह निबंध इस वर्ष पोयट्री ट्रांसलेशन सेंटर, लंदन से प्रकाशित निबंधों की पुस्तक ‘Living in Language’ में अंग्रेज़ी अनुवाद ‘The Poem Chooses Its Own Birth’ के रूप में छपा है।
शब्द विहीन देश-काल में मैं कविता की खिड़कियाँ बनाता हूँ । एक लंबे अरसे से कविता लिखते हुए मुझे लगता है मैं स्मृति की दीवारों पर काग़ज़ की एक पारदर्शी खिड़की हूँ जिस पर पानी से लिखे शब्द हैं।
मार्च 2023 में भारत यात्रा के दौरान दिल्ली में ओसाका विश्वविद्यालय में हिंदी अध्यापिका हीरोको नागासाकी से मेरी मुलाकात हुई। उनसे बात करते-करते मैं अपनी कविता की रचना प्रक्रिया के बारे में बात करने लगा, मैंने उन्हें बताया कि कविता लिखना मेरे लिए एक खिड़की-साज़, खिड़कियाँ बनाने वाले कारीगर जैसा है, जो पाठक की मनोविथि में शब्दों में रचा एक दृश्य, अनुभव, भाव और स्मृति को उद्घाटित करता है जिसमें कविता की मर्मर उपस्थिति भाषा के मधस्थ एकांत में रोशनदान की तरह होती है।
मैं एक क्षणिक खिड़की बनाता हूँ। मैं कविता की खिड़कियाँ बनाता हूँ, जो हमेशा ख़ुली होती है।
कवि होना या बनना मेरी अभिलाषा नहीं थी। मैंने कभी सपने में भी यह नहीं सोचा था कि मैं कविता लिखूँगा। ना ही मैंने उसके बारे में कभी सोचा या शौक से कविताएँ पढ़ता था। किशोर अवस्था में मुझे उपन्यास पढ़ने में ज्यादा दिलचस्पी थी। कविता को मैंने नहीं चुना उसने मुझे चुना, मेरे भीतर केवल जिज्ञासा थी जो अचानक तितली बन कर उड़ गई। मैं केवल एक कोया था। फिर यह सब कैसे हुआ, मैं कैसे कविता के वृत्त में पहुँच गया, मैं ख़ुद भी उस छोटी सी मेरे जीवन की दिशा परिवर्तन घटना को भूल गया था कि कविता लिखना मैंने कब और कैसे शुरू किया।
अपने स्कूल के परिसर में सर्दियों की एक दोपहर मैं पत्थर की बैंच पर अन्यमनस्क बैठा था, उस साल की सर्दियाँ खत्म होने वाली थी। बगीचे में बेंच पर बैठा मैं धूप सेंक रहा था कि मुझे ज़मीन पर अपने पैरों के पास एक लिफाफे पर मेरी नज़र पड़ी, कोई मूँगफलियाँ खाकर छिलकों के साथ उसे भी वहीं फेंक गया था जो मूँगफली के छिलकों के ढेर में पड़ा था। मैंने जिज्ञासावश उठाया और उसे पढ़ने की कोशिश की । वह लिफ़ाफा कविता की किताब के दो पन्नों से बना था। उन शब्दों ने जैसे मेरे भीतर एक खिड़की को खोल दिया। मुझे एक संसार दिखा, वही जो हमेशा उपस्थित था पर तब तक अदृश्य था और मैं उससे अनभिज्ञ था। उन दो मुड़े-तुड़े पन्नों में शब्दों में छुपी कविता ने जैसे मेरे भीतर लगे ताले को खोल दिया। जैसे मुझे इस यथार्थ की चाबी मिल गई और मैंने कविता को सुना अपने भीतर उन शब्दों को बोलते।
कविता जो रद्दी में बिक कर लिफ़ाफ़ा बनी, फिर कूड़ा-करकट और उसे उठाकर पढ़ते ही वह फिर कविता बन गई। उन शब्दों ने एक नई खिड़की मेरे मन में खोल दी।
