ये ‘खिचड़ी’ उतनी बेस्वाद भी नहीं होती...

विद्या भूषण अरोरा | समाज-एवं-राजनीति | Jan 23, 2019 | 62

‘खिचड़ी सरकारों’ का कार्यकाल आर्थिक विकास के लिए अच्छा ही रहा है!

आज की बात

आजकल व्हाट्सएप्प और सोशल मीडिया पर राजनीति के नाम पर जो संदेश आ रहे हैं, उन्हें दो श्रेणियों में रखा जा सकता है। पहली श्रेणी है ऐसे संदेशों की जो राजनीति के नाम पर नफरत फैलाते हैं। हम उस श्रेणी के संदेशों पर कोई चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि इस स्तंभकार का मानना है कि वैसी बातों पर कोई तर्कपूर्ण चर्चा नहीं हो सकती।

दूसरी श्रेणी के संदेश हैं जिनमें महागठबंधन, सपा-बसपा गठबंधन और अन्य किसी भी प्रकार के संभावित गठबंधनों की आलोचना की जाती है और बताया जाता है कि क्यूँ एक स्थिर सरकार की आवश्यकता है। कभी कभी तो इन संदेशों में मिली-जुली सरकारों का ऐसा मज़ाक बनाया जाता है कि जैसे वो कोई बहुत बड़ा हव्वा हों और किसी देश का ये बहुत दुर्भाग्य होगा कि उसे मिली-जुली सरकार मिले।

क्या ये सही है कि मिली-जुली सरकारें देश और उसकी अर्थ-व्यवस्था के लिए ठीक नहीं रहतीं?

पिछले वर्ष अगस्त महीने में हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप के आर्थिक मामलों के अखबार मिंट (www.livemint.com) ने एक विश्लेषण किया था। इस विश्लेषण के निष्कर्ष बहुत रोचक थे। ऐसे कि जिनकी हमने कल्पना भी ना की थी।

इस विश्लेषण का निष्कर्ष ये था कि ‘कोलिशन’ सरकारों या मिले-जुले दलों की सरकारों के समय ना केवल भारत में ये प्रवृत्ति रही बल्कि विदेशों में भी जहां-जहां मिले-जुले दलों की सरकारें थीं, वहाँ ना केवल अर्थव्यवस्था पर कोई खराब असर नहीं पड़ा बल्कि बहुत सारे मामलों में इसी वजह से आर्थिक प्रगति ज़्यादा तेज़ी से हुई।

मिले-जुले दलों की सरकारों को जिस तरह “खिचड़ी सरकार” कहकर बदनाम किया जाता है, और जिस तरह हमारी ‘मेंटल-कंडीशनिंग’ हो चुकी है, उसमें ऐसी बात सुनना भी एक तरह से झकझोर सा देता है कि आर्थिक प्रगति “खिचड़ी सरकार” के समय बेहतर होती है। यदि आप चार्ट और ग्राफ से ऐसी बातें समझना चाहते हैं ऊपर दिये गए लिंक पर जाकर विस्तार से समझ सकते हैं।

उपरोक्त विश्लेषण में यह स्पष्ट बताया गया है कि अस्सी के दशक के बाद से जब भारत की राजनीति अलग अलग दलों में खंडित होने लगी, तब से आर्थिक विकास बेहतर ही हुआ।

आप कह सकते हैं कि चाहे वह अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग की खिचड़ी सरकार हो या फिर उसके बाद बनी यूपीए की खिचड़ी सरकार और या उससे भी पहले देवगौड़ा के नेतृत्व वाली मिली-जुली सरकार, इनमें से कोई भी सरकार देश में आर्थिक मंदी की दोषी नहीं ठहराई जा सकती। इसके उलट इनके समय में आर्थिक प्रगति बेहतर ही हुई।

