अस्तित्व की उठान, सौन्दर्य का उन्मेष और नीति के नूपुर

डॉ मधु कपूर | अध्यात्म-एवं-दर्शन | Apr 22, 2025 | 94

डॉ मधु कपूर के पिछले लेख का प्रश्न कि मुझे अच्छा क्यों बनना है, इस बार भी कुछ दूर तक तो हमारे साथ चल रहा है और इस बार इस प्रश्न का उत्तर अस्तित्ववादी डेनिश दार्शनिक Søren Kierkegaard  के माध्यम से खोजा जाएगा। इसके अलावा भी लेख में बहुत कुछ है जिसका सार हम यहाँ तभी तो देते जब अपने पर यह विश्वास होता कि पूरी बात ठीक से समझ आ गई है। ऊपर वाले से दुआ है कि डॉ मधु कपूर मैम की यह क्लास चलती रहे ताकि हम और हमारे दोस्त जिनके लिए philosophy बिल्कुल नई चीज़ है, दर्शन-शास्त्र के हाशिये पर तो खड़े हो सकें!

अस्तित्व की उठान, सौन्दर्य का उन्मेष और नीति के नूपुर

डॉ मधु कपूर 
                                                   
हमें ‘अच्छा क्यों होना चाहिए’ इस प्रश्न का उत्तर अस्तित्ववादी डेनिश दार्शनिक Søren Kierkegaard  अपनी  कालजयी रचना Either/Or: A Fragment of Life, में आत्म-विभाजित द्वैत सत्ता ㄧAesthetic self और Ethical self ㄧ का संघर्ष उजागर करते है।  वे अक्सर रूपकों के माध्यम से अस्तित्व की आत्मिक उन्नति का उल्लेख करते है।  वे कहते है ‘हम ज्यादातर बहुमंजलीय इमारतों में निवास करते है, पर रहना पसन्द करते है तलकक्ष में।  वास्तव में अस्तित्व की शुरुआत तो यहीं से आरम्भ हो जाती है’।  प्राथमिक स्तर पर Aesthetic से उनका तात्पर्य ललित कला से न होकर ऐन्द्रिक सुख मात्र से है, जिसका सम्बन्ध न तो नैतिकता से होता है और न ही किसी परंपरा से।  उदाहरण के लिए बच्चें सहज रूप से यानी बिना किसी सोच विचार के चीजों को लपकने का प्रयास करते हैं।  उदाहरण के लिए आग की चमक को छूना चाहते हैं, रेंगता हुआ सांप पकड़ना चाहते है, चीजों को मुंह में डाल कर स्वाद चखना चाहते है, चाँद को पाना चाहते हैं।  इनसे होने वाले खतरों का उन्हें कोई एहसास नहीं होता है।  कहने का अर्थ है कि सुख की तलाश उनके के लिए न तो अच्छी होती है और न ही बुरी।  यह सिर्फ एक महज-सहज आकर्षण होता है, जिसे वह बिना किसी सोच-विचार के वे पाना चाहते  हैं। 

लेकिन सुख पिपासु व्यक्ति धीरे धीरे सुख के आकर्षण में इतना लिप्त हो जाता है कि वह नित  नए नए तरीकों से उसे पाने के लिए भटकता रहता है।  दुर्भाग्य यह है कि जितना अधिक वह सुख का सन्धान करता है उतना ही वह उसे पाने में विफल हो जाता है।  जिसे ‘सुख का विरोधाभास’ भी कहा जाता है।  कभी वह ब्रांडेड कपड़े खरीदता है, कभी सोशल मीडिया का अकाउंट चेक करता है, घंटों फ़ोन पर व्यर्थ की बातों में लगा रहता है इत्यादि।  एक ही काम को बारबार करने में उसे ऊब महसूस होती है, फलस्वरूप वह जीवन को व्यर्थ और मूल्यहीन समझने लगता है।  ऐसा व्यक्ति सभी सामाजिक सम्बन्धों से विच्छिन्न होकर एक निर्वासित कृत्रिम जिन्दगी बिताने को मजबूर हो जाता है।  आत्मनिर्वासन एक आधुनिक बोध है, जो व्यक्ति को आस्था की जमीन से खिसकाकर  स्वतंत्रता की  अँधेरी गलियों में धकेल देता है।  