ये ऐसे हुआ जैसे अवचेतन में सोई कोई काव्य स्मृति जाग उठी। कविता की खिड़की को मैंने अपने मन में खुलते अनुभव किया जब पहली बार मैंने काग़ज़ पर उस शब्दों के विन्यास को पढ़ा, जो मेरे लिए नया था। मुझे लगा उन वाक्यों में शब्द मेरे थे, मेरे जो भीतर सोये हुए थे और जाग पड़े। मेरे जीवन में एक Paradigm Shift हो गया। कविता ने अपनी एक यात्रा वहाँ उस क्षण तब पूरी की और मुझे एक और यात्रा पर बिना गंतव्य बताए रवाना कर दिया। एक तरह से मैं एक कविता की असमाप्त यात्रा को कवि के रूप में कर रहा हूँ।
मेरी कविताएँ पहली बार दिल्ली में राष्ट्रीय दैनिक नवभारत टाइम्स के रविवार्ता अंक में जुलाई 1985 में छपी थीं। उस समय कवि प्रयाग शुक्ल उसके रविवासरीय पत्रिका के संपादक थे, उसके कुछ सप्ताह बाद कविताएँ बगल में स्थित अन्य राष्ट्रीय दैनिक जनसत्ता के रविवारी अंक में छपीं। वहाँ कवि मंगलेश डबराल संपादक थे। दिल्ली में उस लेखन काल में कविता लिखते और प्रकाशित करते हुए मैंने शब्दों को धीरज से सहेजना और बरतना सीखा। कम शब्दों में बात को कहना। वह अनुशासन मुझे बहुत काम आया है।
कविता अपना जनम ख़ुद तय करती है। उसके डी एन ए हमारे भीतर हैं। मैं उसके लिए शब्द नहीं बटोरता, कविता अपने शब्द भी खुद लाती है, हालाँकि यह अक्सर ही संभव नहीं हो पाता कि अपनी कविता को मैं उसकी संपूर्णता में व्यक्त कर पाऊँ, लगता है जैसे हर कविता, पिछली कविता का कोई छूट गया अंश ही हो जो छूट गया, और फिर रह जाता है अधूरा ही हर नई कविता में। कविता हमें कुछ याद दिलाती है उस वर्तमान की जो घट चुका है, यह वह अतीत जिसे अभी भविष्य बनना है पर जो याद नहीं है।
कविता की किताबें कम पढ़ता हूँ। अपनी काव्य-यात्रा के आरंभ में पढ़ने से काव्य विन्यास को समझने और सीखने में मदद मुझे मिली तथापि मुझे लगता है अवचतेन से प्रभाव अपने ख़ुद की काव्य शैली और रूप को विकास करने में बाधक बन जाता है। हालाँकि यात्राओं के दौरान में स्थानीय भाषा के कवियों की कविता पुस्तकें अवश्य खरीदता हूँ और यात्राओं के दौरान ही में प्रायः कविताएँ लिखता हूँ।
मेरी कविताएँ प्रकृति प्रेरित हैं, यूँ कविता लिखने के लिए प्रेरणा की जरूरत नहीं होती। यह मेरे दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों पर आधारित है। मेरा लेखन विचारों और भावनाओं से संचालित होता है और अनुभूतियों पर केंद्रित है। पर तुरंत प्रक्रिया नहीं देता, कि जो हुआ उस पर कविता लिखूँ कि शब्द अपने आप बह जाएँगे। शब्द मेरे लिए सहजता से नहीं आते। कोई दृश्य, भाव, विचार, स्मृति, शब्द या कोई बात अपनी उपस्थिति मेरे मन में दर्ज करा कर चुप हो जाती है। उसे मैं या तो कहीं डायरी या कागज पर लिख या फ़ोन पर नोट कर छोड़ देता हूँ। फिर यह लंबी रचना की स्वाध्याय यात्रा चलती है। कभी फिर एक कविता लिखते हुए वह दृश्य, भाव ,विचार,स्मृति, शब्द या कोई बात वहाँ प्रकट हो जाती है।
