आखिर सुन्दरता ही दुनिया का त्राण करेगी !
सौंदर्यशास्त्र शृंखला में डॉ मधु कपूर के इस चौथे लेख में आप दोस्तोवस्की के इस प्रसिद्ध कथन की जांच करेंगे कि सौंदर्यबोध ही दुनिया को बचा सकता है। आज पूरी दुनिया में जिस तरह का नफरती माहौल छाया हुआ है, उसमें सौंदर्यबोध जैसी सुकोमल अनुभूति का ज़िक्र मात्र भी एकदम असहज सा लगता है। लेकिन यह भी सच है कि जब भी मनुष्यता को इस नफरती माहौल से निजात पानी होगी, तभी सौन्दर्यबोध जैसी अनुभूतियाँ अपने आप प्राथमिकता पा लेंगी।
आखिर सुन्दरता ही दुनिया का त्राण करेगी : Dostoevsky
डॉ मधु कपूर
“एक बार यूँ ही दोस्तोवस्की ने पहेली बुझाने के ढंग से कहा, ‘सौंदर्यबोध ही दुनिया को बचा सकता है’. मैं सोच में पड़ गया? कुछ समय तक मुझे यह शब्दों का खेल मात्र लगा. पर...खून से सनी ऐतिहासिक घटनाएँ पूछती हैं कि क्या कभी ऐसा संभव हुआ है? विचार निःसंदेह महत् है—लेकिन सुन्दरता ने किसको बचाया है आजतक ...”
उपर्युक्त कथनांश नोबेलपुरस्कार विजेता रूसी कथाकार सोल्झेनित्सिन (Solzhenitsyn) के भाषण से उद्धृत है. रूसी लेखक दोस्तोवस्की अपनी पुस्तक A Writer’s Diary में, जो कुछ कहानियों तथा लेखों का संग्रह है, सत्य और सुन्दर के बीच संतुलन स्थापित करने के लिए निरंतर संघर्षरत दिखाई देते है. वे चित्त के द्वैत आयामों का उल्लेख करते हैं. पहला निम्नरूचि का पापबोध (Sodom), जो मानवीय परिस्थितियों का कुत्सित स्वरूप है तथा दूसरा ऐन्द्रिक, जो उदात्त आध्यात्मिकता (Madonna) को जन्म देता है. Bobok का कथानक कुछ मृत आत्माओं के आसपास घूमता है, जो कब्र में परस्पर वार्तालाप में मशगूल है. लेखक कौतूहलवश उनके कथोपकथन से उनकी कुछ कमजोरियों एवं दुष्कर्मों का सुराग पा जाता है. तभी लेखक की एक छींक ने उन्हें सजग कर दिया और वे चुप हो जाते है, क्योंकि वे नहीं चाहते है कि उनकी गुप्त बातें दुनिया के सामने जाहिर हों. The Dream of a Ridiculous Man का कथानक एक ऐसे व्यक्ति को केंद्र में रखकर लिखा गया है, जो जीवन को व्यर्थ और बकवास समझ कर आत्महत्या करने जा रहा है. अचानक एक प्रेम से भरपूर लड़की का सानिध्य पाकर जीवन की ओर लौट आता है और ‘आत्महत्या करने के विचार’ से ग्लानि महसूस करने लगता है. दोनों कथाएं समाज और व्यक्ति के अन्दर खलबली मचाने वाली विसंगतियों का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं.
दोस्तोवस्की, जो एक अस्तित्ववादी दार्शनिक है, अपने लेखन में मानवीय परिस्थितियों यथा दुःख, कष्ट, यातनाएं, अपराधबोध, मृत्यु इत्यादि का यथार्थ विश्लेषण करते है. एक ओर जहाँ बुद्ध निर्वाण को दुखों से मुक्ति का मार्ग बतलाते है, वहीं दोस्तोवस्की एक नई तार्किक संवाद पद्धति का उल्लेख करते हैं. उनकी रचनाओं में निहित संवादों के माध्यम से उनके कला सम्बन्धी विचार संग्रह किये जा सकते हैं. संवादात्मक पद्धति में हम अपने पूर्वग्रह से मुक्त होकर एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का प्रयास करते हैं, ताकि विचारों को गति और मूर्तता प्रदान की जा सके. यह प्रक्रिया लोगों को अनसुलझे तनावों को खोलने के लिए आमंत्रित करती है, हालाँकि ये संघर्ष आसानी से हल नहीं होते हैं, लेकिन वे समझ के ऐसे क्षण उपस्थित करते हैं, जो मानवीय रिश्तों की गांठों को खोलने में मदद करते हैं. इसके विपरीत एकतरफ़ा लेखन आमतौर पर सपाट और पूर्वग्रहग्रस्त होने के कारण बयानबाजी में बदल जाता है.