इतना ही नहीं कुछ राजनीति शास्त्री ये भी कहते हैं कि ‘खिचड़ी सरकारों’ के समय ज़्यादा ‘inclusive policies’ या समावेशी नीतियाँ बनती और लागू होती हैं। इसका कारण है कि ‘खिचड़ी सरकारों’ में ज़्यादा समूहों और समुदायों का प्रतिनिधित्व होता है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि हमारे जैसे देश में जहां अलग-अलग भाषा-बोली, अलग-अलग धर्म और फिरकों के लोग रहते हैं, देश की एकता बनाए रखने के लिए समावेशी नीतियों का होना कितना महत्वपूर्ण है।

अगर यूपीए की दो ‘खिचड़ी सरकारों’ का कार्यकाल देखें तो पाएंगे कि यूपीए की पहली सरकार जब वह सहयोगी दलों पर बहुत ज़्यादा निर्भर थी, उस समय उसने कई बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय लिए थे। एक निर्णय था ‘नरेगा’ NREGA योजना लाने का जो ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार देने की विश्व-प्रशंसित योजना के रूप में सामने आई।

इसी तरह सूचना का अधिकार (RTI) भी उसी दौरान 2005 में लागू हुआ। पाठकों को स्मरण होगा कि आज की सरकार की तरह उस समय की सरकार के भी कई महत्वपूर्ण लोग इस अधिकार को लेकर सहज नहीं थे किन्तु ‘प्रैशर ग्रुप्स’ (जो ‘खिचड़ी सरकारों’ के कार्यकाल में अक्सर पर काफी प्रभावी होते हैं), के दबाव में सरकार को आरटीआई लाना पड़ा।

लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि इस narrative या इस प्रचलित कथा से कि ‘खिचड़ी सरकार’ बुरी होती है, विपक्ष का गठबंधन कैसे निपटेगा?

उसमें सबसे बड़ी बाधा ये है कि विपक्षी दलों में किसी के भी हाथ दूध से धुले नहीं हैं। सबसे बड़ा विपक्षी दल कॉंग्रेस ही लें – लोग आज जब एमरजेंसी जैसे हालातों की बात करते हैं तो सबसे पहले कॉंग्रेस का ही दोष सामने आता है। इस बात से भी नहीं मुकरा जा सकता कि संवैधानिक संस्थानों को भी कॉंग्रेस ने ही सबसे पहले नुकसान पहुंचाना शुरू किया था। इसके अलावा बाकी विपक्षी दलों के खिलाफ भी तरह-तरह की बातें हैं जिनमें सबसे प्रमुख भ्रष्टाचार तो है ही।

ऐसे में एक चीज़ जो कारगर हो सकती है वो है कि नीयत में ईमानदारी नज़र आनी चाहिए। वो कैसे होगा? वो हो सकता है अगर

(1) अलग-अलग दल अपनी पिछली भूलों की चर्चा निस्संकोच करें और उनके लिए खेद प्रकट करते हुए कहें कि हम सुनिश्चित करेंगे कि आगे ऐसा न हो,

(2) वो सीटों के बँटवारे के समय लड़ते हुए नज़र ना आयें बल्कि उसमें भी सभी उदारता और पारदर्शिता बरतें।

(3) विपक्षी दल के नेता अपने भाषणों और बयानों में लगातार ये बताएं कि ‘खिचड़ी सरकारों’ का कार्यकाल विश्व में और भारत में कहीं भी खराब नहीं रहता।

(4) Common Minimum Programme (CMP) अर्थात न्यूनतम साझा कार्यक्रम जो व्यवहारिक और लागू किया जाने लायक लगे, जल्दी से जल्दी बना लें और उसे public discourse का हिस्सा बनाएँ, जनता में उस पर लगातार चर्चा करें और

(5) जहां-जहां उनकी सरकारें हैं, वहाँ आचार-संहिता लागू होने से पूर्व गंभीरता से कुछ जन-कल्याणकारी योजनाओं पर कार्यान्वयन करें क्योंकि जैसा कि कहते हैं काम बोलता है तो उससे उनको अपने आप सकारात्मक प्रचार मिलेगा।  

....विद्या भूषण अरोरा



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