मैं पहले से विषय सोच कर कविता नहीं लिखता हूँ। इम्प्रोवाइज़ेशन मेरी रचना प्रक्रिया के केंद्र में हैं इस इम्प्रोवाइज़ेशन प्रक्रिया का जो सहज उदाहरण मेरे पास हैं उसमें एक कविता का उल्लेख बानगी के तौर पर यहाँ देना चाहता हूँ। स्कॉटलैंड के पश्चिमी द्वीपों की एक यात्रा को दौरान मैंने एक पनकौए को समुंदर में एक चट्टान पर बैठे और लहरों में गोता लगा दृष्टि से ओझल होते देखा, यह छोटी सी छवि मेरे मन में बैठ गई फिर कुछ बरस बाद एक अनाम कविता लिखते हुए उसके अंत में वह ‘पनकौआ बिम्ब’ तब उस अनाम कविता अंत में एक पंक्ति के रूप प्रकट हुआ। मैंने उस कविता का नामकरण किया “पनकौआ”।
रचना-प्रक्रिया एक पहेली है एक भूल भुलैया – आँख खुलते ही वह मेरे जाग्रत संसार में है और बंद होते ही वह स्वतः अवचेतन के परा संसार में मुझे अकेला छोड़ देती है भाषा की पीड़ा, खुशी ,आशा, अवसाद , जिज्ञासा के तमाम अवयव और उपकरण निष्क्रिय हो जाते हैं। यदा कदा करवटों में ,बहुत कुछ देखा बहुत कुछ जैसे वहाँ जिया पर याद नहीं रहता सुबह जागते ही।
मैं फिर से सादे काग़ज़ को एक टक देखता हूँ कि मेरी नज़र बाहर बेरोक बारिश पर पड़ती है। अगाध समुंदर कहीं उदास है। क्या किसी ने कभी पूछा इस बारिश से तुम थक नहीं जाती? पर मेरे शब्द कोश में शब्द चुक जाते हैं।
कविता कहाँ से और कब शुरू होती है और कहाँ वह अपने अन्तिम रूप को दर्शायेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। रचना-प्रक्रिया अपने-आप में स्वायत्त है, ‘अन प्रिडिक्टेबल’ चीज़ है।
बस इतना मुझे मालूम है कि एक छोटी सी कविता “पानी का रंग” लिखने में एक लंबा अंतराल मैंने जिया। समय-स्मृतियों और ग़ुजर गए अंतराल, दिन के कई पहर या कई रंग, या कोई घटना जो मनो विथिकाओं में चुपचाप विचरती रहती है – इन अनुभवों को मैं कविता में कुछ इस तरह से विन्यस्त करता हूँ कि पाठक के मन में एक अनन्तता का एक रूप उससे परे एक शब्द आकार उभरता है बिल्कुल उसी तरह जैसे डार्क रूम में नियंत्रित रोशनी से एक्सपोज़ होकर काग़ज़ में प्रकट होता बिम्ब और यहाँ मन के भीतर एक शब्द रूप में।
लेखन का रिमोट कंट्रौल मेरे पास नहीं है कि लिखना शुरू करें- सारी पीड़ा और उदासी कोरे काग़ज़ पर फैल जाएगी और मेरे भीतर एक शांति का संचार हो जाएगा। ऐसा नहीं होता है रचना प्रक्रिया का एक बेचैन कंपन जिसकी तरंगों में खोये संवाद को प्रायः मैं बूझ नहीं पाता हूँ यह पता लगाने - कविता ने भीतर क्या लिखा कि चीजें उस काग़ज़ पर उस जगह उस समय मेरे हाथों में गिरने लगेंगी। प्रकृति, लोग, समाज, परिस्थितियाँ, भावनाएँ, इच्छाएँ, आशाएँ, प्रेम, भय, वर्षा, ग्रीष्म और पतझर बस एक दिशा चाहिए- और शब्द अपने आप बहने लगते हैं। रचना की दिशा रेखकीय नहीं होती एक ही कविता में सब कुछ नहीं आ पाता है।
मेरा मानना है हर भाषा का अपना भूगोल शब्दकोश होता है। मैं अंग्रेजी के भूगोल में हिन्दी में कविता लिखता हूँ हिन्दी के भूगोल से दूर । जो उस समाज में नहीं है जिसमें मैं जीता हूँ और रचना करता हूँ। एक बार किसी ने पूछा क्या अभी भी तुम्हें सपने हिन्दी में आते हैं?
