प्रधानमंत्री और राजीव गांधी व चुनाव आयोग का रवैय्या

विद्या भूषण अरोरा | मीडिया-मंच | May 07, 2019 | 108

अखबारों से – 7

प्रधानमंत्री द्वारा राजीव गांधी के लिए अनुचित भाषा प्रयोग

महात्मा गांधी के पौत्र एवं चक्रवर्ती राजगोपालाचार्या के नाती राजमोहन गांधी ने अपनी पहचान विचारक, दार्शनिक एवं लेखक में ज़्यादा बनाई है बनिस्पत इन दो महान नेताओं के रिश्तेदार के रूप में। उनके बारे में एक खास बात ये है कि अमेरिका के नामी विश्वविद्यालयों में पढ़ाने के साथ साथ, राजमोहन गांधी ने भारत से एक सक्रियकर्मी (एक्टिविस्ट)  के रूप में भी हमेशा जुड़ाव रखा है। उसी सक्रियकर्मी स्वभाव के चलते राजमोहन गांधी ने दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी के विरुद्ध 1989 में जनता दल उम्मीदवार के रूप में लोकसभा चुनाव लड़ा था।

इन्हीं राजमोहन गांधी को इस बात से बहुत तकलीफ पहहुंची है कि प्रधानमंत्री मोदी ने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले में एक रैली को संबोधित करते हुए स्वर्गीय राजीव गांधी को भ्रष्टाचारी न्ंबर 1 बताया। कई लोगों ने प्रधानमंत्री की इस बात के लिए कड़ी आलोचना की किन्तु राजमोहन गांधी की इस संबंध में आलोचना अधिक महत्व रखती है क्योंकि उन्होंने राजीव गांधी के विरुद्ध उस समय चुनाव प्रचार किया और देखा था जब बोफोर्स से संबंधित आरोप नए नए थे।

इंडियन एक्सप्रेस में अपने लेख में राजमोहन गांधी लिखते हैं कि 1989 में जब राजीव गांधी के विरुद्ध प्रचार के लिए मुलायम सिंह यादव और वी पी सिंह (जो इस चुनाव के बाद प्रधान मंत्री बने) अमेठी आए तो इन दोनों में से किसी ने भी अपने भाषणों में बोफोर्स का नाम नहीं लिया। इसके बाद अमेठी से राजीव गांधी के हाथों हारने के बाद राजमोहन गांधी को उत्तर प्रदेश विधानसभा से राज्य सभा में भेजा गया।  राजमोहन गांधी लिखते हैं कि उस दौरान राजीव गांधी से उनकी संसद भवन में कई बार भेंट हुई और हमेशा बहुत अच्छी बातचीत हुई। वह लिखते हैं कि उन दिनों भी ऐसा मानने वाला उन्हें कोई संसद सदस्य या राजनीतिज्ञ नहीं मिला जो उन्हें बोफोर्स मामले में व्यक्तिगत रूप से दोषी मानता हो। और यदि कोई ऐसा मानता हो कि राजीव गांधी ने भ्रष्टाचार को सहन कर लिया (होने दिया) तो वो उनकी नृशंस हटाया के 28 वर्ष बाद उनके पुत्र से ये तो नहीं कहेगा कि तुम्हारे पिता की मौत भ्रष्टाचारी नंबर वन के रूप में हुई।

राजमोहन गांधी ने प्रधानमंत्री की आलोचना के अलावा इस लेख में राहुल गांधी की संयमित प्रतिक्रिया (जिसमें उन्होने मोदी जी के लिए प्यार भेजा) की भी बहुत तारीफ की है और कहा है कि चुनाव कोई भी जीते या हारे, लेकिन राहुल गांधी की ये प्रतिक्रिया इतिहास में एक विशिष्ट रूप में दर्ज रहेगी।

चुनाव आयोग का रवैय्या निराशाजनक

“अभी जब मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने यह कहा कि आयोग में महत्वपूर्ण मामलों पर निर्णय में असहमति के बिन्दुओं को गुप्त रखा जाना चाहिए, तो उन्होने लोकतन्त्र की मूल भावना का अतिक्रमण किया है”। यह कहना है आज के इकानॉमिक टाइम्स के संपादकीय का जो कल इसी अखबार में प्रकाशित एक खबर पर आधारित है जिसमें बताया गया था कि तीन में से एक आयुक्त ने प्रधान मंत्री को क्लीन चिट देने के मामले में असहमति जताई थी और साथ ही उन्होने ये भी अनुरोध किया था कि उनकी असहमति को निर्णय में बताया जाये और सार्वजनिक किया जाये। उनका ये अनुरोध नहीं माना गया और मुख्य चुनाव आयुक्त ने यह व्यवस्था दी कि असहमति को सार्वजनिक नहीं किया जाएगा।

