मतदाताओं की ज़िम्मेवारी है संविधान और लोकतन्त्र को मजबूत करने की

विद्या भूषण अरोरा | समाज-एवं-राजनीति | Mar 20, 2019 | 132

आज की बात

इस समय तक देश में पूरा माहौल चुनावमय हो चुका है और सभी राजनीतिक दल अपने-अपने प्रभाव-क्षेत्रों में अपनी पूरी ताकत झोंक रहे हैं। वैसे तो लोकसभा का हर चुनाव ही बहुत महत्वपूर्ण होता है लेकिन देश में पिछले पाँच वर्षों में जिस तरह की राजनीति हुई है, उसके चलते ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि अगर वैसी ही राजनीति को अगर वैध तरीके से और पाँच साल मिल गए तो फिर भाजपा के भगवाधारी नेता साक्षी महाराज का ये वक्तव्य कि अगर 2019 में मोदी वापिस आ गए तो फिर 2024 में चुनाव की ज़रूरत ही नहीं होगी, किसी ना किसी रूप में सच हो सकता है।

इस बात को यूं भी कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी शैली की सरकार और अमितशाह शैली की पार्टी – यदि ये दोनों शैलियाँ इसी तरह मिलकर जुगलबंदी में काम करती रहीं तो भारतीय समाज में विखंडन की प्रक्रिया का खतरा बन सकता है जो किसी भी तर्क से देश-हित में नहीं कहा जा सकता। देश-हित तो छोड़िए, अगर भारतीय समाज की दरारें गहरी होती गईं, तो इससे किसी भी तरह का हिन्दू-हित भी नहीं सधने वाला।

इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि पिछले पाँच वर्षों में ना सिर्फ अल्प-संख्यक वर्ग ने बल्कि दलितों और आदिवासियों ने भी अपने को ज़्यादा प्रताड़ित महसूस किया है। यदि लंबे समय तक समाज का कोई भी वर्ग अपने को प्रताड़ित या असुरक्षित महसूस करेगा तो इससे देश में एक स्थायी तनाव जैसी स्थिति बन जाएगी। इससे ना केवल पूरे समाज पर खराब असर पड़ेगा बल्कि देश की आर्थिक प्रगति के लिए भी यह बहुत ही खराब होगा। आज हम वैश्विक अर्थव्यवस्था से पूरी तरह से जुड़े हैं और यदि देश की आंतरिक स्थिति में किसी भी तरह का तनाव हो तो उसका असर तुरंत हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ता है – विदेशी निवेशकों से लेकर पर्यटन तक – सभी कुछ नकारात्मक रूप से प्रभावित होने लगता है।

पिछले पाँच वर्षों में जिस तरह से विश्वविद्यालयों, सीबीआई, न्यायपालिका और अन्य संस्थानों को कमजोर किया गया है, उसे देखते हुए ये लगता है कि अगर ऐसी विचारधारा को एक बार फिर अवसर मिला तो देश जिस संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत अब तक चल रहा है, उसका इस रूप में रहना फिर लगभग असंभव ही हो जाएगा। यह अलग बात है कि पिछले पाँच वर्षों में संविधान बदलने की कोई प्रत्यक्ष कोशिश नहीं हुई लेकिन ऐसी कई बातें हुईं जो संविधान की मूल भावना के विपरीत थीं। ऐसा नहीं है कि इसके पहले की सरकारें सभी काम संविधान की मूल भावना के अंतर्गत करतीं थीं लेकिन पहले और अब में अंतर ये है कि तत्कालीन सरकारों में ‘कोर्स-करेकशन’ या गलती-सुधार आम-तौर पर अंदर से ही हो जाता था लेकिन अब ऐसा लगता है कि जैसे अंदर से ही ऐसी गलतियों को शह दी जाती है।   