लंबे अरसे से मैं इंग्लैंड के दक्षिण पश्चिम में एक शहर बाथ में रहता हूँ। हरियाली से सम्पन्न पादप जैविक प्रजाति प्रकार की विविधता जो यहाँ है पर उत्तर भारत में इस तरह की जलवायु पेड़-पौधे व पक्षी नहीं है उनके नाम हिन्दी में नहीं हैं। चिड़ियों की आवाजें हैं पर उन आवाज़ों से जुड़े नाम तुरंत मन में नहीं आते, अनुवाद उनके लिए मिल जाते हैं पर वे इतने शाब्दिक होते हैं कि रचनाक्रम के लिए उपयोगी साबित नहीं होते या समतुल्य अर्थ और भाव गढ़ने पड़ते हैं। जैसे स्कॉटलैंड में बॉग शब्द के लिए समतुल्य शब्द खोजना या एड्रियाटिक तट की पास उगने वाले चीड़ की प्रजाति के पेड़ जो दिखने में छतरीनुमा होते हैं। इंग्लैंड जो रॉबिन चिड़िया है वह भारतीय रॉबिन से दिखने में थोड़ी अलग होती है।
इसी तरह दो चिड़ियाँ जो कद काठी में एक समान लगती है पर इंगलैंड में काली चिड़िया का रंग काला है अकेले रहना पसंद करती है और भारत में मैना काले, भूरे चितले रंग की है और झुंड में रहती है। पिछवाड़े में गौरैया अवश्य हैं जो भूगोल की दूरी और भिन्नता को कम कर देती है। पर यह अजीब लग सकता है कि मैं सहजता से काली चिड़िया या रॉबिन को कविता में जगह दे देता हूँ। यहाँ पिछवाड़े में रोवन का पेड़ है, दिल्ली में घर के बाहर नीम का पेड़ था, दोनों प्रिय पेड़ हैं पर दोनों से मेरे आत्मिक जुड़ाव के संवेदों की परतें अलग हैं।
एक वर्तमान है मेरे सामने उगा हुआ है दूसरा अतीत की स्मृति में उगा जड़वत है।
कविता अपने आप में एक प्रकिया है ऐसी मेरी धारणा है, वह जीवन के भीतर और बाहर सक्रिय प्रकिया का वक्तव्य है, अभिव्यंजना है। कभी कभी मुझे लगता है मैं अभी भी उसी स्कूल की बैंच पर बैठा हूँ…और जीवन उस कविता में घट रहा है। कविता स्वयं अपना विन्यास, रूप, स्वर, संवेदनाएँ और बिम्ब तय कर रही है। शब्दों में उपस्थित वह सुन सकती है छू सकती है देख सकती है, सांस लेती है। वह जीवित है। मैं उसे जी रहा हूँ।
मेरा मानना है कविता किसी माध्यम पर अंकित-टंकित शब्दों के विन्यास में नहीं बल्कि वह पाठक के भीतर है। उनमें मौजूद आवाज़ उन्हें पढ़ कर ही फिर से बोल पाती है - कभी हम उसे पहचान लेते हैं और कभी वह आवाज़ हमारे अंर्तलोक के शोर में गुम हो जाती है। मेरे लिए कविता, मैं और तुम का संवाद है। कविता उदासीन है उसका कोई स्वाद नहीं पर प्रेम की तरह आविष्ट, आसक्त, राग -वीतरागी, नमकीन -मीठा और एक सांस की तरह उसका स्वादहीन लिखा हुआ शब्द , केवल उसकी कल्पना उसकी स्मृति है। जो पढ़ते ही मन में जाग जाती है। स्मृतियाँ केवल उन लोगों के लिए ही नहीं हैं जो केवल जीवन जीते हैं बल्कि उन लोगों के लिए हैं जो याद रख सकते हैं और याद कर सकते हैं। कविता से कविता में जी कर यह संभव हो पाता है।