इस संपादकीय में आगे कहा गया है कि यदि चुनाव प्रक्रिया ही आम लोगों की नज़र में शक के दायरे में आ जाएगी तो आम राय के आधार पर सरकार चुने जाने पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाएगा। सभी निर्णयों को पूरी पारदर्शिता के साथ सार्वजनिक किए जाने से ही उनकी निष्पक्षता में आम जन का विश्वास जमेगा। ये आगे लिखता है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सुप्रीम कोर्ट को आयोग को याद दिलाना पड़ा कि इसे कुछ शिकायतों पर कार्यवाही करनी है और तब जाकर वह आगे बढ़ा।

वायुसेना के लिए चिंता

भारतीय वायु सेना के एक पूर्व उच्चाधिकारी एयर वाइस मार्शल मनमोहन बहादुर का टाइम्स ऑफ इंडिया में एक लेख आया है जिसमें उन्होने इस बात पर गहरी चिंता ज़ाहिर की है कि यदि एयर फोर्स के लिए योजनाबद्ध ढंग से खरीददारी करने की तैयारी ना की गई तो उसकी ताकत अगले कुछ वर्षों में घटती जाएगी। इसके लिए उन्होने सबसे ज़रूरी लेकिन मुश्किल लगने वाला सुझाव ये दिया है कि अगली किसी भी बड़ी खरीद के लिए सरकार को विपक्ष को भी विश्वास में लेकर आगे बढ्न चाहिए ताकि एक दूसरे पर आरोपों की जो साइकिल चलती रहती है, उस पर अंकुश लग सके।

मनमोहन बहादुर पूछते हैं कि क्या राजनीतिक दल क्षुद्र राजनीति स्वार्थों से ऊपर उठकर ये काम कर सकेंगे क्या?

हमारा मत: आदर्श स्थिति की बात करें तो उनका ये सुझाव बहुत ही अच्छा है लेकिन व्यवहार में देखें तो फिलहाल इसका लागू करना बहुत मुश्किल लग रहा है। इसका कारण ये है कि मोदी सरकार ने विपक्ष से संबंध बहुत ही खराब कर लिए हैं और कांग्रेस के लिए यह बहुत ही मुश्किल होगा कि वह सब कुछ भूलकर देशहित में अचानक इस मामले में साथ देने लगे। यदि ऐसा होता है तो वो चमत्कार से कम नहीं होगा। अभी तक की स्थिति तो ये है कि विरोधी दलों को साथ लेना तो दूर, भाजपा ने विपक्ष की लगातार मांग के बावजूद राफेल मामले पर एक संयुक्त संसदीय समिति तक बनाने को राज़ी नहीं हुई जबकि संख्या बल के मामले में उसका इस समिति में भी आराम से बहुमत रहता।

न्यायायिक प्रक्रिया पर प्रश्न उठना जारी

यौन शोषण मामले में सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा दांव पर है। अब जब इसकी जांच के लिए बनाई गई समिति ने अपनी रपट भी सौंप दी है और मुख्य न्यायाधीश पर लगे आरोपों से उन्हें समिति ने मुक्त कर दिया है तो एक बार फिर पूरी प्रक्रिया पर सवाल उठ रहे हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता और बार काउंसिल के भूतपूर्व अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने आज फिर एक और लेख हिन्दू अखबार में लिखकर सुप्रीम कोर्ट के सभी न्यायाधीशों का आह्वान किया है कि उन्हें न्यायालय का सम्मान बचाने के लिए आगे आना चाहिए और इस महान संस्थान को इस संकट से बाहर आने में मदद करनी चाहिए।

दवे ने इस लेख में बिना संकोच के ये लिखा है कि पीड़िता द्वारा अपनी शिकायत के साथ दिया गया हलफनामा सच्चा और ईमानदारी से लिखा गया लगता है। इसमें दिया गया ब्यौरा हृदय-विदारक है। ये ब्यौरा आधिकारिक रेकॉर्ड से मेल खाता है और दुष्यंत लिखते हैं कि इन ब्योरों से ऐसा लगता है कि महिला, उसके पति और अन्य रिशतेदारों को राज्य की मशीनरी जिसमें सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री भी शामिल है, की तरफ से खासा प्रताड़ित (victimize) किया गया है।

हमारा मत: हम इस मामले में अपनी तरफ से क्या कह सकते हैं क्योंकि कानून की बारीकियाँ तो नहीं हमें नहीं मालूम लेकिन इतना स्पष्ट है कि जो हो रहा कुछ ठीक नहीं हो रहा – तभी सिर्फ दुष्यंत ही नहीं अन्य बहुत सारे कानूनविदों ने और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस पूरे प्रकरण पर चिंता ज़ाहिर की है। चिंता की बात तो है ही क्योंकि यदि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ही सही उदाहरण नहीं रखा तो आने वाले वर्षों में इसके लिए ऐसे मामलों में सही फैसले लेना ही मुश्किल हो जाया करेगा।

विद्या भूषण अरोरा



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