"Crime and Punishment" उपन्यास में अभियुक्त रासकोलनिकोव को मजिस्ट्रेट संवाद के माध्यम से उसके आंतरिक संघर्ष को तथा उसके हत्या के समर्थन में दिए गये तर्कों को सूक्ष्मता से चुनौती देता है. दूसरी ओर एक अन्य पात्र मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि से अभियुक्त की नैतिक दुविधाओं को उकसा कर उसे टूटने के बिंदु के करीब ले जाता है, जहां अभियुक्त अपने अपराध को मजबूर होकर स्वीकार करता है. मजिस्ट्रेट स्वयं क़ानूनी दांव-पेंच, सामाजिक व्यर्थताओं और नैतिकता के द्वंद्व में फंसकर तथा प्रमाण की तलाश में व्यक्ति, समाज, राजनीति और परिस्थितियां सभी को कानून के कटघरे में खड़ा पाता है. ऐसी अवस्था में दोषी किसे कहा जाय ? मानवीय जटिलताओं में गणितीय अनिवार्यता कहाँ मिलती है, जो हम उन्हें ‘दो और दो चार’ की तरह प्रमाणित कर सकें. कानून की किताबों में लिखे नियम विरोधी साक्ष्यों के सामने व्यर्थ साबित हो जाते है. इस तरह कानून की घिसी पिटी लकीरों पर चल कर फैसले नहीं लिए जा सकते है. अंततः विश्वास और निराशा से जूझते हुए कारावास के दौरान अभियुक्त रासकोलनिकोव में पीड़ा और आध्यात्मिक जागृति का उन्मेष होता है कि वह वास्तव में सोन्या से प्रेम करता है. यह वह क्षण है जो उसकी जिंदगी में आमूल परिवर्तन ले आता है. दोस्तोवस्की का विश्वास पक्का हो जाता है कि व्यक्ति दुखों से पलायन न करके, उसके माध्यम से ही सच्चा आनंद प्राप्त कर सकता है.
दोस्तोवस्की मानते हैं कि जिस तरह जीने के लिए भोजन आदि की आवश्यकता होती है, वैसे ही जीने के लिए सुन्दरता का उपभोग भी आवश्यक है. जिन्दगी में यदि सौन्दर्यबोध नहीं होता तो क्या मानवीय रिश्तों की कोई अहमियत रह जाती? जीवन में विरोधाभास है, झगडा है, टूटन है, फिर भी हम जिन्दा रहना चाहते है, अन्यथा इस अव्यवस्था में हमारा जीना दूभर हो जाता. कला में पनाह ही विसंगतियों से जूझने का अवसर देती है. उसे यह जानने की जरूरत नहीं है कि कविता पढ़ कर क्या होगा, मूर्ति बना कर हम क्या हासिल कर लेंगे, नृत्यकला की थकान हमें कितना आनंद दे सकती है. इस तरह का बेवजह तर्क हमें किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचाता, उलटे हमें विभाजित कर देता है, जबकि सौंदर्यबोध हमारी चेतना को आकार देता है.
सुन्दरता यद्यपि कुछ अर्थों में व्यक्तिगत होती है, पर उसका परिसर विस्तृत किया जा सकता है. उदाहरण के लिए दूसरों की सहायता करना, उनके कष्ट को साझा करना, नृत्य की प्रस्तुति का हिस्सा बनना, एक फड़कती हुई बहस में अपनी राय प्रकट करना, क्रिकेट खेलने के वक्त गेंद को आहिस्ते से ठेल देना या फिर जोखिम उठा कर नाव को खेना इत्यादि जहाँ कहीं भी जो कुछ भी सुन्दर है, जो हमें उत्कर्षता की सीमा पर पहुंचा देता है. सौंदर्य खोजने का अर्थ है छोटे छोटे टुकड़ों में बंटी जिंदगी में सामंजस्य स्थापित करना है. इस तरह सुन्दरता एक प्रक्रिया भी है और एक आदर्श भी.