भाषा के एक कोने में चुपचाप अपनी कविताओं में से सच, प्रेम, अस्मिता, स्मृति, नियति,यथार्थ और प्रकृति के सवालों से उत्प्रेरित जवाबों की ओर मैं बार-बार लौटता हूँ या कहें कि वह साथ ही हैं छाया की तरह, अतृप्त अपने ही जवाबों से। इस हलचल में मैं एक दूर और पास के दैनंदिन आतंरिक भूगोल के अन्वेषण में लगा हूँ कि अपने पदचाप भी सुन पाता हूँ बस उनकी परछाईं को काग़ज़ पर शब्दों के बीच झुका देखता हूँ। लेखन में मेरा इरादा कोई दिशासूचक तैयार करना नहीं हैं वह मुझे लगता है पहले से ही बना हुआ है, उपस्थित है प्रकृति के नियमों की तरह,उसकी पुष्टि भर करनी है। मैं सच,प्रेम, भय, अस्मिता और यथार्थ के प्रश्नों या कहें जवाबों की ओर बार-बार लौटता हूँ । जीवन और प्रकृति की बदलती स्थितियों के अर्थ और आशय की जो एक बेचैनी है इनको निकट से जानने और उनसे एकात्मकता कर उन्हें कविताओं में दर्ज़ करता हूँ। मेरा पहले से नियोजित कोई खाका नहीं होता लिखने का।
सवाल यह है कि क्या शब्द वह पता-पहचान प्रकट कर सकते हैं, संवेदनाओं की इस एकांत यात्रा में जिसमें हम लगातार याद करते हुए लगातार भूलने का समकालीन जीवन जी रहे हैं? क्या कविता वह चाबी है जो हमारी स्मृतियों पर लगे तालों को खोल देती है जो मुक्त कर देती है हमें अपने ही अँधेरों की रोशनी से? कविता और शब्द संरचना के बीच कवि एक कार्बन पेपर की तरह है और जो हम काग़ज़ पर छपा देखते - पढ़ते हैं वह दरअसल एक अनुभव का अनुवाद है जिसमें एक सच्चाई को उकेरा गया है। कविता दो बार किसी भाषा में अनुवादित होती है - पहली बार जब उसे लिख दिया जाता है और दूसरी बार जब उसे पढ़ा और सुना जाता है।
हर पहर सादे काग़ज़ के मौन को अपने सामने देखते, दैनंदिन चर्या में अपनी -अपनी बारिश में अपनी - अपनी छतरी के नीचे भीगते, जीवन के रास्तों में एक अनिश्चित पते को मैं ढूँढता, कि कभी एकाएक कुछ हो जाता है, आश्चर्य ही एकमात्र निश्चितता है । कविता की स्मृति में जीते हुए उसके अंर्तलोक को इस निबंध के बाड़े में शब्दों से समेटना संभव नहीं है। मेरे अपने शब्दकोश में उसके लिए शब्द अर्थवान और पर्याप्त नहीं है कि एक कविता में अंतिम पूर्ण विराम लिख सकूँ। इसलिए मैं एक कविता से दूसरी की ओर एक पैर आगे रखता हूँ पर तभी लगता है मेरा गंतव्य कहीं मेरी अपनी ही स्मृति एक मरीचिका या कल्पना तो नहीं है! कभी भविष्य एक अतीत था जो मुझे अभी याद नहीं है पर जब मैं उसे जीता हूँ तो मेरा वर्तमान जीवित हो जाता है जैसे सुबह आँख खोलते ही। अपने आंतरिक शोर को बंद कर मैं सुनता हूँ, थोड़ा गौर से सन्नाटे के कोलाहल को, कि वह शब्द पहचान में आ जाय, अलार्म जो हमें जगा दे फिर एक सपने में जीने के लिए।
जिस भी रचना की जड़ें अनुभूति में होंगी वह ही टिक पाती है लोकप्रियता इसकी कसौटी नहीं है, अपवाद होते हैं पर वे कम ही हैं। कवि जब केवल लिखता ही नहीं बल्कि कविता में जीता है तो रचना कालातीत हो जाती है।
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In this exhaustive essay, Mohan Rana reflects on the craft and purpose of poetry for an international project of poetrytranslation.org. He is amongst 21 leading poets from around the world who were chosen to participate in this project. This essay is being published for the first time in Hindi.
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