ऐसे में इन चुनावों का ना सिर्फ संबद्ध राजनीतिक दलों के लिए बल्कि देश और समाज के लिए भी खासा महत्व है। यदि देश के मतदाता ने बहुसंख्यकवाद की भावना में बहकर (या ये सोचकर कि भाजपा के जीतने से हिन्दू हित मजबूत होंगे) 2014 जैसा बहुमत भाजपा को फिर एक बार दे दिया तो निश्चित ही हमें एक बदली हुई व्यवस्था के लिए तैयार रहना होगा। आप कह सकते हैं कि यदि व्यवस्था बदलती भी है तो इसमें क्या बुराई है क्योंकि पिछली व्यवस्था से भी देश को आखिर क्या लाभ हुआ है? आज़ादी के सत्तर वर्ष बाद भी देश में भ्रष्टाचार, गरीबी और रोटी-कपड़ा-मकान की समस्याएँ जस की तस बनी हुई हैं।

यदि हमें भी नई संभावित व्यवस्था में इसकी कोई संभावना दिखाई पड़ती कि उसमें गरीबी दूर होगी और देश के हर नागरिक को गरिमापूर्ण ढंग से रोटी-कपड़ा-मकान और स्वास्थय जैसी बुनियादी सुविधाएं मिलेंगी तो हमें क्या आपत्ति हो सकती थी? लेकिन पिछले पाँच वर्षों में सरकारी नीतियों के चलते जिस प्रकार से किसान पहले से कहीं ज़्यादा संकट में आ गया है, जिस तरह बेरोजगारी अपने सबसे बड़े स्तर पर पहुँच गई है और जिस तरह वन-अधिकार कानून (FRA) और ग्रामीण रोजगार सुरक्षा अधिनियम (MNREGA) जैसे क़ानूनों को कमजोर किया गया है, यह सब देखते हुए इस बात की कतई संभावना नहीं है कि यदि सरकार की यही दिशा और प्रवृत्ति आगे भी जारी रही तो उसके परिणाम-स्वरूप बदली हुई व्यवस्था समाज के व्यापक हित में होगी।

यह सब तो हुईं ऐसी बातें जिनसे ये साबित हो कि मोदी सरकार की नीतियाँ आमतौर पर किसान और गरीब विरोधी रही हैं और तमाम दावों के बावजूद देश की आर्थिक व्यवस्था भी पिछले पाँच वर्षों में पहले की बनिस्पत खराब ही हुई है। लेकिन इन सबसे ज़्यादा खतरनाक बात ये है कि पिछले पाँच वर्षों में इस सरकार ने, अपनी पार्टी और अपनी उस संस्था जिससे उनकी पार्टी निकल कर आई है, अर्थात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडा को जिस तरह लागू किया है, वह देश के संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। इस दौरान एक तरह का अभियान जैसा चला है जिसके तहत संविधान के खिलाफ बिना कुछ प्रत्यक्ष रूप से कहे, संविधान की मूल भावना का बार-बार उल्लंघन हुआ है।

पिछले पाँच वर्षों में सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े लोगों ने जिस तरह से अल्पसंख्यकों के खिलाफ बीच-बीच में ब्यान दिये और जिस तरह से सरकार की तरफ से उनके विरुद्ध कोई कारवाई तो दूर, उनको वैसा ना करने की कोई चेतावनी तक नहीं दी गई, उससे स्वाभाविक तौर पर अल्पसंख्यकों के मन में असुरक्षा का भाव मन में आ जाता है। ऐसी कोई भी व्यवस्था जिसमें जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा अपने को असुरक्षित समझेगा, दीर्घकाल में देश और समाज के लिए अच्छी नहीं हो सकती।