वह सिर्फ दर्शक की तरह निष्क्रिय होकर सुख का उपभोग करना चाहता है, जैसे क्रिकेट मैच का लुत्फ़ उठाने वाला दर्शक।  खेल में उसकी कोई सक्रिय सहयोगिता नहीं होती है।  खेल की जटिलता और गंभीरता को वह जीवन में उपलब्ध नहीं करता है और इसी तरह का रवैया वह जिन्दगी के प्रति भी अपनाता है, फलस्वरूप जीवन में आने वाले संघर्षों का मुकाबला करने में असमर्थ हो जाता है।  इस तरह व्यक्ति एक भटकती आत्मा की तरह अपने  जीवन की एकात्मता को खो देता है। आधुनिक जीवन की यह बिडम्बना मूल्यबोध के अभाव को दर्शाती है।  किर्केगार्ड की रचना का एक बुर्जुआ लेखक कहता है : “मुझे कुछ करने की कोई इच्छा नहीं होती है।  मुझे चलने की इच्छा नहीं होती है क्योंकि वह थकान पैदा करता है, मुझे लेटने की इच्छा नहीं होती है..... या तो मुझे स्थिर होना पड़ेगा अथवा उठना पड़ेगा मुझे दोनों में से कुछ भी करने की इच्छा नहीं होती है। ”  वह सोचता है कि कुछ करने के लिए ‘अवसाद में  होना’ बहुत जरूरी है, जो एक तरह का विरोधाभास है कुछ ‘न करने का’।  

उनके अनुसार अवसाद से उबरने का एकमात्र उपाय है मूल्यों के प्रति विश्वास तथा सुख की खोज का अतिक्रमण कर अपने कर्तव्यबोध के प्रति जागरूक होना, क्योंकि जैसे ही हम भीड़ के साथ चलना शुरू कर देते है या निष्क्रिय भाव से परंपरा स्वीकार कर लेते है वैसे ही हम अपने दायित्व से पल्ला झाड कर खड़े हो जाते है।  सुख में निहित विरोधाभास और विसंगतियों से त्राण पाने के लिए आत्मचेतना को जाग्रत करना अनिवार्य है।  ‘कुछ न कर पाने का अपराध बोध’ यदि व्यक्ति को नैतिकता की ओर मोड़ दे तो aesthetic self उदात्त होकर समृद्ध हो जाती है।  इस स्तर को किर्केगार्ड नैतिक आत्मा की संज्ञा देते है।  नैतिक जीवन दायित्वों से भरा होता है, जो निराशा और उदासी से व्यक्ति को उबरने का मौका देता है तथा इसके मध्य सुख की तलाश का मार्ग भी प्रशस्त कर देता है। 
  
किर्केगार्ड बारबार चेतावनी देते है कि यह चुनाव व्यक्ति को स्वयं करना पड़ता है कि वह किस आत्मा का चयन करेगा ㄧ aesthetic self या ethical self।  यदि वह aesthetic self का  चुनाव करता है, तो  निराशा का चयन भी स्वतः ही हो जाता है और दायित्वहीन जीवन बिताने के लिए वह स्वतंत्र हो जाता है।  दूसरी ओर नैतिक आत्मा का चयन उसे दायित्वशील बनाता है।   उसके व्यक्तित्व में यह बदलाव  सही अर्थों में उसे कलात्मक उत्कर्ष देता है। 

अक्सर  नैतिकता के स्तर पर भी एक प्रकार का संकट मंडराता है, जब व्यक्ति की आस्थाएं डगमगाने लगती है, जैसा कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन के सामने नैतिक संकट उत्पन्न होता है ㄧस्वजनों का संहार अथवा धर्म की रक्षा।  यह संकट दुधारी तलवार की तरह है।  यद्यपि युद्ध से पलायन करने की इच्छा से यह खेल आत्मा ही खेलती है, और अर्जुन विषादग्रस्त हो उठता है।  लेकिन सभी परिस्थितियां स्पष्ट करने के बाद श्रीकृष्ण अर्जुन पर ही चयन करने का दायित्व छोड़ देते है।       
  
किसी एक प्रसंग में विचारपति विल्हेल्म (ग्रन्थ का एक पात्र), चुनौती देता है कि “क्या तुम नहीं जानते कि मध्य रात्रि में हम सभी अपने अपने मुखौटे उतार देते है, इस मुखौटे को  छिपाने के लिए कहीं और पलायन करने का ढोंग रचते है।’ व्यक्ति अपने द्वैत अस्तित्व की विडम्बना का शिकार होकर असली पहचान खो देता है।  मनुष्य अपनी अंतर्विरोधों की इस पीड़ा का अंत आत्म-सचेतन होकर ‘विश्वास की एक छलांग’ (leap in faith) लगाकर तीसरे स्तर में प्रवेश करके कर सकता है।  इस स्तर को किर्केगार्ड आध्यात्मिकता का स्तर या Religious self कहते है।  

