धन की श्रेष्ठ गति दान ही है
*सुज्ञान मोदी
पिछले लगभग सवा वर्ष में जब से हमारे देश में कोविड-19 के मामले बढ्ने लगे हैं, समाज के प्रबुद्ध जनों के समक्ष एक बार फिर से सेवा और परोपकार से सीधे जुड़ने का अवसर आया है। वैसे एक सच यह भी है कि स्वतन्त्रता के उपरांत देश की चहुंमुखी प्रगति के बावजूद सेवा और परोपकार की आवश्यकता कभी खत्म नहीं हुई और इसका सबसे बड़ा कारण शायद यही है कि विकास की दिशा एकतरफा रही और विकास के लाभ उस आखिरी आदमी तक नहीं पहुँच सके जिसे गांधीजी अपने हर काम के केंद्र में रखने को कहते थे। हालांकि इस पर चर्चा फिर कभी करेंगे और आज हम सेवा और परोपकार (दान भी जिसका एक हिस्सा है) के सामाजिक एवं आध्यात्मिक पहलुओं पर ही अपने इस लेख को सीमित रखेंगे।
दान की चर्चा तो यूं हमारे शास्त्रों में सैंकड़ों जगहों पर मिल जाएगी लेकिन इस संदर्भ में राजा भर्तृहरि ने नीतिशतक में एक छोटे से श्लोक में बहुत गहरी बात कही है:
दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयः भवन्ति वित्तस्य। यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति।। अर्थात दान, भोग और नाश - धन की यही तीन गतियाँ होती हैं। जिसने न दान दिया और न उसे भोगा तो उसके धन की तीसरी गति होती है। दान धन की सर्वश्रेष्ठ गति कही गई है। भारतीय दर्शन और धार्मिक साहित्य में दान की बहुत उदात्त कहानियाँ बताई गईं हैं। इस लेखक की भांति आप सभी ने भी अपने बालपन से ही राजा बलि, दानवीर कर्ण, राजा हरिश्चंद्र, राजा भोज, महर्षि दधीचि और (अपने पिता के कृपण व्यवहार से असंतुष्ट) नचिकेता की कथाएँ तो सुनी ही होंगी। इन सभी कथाओं का धार्मिक और दार्शनिक साहित्य में विद्यमान होना इस बात का प्रमाण है कि हमारे यहाँ दान, परोपकार और परस्पर सहयोग जैसी भावनाओं को उच्च स्थान दिया जाता रहा है।
हमारी पौराणिक परम्पराओं में दान के कई भेद गिनाए गए हैं जिनके विस्तार में जाने की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं है। जैन शास्त्रों में अन्न-दान, औषध-दान, शास्त्र-दान, ज्ञान-दान सबसे बड़े दान कहे गए हैं। फिर जीव-दया का भी महत्वपूर्ण स्थान है। हम केवल संपत्ति और वस्तु के रूप में ही नहीं, बल्कि शब्द, समय और श्रम के रूप में भी समाज को लौटा सकते हैं क्योंकि हम जिस भी रूप में जितना भी लौटाएँ, वह समाज द्वारा हम पर किए गए उपकार की तुलना में कम ही होगा। हम जहाँ और जिस भूमिका में भी हों, वहीं की अनुकूलता के अनुसार हम समाज को लौटा सकते हैं। महात्मा गांधी तो शारीरिक श्रम हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य मानते थे।
हम सभी अपने-अपने जीवन में सुख, शांति और आनंद ढूंढ़ रहे होते हैं। इनकी प्राप्ति परस्पर योगदान और सहयोग से ही संभव होती है। आपस में एक-दूसरे के लिए परस्पर योगदान ही सेवा कहलाती है। हर काल खंड में और हर धर्म या संप्रदाय के दुनिया भर के संतों व सत्पुरुषों ने निष्काम सेवा को ही सच्चे धार्मिक जीवन की कसौटी बताया है। जीवन में प्रफुल्लता तथा आनन्द प्राप्त करने का सबसे सरल, सहज और सर्वसुलभ मार्ग सेवा ही है। हमारी सभी उपलब्धियों के पीछे समाज द्वारा प्रदत्त अवसर और वातावरण ही होता है। न जाने कितने लोगों के उपकार की वजह से हम यहाँ तक पहुँचे हैं। इसलिए हमारा भी कर्तव्य बनता है कि हम समाज को कुछ लौटाएँ।
साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि ‘समाज को लौटाने’ की भावना में एक अंतर्निहित विनम्रता होनी आवश्यक है। कहीं ऐसा ना हो कि हमारे मन में इसका अहंकार आ जाए। जिस तरह हम प्रकृति के विभिन्न उपादानों से इतना कुछ ग्रहण करते हैं किन्तु प्रकृति कभी इसका अहंकार करती नहीं दिखती, हमें भी उन पेड़ों की तरह होना है जो फल लगने पर और भी विनम्र होकर झुक जाते हैं। हम भी तो उसी प्रकृति का अंश हैं जहां सब कोई समाज को किसी-न-किसी रूप में निरंतर लौटाने की क्रिया में शामिल हैं। ध्यान रखना है कि केवल और केवल ‘लौटाने का भाव’ ही रहे। कभी भी ‘देने का भाव’ या ‘दान का भाव’ मन में न आए। हम जब लौटाने के भाव से सेवा-कार्य करते हैं तो सेवा का अवसर प्रदान करने वाले ही हम पर उपकार करते हैं। हमारी उस सेवा को स्वीकार करके वे हमें धन्य करते हैं।
सामान्य भौतिक जीवन में तो मनुष्य भोग और संग्रह-वृत्ति से ही सभी प्रकार का धन और ऐश्वर्य का उपार्जन करता है। जब वह अपने संग्रह के प्रति बहुत अधिक मोह से ग्रसित हो जाता है और मोहजन्य कृपणता और अनुदारता की वजह से उसके पास सब कुछ होकर भी वह दुखी ही रहता है। इसीलिए ‘समाज को लौटाने’ की भावना से किए गए सेवा-कार्य का गहन अध्यात्मिक महत्त्व भी है।
लौटाने की क्रिया में एक तरफ तो हमारा मोह छूटता है और दूसरी तरफ अहंकार का भाव कम होता जाता है। इसके अलावा लोभ, तृष्णा और स्वार्थ छूटते हैं तथा राग कम होता है। फिर अर्जित धन के सार्थक उपयोग की भावना विकसित होती है और अनर्जित धन के प्रति वितृष्णा भी होती है। ऐसा व्यवहार अभ्यास में लाने वाले के परिवारजनों के स्वभाव में भी उदारता, नम्रता, सेवा व विनय के संस्कार पल्लवित होने की संभावना बढ़ती है।
अब हम एक निगाह वर्तमान समय पर डालते हैं तो पाते हैं कि चहुं ओर लोग अपने-अपने ढंग और सामर्थ्यानुसार सेवा-कार्यों में लगे हैं, कहीं व्यक्तिगत रूप से तो कहीं संस्थाओं और समूहों के साथ। कोविड-19 की महामारी के दौरान ऐसे कई प्रयास लगातार देखने को आ रहे हैं। ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि ‘समाज का ऋण लौटाने’ का यह एक अच्छा अवसर है। हमें आपदा और भारी संकट की इस घड़ी में मानव-सेवा का यह अवसर हाथ से जाने नहीं देना चाहिए। बहुत से लोगों के काम-धंधे छूट गए हैं। उन्हें आप किस रूप में मदद कर सकते हैं कि उनके आत्म-सम्मान को ठेस ना पहुंचे, ये आप ध्यान-पूर्वक सुनिश्चित करें।
लेख को समाप्त करने के पूर्व यह जोड़ना आवश्यक लग रहा है कि हमने इस लेख में चाहे केवल भारतीय (मुख्यत: हिन्दू और जैन) दर्शन में दान से संबन्धित परम्पराओं का उल्लेख किया है, अन्य सभी धर्मों में भी दान के बारे में उतने ही उदात्त विचार विद्यमान हैं। ईसाई धर्म में करुणा और प्यार को ईश्वर का ही दूसरा रूप कहा जाता है और यह भी कहा गया है कि ईश्वर ने हमें दो हाथ इसीलिए दिये हैं कि एक हाथ से हम पाएँ और दूसरे से लौटाएँ। इसी प्रकार इस्लाम के पाँच सबसे प्रमुख सिद्धांतों में से एक दान (ज़कात) है। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी धर्मों में दान को धर्म का अटूट अंग माना गया है और इसके बिना कोई धर्म पूर्ण नहीं है।