चाहे वह गौ-रक्षकों द्वारा की गई नृशंस हत्याओं का मामले हों या दलित प्रताड़णा के मामले – ऐसे सभी मामलों पर प्रधानमंत्री द्वारा कुछ देरी में लगाई गई सार्वजनिक फटकार के बावजूद संदेश यही गया कि इस तरह के मामलों में शामिल लोगों को अपराधी की तरह डील करने की बजाय एक राजनीतिक व्यक्ति की तरह डील किया जाएगा। कई बार तो ये भी हुआ कि ऐसे अपराधियों की कानूनी और आर्थिक मदद के लिए लोगों ने खुले-आम पैसा जमा करने की मुहिम चलाई। राजस्थान के राजसमंद में शंभुलाल रैगड़ के लिए लोगों ने तीन दिन में तीन लाख रुपए जमा कर दिये थे। ये वही अपराधी था जिसने ‘लव-जिहाद’ के विरोध में एक मुस्लिम श्रमिक को ज़िंदा जला दिया था।

इसी तरह सोशल मीडिया पर जिस तरह सरकार विरोधियों को देशद्रोही कहकर मुहिम चलाई जाती है और जिस तरह से विश्वविद्यालयों में या अन्य सार्वजनिक सभाओं में सरकार विरोधी लोगों को बोलने ही नहीं दिया जाता, उससे पता चलता है कि यह सब एक सुनियोजित सोची-समझी नीति के तहत हो रहा है। इस तरह से संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार को किसी ना किसी तरह दबाया जा रहा है।

मोदी सरकार से अपने टेलीविज़न शोज़ के माध्यम से बेधड़क सवाल पूछने वाले पुण्यप्रसून वाजपेयी को कुछ महीने पहले पहले एबीपी टीवी चैनल से निकाला गया और अभी कल देर रात में ये खबर आई कि उसे सूर्य समाचार टीवी चैनल से भी निकाल दिया गया है जहां उसने अभी महीना भर पहले ही काम शुरू किया था। mediavigil.com नामक वेबसाइट ने ये आरोप लगाया है कि यह कार्यवाही एक ‘डील’ के रूप में हुई है।

अगर ये रिपोर्ट सही ना भी हो तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पिछले पाँच वर्षों में मीडिया को साधने के लिए जो जो किया गया, वो आपातकाल को छोडकर किसी भी पूर्व सरकार ने नहीं किया। इसीलिए इस संदर्भ में आजकल लोग इन्दिरा गांधी द्वारा लगाई गई ‘एमरजेंसी’ के उन्नीस महीनों को याद करते हैं जब स्वतंत्र मीडिया पर कई प्रतिबंध लगाए गए थे। आजकल बिना आपातकाल लगाए ही मीडिया को ऐसी हालात मे पहुंचा दिया गया है कि एक-आध अपवाद को छोड़ दें तो मीडिया ने सवाल पूछना ही बंद कर दिया है जबकि एक स्वस्थ लोकतान्त्रिक समाज में मीडिया का काम ही यही होता है।

कुल मिलकर ये कि ये चुनाव देश के मतदाता के समक्ष एक तरह वो मौका है जब वह अपने मौलिक अधिकारों को बचाने के लिए और समाज में समरसता और सौहार्द को बढ़ाने के लिए या कम से कम इसी स्तर पर बनाए रखने के लिए अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा के विकल्प के रूप में वह चाहे कांग्रेस हो या अन्य क्षेत्रीय दल, उन सबकी अपनी सीमाएँ हैं और फिर कांग्रेस पर तो आपातकाल थोपने का भी दाग है लेकिन फिलहाल सबसे बड़ा खतरा उस विचारधारा की तरफ से है जो इस संविधान के मूल स्वरूप को ही बदलकर इस देश के अलग अलग पहचान वाले समुदायों को एक ही साँचे में ढालना चाहते हैं जिसे वह ‘हिंदुत्व’ कहते हैं। इसलिए एक जागरूक मतदाता के तौर पर फिलहाल हमारा कर्तव्य है कि हम संविधान बचाने के पक्ष में ही अपना वोट डालें।

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-विद्या भूषण अरोरा



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