Marcus Aurelius, एक रोमन राजा और दार्शनिक, कुछ इसी लहजे में समर्थन करते हैं ㄧ चाहे तवे पर पड़ी रोटी में काली चित्तियाँ हो, बूढ़े चेहरे की झुर्रियां हो अथवा पेड़ के पत्तों का झरना होㄧ इनकी सुन्दरता का उपभोग दो-मुहें तर्क से नहीं किया जा सकता है, जिससे दोस्तोवस्की को खासी कोफ़्त है. तर्क की इस दुधारी तलवार के विरुद्ध दोस्तोवस्की सौंदर्यबोध को कला की उत्कृष्ट मिसाल मानते है. उत्तेजना से भरपूर एक राजनैतिक भाषण, समाज हेतु किया गया रक्त दान शिविर, एक अनोखी रोमांचकर यात्रा (सुनीता विलियम की तरह), चाशनी में पगी जलेबी, नृत्यरत पैर और मंच पर कैटवाक करती मॉडल आदि सब कुछ सुन्दर है. इसके विपरीत एक गाली गलौज से भरपूर भाषण, मारपीट, खून खराबों की घटनाएँ, तथाकथित फूहड़ नाच इत्यादि भी धीरे धीरे सामाजिक धारा में विलीन हो जाते हैं.
कुछ आलोचक कला को व्यवहारिक रूप से अनुपयोगी समझते है, उनके विरुद्ध दोस्तोवस्की का कहना है कि वास्तव में कला का सामंजस्य व्यवहारिक उपयोगिता से ही है. दृष्टान्तस्वरूप 'न्यायसंगत' कार्य भी सुन्दर कहा जा सकता है और अहित करने वाली सुंदर वस्तुएं भी सुंदर नहीं हो सकती है. किसी गहरी नदी को पार करने के लिए दो नौकाओं में साधारण पटलों की बनी नाव ही सुरक्षित होगी क्योंकि दूसरी नाव रंग बिरंगी होने पर भी उसकी तली में छेद है. साधारण नाव की उपयोगिता ही उसका सौंदर्य है. सुंदरता के साथ सद्गुण की खोज कहीं और नहीं, प्रेम और दया से भरे हृदय में ही हो सकती है. ऋषि अष्टावक्र और सुकरात शारीरिक सौंदर्य की दृष्टि से अच्छे न होने पर भी ईश्वरीय सौंदर्य से भरपूर थे.
दोस्तोवस्की के संदर्भ में सुन्दरता नैतिक उदात्तता से जुडी है, और यह अनुभव उसी को हो सकता है जो तर्क की दीवार को फांद कर देखता है. मनुष्य कभी कभी दांत के दर्द में ‘आह, उह’ करके दर्द का प्रशमन कर लेता हैं, कभी-कभी अपराधी अपने अपराध के प्रति सजग होकर स्वयं को दंड देकर आनंद पाता है. दोस्तोवस्की की उक्ति The Brothers Karamazov से ㄧ “जब मैं रसातल में गिरता हूँ, तो मेरा सिर नीचे और एड़ी ऊपर होती है, और मुझे इस बात की खुशी होती है कि मैं जिस अपमानजनक स्थिति में गिरता हूँ, वह मेरे लिए यह सुंदर है और इसी शर्म से मैं अचानक एक गीत गाने लगता हूँ."
The Idiot उपन्यास में The Dead Christ के चित्र को देख कर मिशकिन को एक अद्भुत अनुभूति होती है, जिसे सुनकर रोघजिन उसका मजाक उडाता है. मिशकिन उसके उत्तर में कहता है कि इस अनुभूति को किसी तर्क के द्वारा नहीं समझाया जा सकता है. ‘कुछ है’ जो मुझे आकर्षित करता है, जो नास्तिक कभी नहीं समझ सकता. इस ‘कुछ’ का सम्बन्ध सत्य, शिव और सुन्दर से है, जो प्रकृति, कला, मानवीय संवेदनाओं और आध्यात्मिकता में सुन्दरता को एक अद्भुत दृष्टि प्रदान करता है. इस तरह सच्चे सौंदर्यबोध में दुनिया को बचाने की तथा मानवता को ऊपर उठाने की सामर्थ्य है. दोस्तोवस्की के लिए सुंदरता एक प्रतीति ही नहीं है, बल्कि एक नैतिक आदर्श भी है. यदि हमें सुन्दर, सामंजस्यपूर्ण और द्वन्द्वरहित जीवन चाहिए तो वह तर्क से नहीं कला से ही संभव हो सकता है. उनका मानना है कि स्वयं विज्ञान सुंदरता के बिना एक मिनट भी नहीं टिक सकता है. जीवन के अंधेरे पहलुओं से स्वयं को उबार कर सत्य और प्रेम के समुद्र में गोते लगाना ही दोस्तोवस्की के प्रसिद्ध कथन "सौंदर्यबोध ही दुनिया को बचाएगा," का लक्ष्य है. यह लापरवाही में कहा गया कथन न होकर एक भविष्यवाणी है जो आने वाले समय में एक नई दिशा दे सकता है. हो सकता है कि आज विश्व में व्याप्त विद्रूपताओं और विकृतियों से मुक्ति हमें सौंदर्यबोध ही दिलाए।
****************

डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance प्रकाशित हुआ हुआ है।