हाल ही में खबरों में भारतीय उद्योगों के पितामह जमशेदजी टाटा का नाम पिछले सौ बरस के सबसे बड़े दानदाता के रूप में आया है। उन्होँने 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर से भी कुछ ज़्यादा का दान किया और इस तरह वह दानी लोगों की लिस्ट में इस तरह भी विशिष्ट स्थान रखते हैं कि उनके नीचे बिल गेट्स और मिलिंडा गेट्स का नाम है जो 76 बिलियन अमेरिकी डॉलर के दान के साथ उनसे काफी नीचे हैं।
जमशेदजी टाटा का की पिछले सौ बरस के सबसे बड़े दानदाता के रूप में पहचान बनना सचमुच हर भारतीय के लिए गर्व की बात है। लेकिन अगर वर्तमान में देखें तो विप्रो से सम्बद्ध अज़ीम प्रेमजी को छोड़ कर अन्य किसी भारतीय अरबपति का नाम विश्व के प्रमुख दानदाताओं में नहीं है। अज़ीम प्रेमजी ने तो खैर अनुपम उदाहरण पेश किया है और अपनी लगभग सारी संपत्ति ही दान में दे दी है। उनके अनुकरण में अन्य कोई अरबपति सामने नहीं आया है जो भारतीय धर्मों और परम्पराओं में वर्णित दानशीलता के महत्व के अनुरूप आचरण कर सके।
इस संदर्भ में कठोपनिषद में वर्णित नचिकेता की कहानी फिर याद फिर आ गई। कहानी तो आप सब जानते हैं लेकिन इस लेखक से कुँवर नारायण रचित खंड काव्य ‘आत्मजयी’ की कुछ पंक्तियों को यहाँ देने का लोभ संवरण नहीं हो पा रहा। संदर्भ ये है कि अपने पिता वाजश्रवा की दान देने में कृपणता देखकर जब नचिकेता ने उनसे बार-बार ये प्रश्न किया कि मुझे किसे दान में दे रहे हैं तो उन्होँने चिढ़ कर कहा यमराज को और नचिकेता ये सुनकर यमलोक के द्वार पर पहुँच गया। वहाँ जब यमराज ने उसे दुनिया के सब ऐश्वर्यों को देने का प्रलोभन दिया (बशर्ते कि वह मृत्यु का रहस्य जानने की ज़िद्द छोड़ दे) तो नचिकेता ने यमराज को उत्तर में जो कहा वह कुँवर नारायण ने ‘आत्मजयी’ में इस प्रकार लिखा है –
“हम चाहे जितना पाएँ, कम ही लगता है
कुछ ऐसी रखी है तरकीब स्वभावों में!
यह दुनिया – यह भविष्य –
तुमको सादर वापस!
मिल सके अगर तो –
मुझे एक दृष्टि चाहिए –
जीवन बच सके
अंधेरा हो जाने से, - बस!”
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*श्रीमद राजचन्द्र, महात्मा गांधी एवं आचार्य विनोबा भावे जैसे संतों के आध्यात्मिक विचारों को समर्पित साधक सुज्ञान मोदी ने आध्यात्मिक और राजनैतिक सजगता का अद्भुत संतुलन साधा है। जहां पिछले एक दशक से वह श्रीमद राजचन्द्र सेवा-केन्द्र से संबद्ध मुमुक्षु के रूप में अपनी आध्यात्मिक चेतना को विस्तार देने का प्रयास कर रहे हैं, वहीं वह बहुत सी सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं से भी जुड़े रहे हैं। इनमें से प्रमुख हैं, गांधी शांति प्रतिष्ठान, नर नारायण न्यास, राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट, सोसाइटी फॉर कम्यूनल हार्मनी, समाजवादी समागम, ज्ञान प्रतिष्ठान, और स्वराज पीठ। कोविड-19 के फैलने के उपरांत वह ‘कोरोना मुक्त स्वस्थ गाँव अभियान’ से भी सक्रिय रूप से जुड़े हैं। युवावस्था में उन्हें डॉ राममनोहर लोहिया और दादा धर्माधिकारी के निकट सान्निध्य का लाभ भी मिला। कुछ समय पहले उन्होंने महात्मा गांधी के आध्यात्मिक गुरु श्रीमद राजचन्द्र जी और गांधी जी के अंतरसंबंधों पर प्रकाश डालती एक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘महात्मा के महात्मा’ लिखी है।
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