रजत कपूर द्वारा निर्देशित तथा संजय मिश्र द्वारा अभिनीत “आँखों देखी”, फिल्म का उल्लेख यहाँ प्रासंगिक होगा।  यह एक बूढ़े पात्र बाउजी की कहानी है, जिसका विश्वास सिर्फ उन्हीं चीजों पर है  जिन्हें वह देखता है और अनुभव करता है।  इसी  विचारधारा के तहत वह किर्केगार्ड के विचारों का प्रवक्ता बन जाता हैㄧ 'बात एक सत्य को खोजने की है, जिसके लिए मैं जी सकता हूँ या मर सकता हूँ। ” फिल्म में बाउजी का किरदार प्रतिबद्ध है उड़ान का अनुभव प्राप्त करने के लिए, जो स्वेच्छा से लिया गया उसका निर्णय है।  जब कुछ लोग बाउजी का अनुसरण भक्त की तरह करने लगते है, तो वह उन्हें अपना सत्य खोजने की सलाह देता है।    बॉक्स ऑफिस की दृष्टि में असफल होने पर भी फिल्म एक नई दार्शनिक ऊँचाईयां छू लेती है।  

कुछ आलोचक किर्केगार्ड पर पारम्परिक ‘सुन्दरता की धारणा’ को  तोड़ने का आरोप लगाते हैं, क्योंकि वे अपनी अस्तित्ववादी विचारों के तहत कला के असली उद्देश्य की उपेक्षा कर जाते है।  हालाँकि The Concept of Irony प्रबंध में वे सार्थक और गतिमान जीवन के लिए कला के मूल्य को नकारते नहीं है।  वे स्वयं लेखक थे।  वे लोगों को कवि की तरह सूक्ष्म अनुभूतियों को वास्तव जीवन में हर क्षण उपलब्ध करने की सलाह देते थे।  जीवन की सार्थकता  निर्भर करती है व्यक्ति कैसे अपनी  आत्मा में निहित आत्मीयता की खोज करता है एवं उसके सबसे अँधेरे कक्ष यानी अर्थहीनता को मूल्यवान बनाने में जुट जाता है।  जब तक कला हमारे अँधेरे-कक्ष को उजागर न करे वह बेकार है।  

किर्केगार्ड मानते है कि सुन्दरता और नैतिकता के बीच ‘विडंबना’ एक धाई का काम करती है जो व्यक्ति को नवजन्म देकर एक झूठी जिन्दगी से बचा कर प्रामाणिकता का कवच प्रदान करती है।    

उनके अनुसार अर्थहीनता का बोध कृत्रिम एहसास नहीं है, क्योंकि इसी बिडम्बना के माध्यम से व्यक्ति अपनी अंदरूनी अर्थपूर्ण अनंत सम्भावनाओं की तलाश करता है।  स्वच्छ आकाश की तरह खाली कैनवास से इसकी तुलना की जा सकती है, जिसमें बादल के टुकड़े इधर-उधर मंडराते रहते है, जिन्हें सृजन-बिंदु कहा जा सकता है।  इस तरह अर्थहीनता अथवा विसंगतियों की विडम्बनाएँ सत्य नहीं होती है, पर सत्य का मार्ग जरूर दिखलाती है।  सुख हमें निराश जरूर करता है पर सम्भावनायें हमें रास्ता दिखलाती है, तभी हम सही अर्थों में Aesthetic जीवन यापन कर सकते है।  किर्केगार्ड इसे संभ्रान्त सौंदर्य (sophisticated Aestheticism) की संज्ञा देते है।   जिस तरह अभिनेता अपने वस्त्र और किरदार को प्रसंगानुसार बदलता रहता है, उसी तरह व्यक्ति अपनी जीवन पद्धति को परिवर्तित कर सृजनशील बना सकता है।  इस तरह कला का मूल्य आत्म-सापेक्ष होता है, निरपेक्ष नहीं।   कला हमें विडम्बनाओं से बाहर निकालकर अंतर्दृष्टि की गहराई में प्रवेश करने का द्वार खोल देती है, जिससे हम कृत्रिम जिंदगी से निजात पा सकें।   इस तरह हमारी हर रचना, चाहे वह रसोईघर में खाना बनाना हो या कागज में उकेरी लकीरें हो या जूता सिलाई करना हो, एक नया मोड़ पा जाती है।  इस तरह व्यक्ति सब कुछ खोकर कला का मूल्य पाता है।  यह एक भविष्यवाणी है।  इस प्रसंग में निर्मल वर्मा के शब्द आशा के उन्मेष का संचार करते है: ‘एक बार फिर बोधवृक्ष का फल चखना पड़ेगा, ताकि हम अपनी निर्बोध अवस्था में पहुँच सकें।’ 

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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance प्रकाशित हुआ है।



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