क्या भारत का मध्यम-वर्ग असंवेदनशील है?
आज की बात
टैक्स का मतलब सिर्फ आयकर या इंकम-टैक्स ही नहीं होता - गरीब आदमी भी अपनी हर खरीद पर टैक्स देता है। आप किसी भी ऐसी वस्तु के बारे में सोचिए जो गरीब के काम आती है और फिर उस पर लगने वाले अप्रत्यक्ष कर के बारे में सोचिए तो पाएंगे अधिकांश मामलों में टैक्स देना ही होता है। मसालों पर भी टैक्स है तो साइकिल पर भी है। साइकिल की ट्यूबों पर भी और साबुन पर भी है।
इस बात को कहाँ से शुरू किया जाए कि मध्यम-वर्ग को बहुत कड़वी ना लगे। इतनी कड़वी तो ना ही लगे कि आप इस लेख को बीच में ही पढ़ना छोड़ दें। लेकिन पहली बात तो थोड़ा सख्त लहजे में ही कहनी पड़ेगी और वो ये है कि हमारे देश का मध्यमवर्ग बहुत स्वकेंद्रित है। यह स्तंभकार मध्यमवर्ग के उन लोगों की बात नहीं कर रहा जो व्यक्तिगत रूप से शानदार हैं लेकिन अगर एक वर्ग या समूह के तौर पर विचार करें तो मध्यमवर्ग ने अपने प्रभाव का सबसे ज़्यादा नाजायज़ इस्तेमाल किया है। पिछले कुछ वर्षों में तो भारतीय मध्यमवर्ग की ताकत बेइंताह बढ़ी है और इसने समाज पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल आमतौर पर नकारात्मक रूप में ही किया है।
सबसे पहले तो ये बता दें कि हमें आज अचानक ये ‘मूड’ क्यों हो गया कि चलो आज मध्यम-वर्ग को कोसते हैं। दरअसल ये आज की बात नहीं है बल्कि बरसों से हम सुनते आ रहे हैं कि गरीब लोगों के कल्याण के लिए चाहे जो योजना बने, उसमें कोई ना कोई मध्यमवर्ग का प्रतिनिधि सबसे पहले ये आवाज़ लगाता है कि देखो हम बेचारे (मध्यमवर्गीय) तो टैक्स देते-देते बोझ से दुहरे हुए जा रहे हैं और ये टैक्स खर्च हो रहा है इन गरीबों पर जो शायद मेहनत नहीं करना चाहते और सिर्फ सरकारी इमदाद पर इनकी ज़िंदगी बसर हो जाती है।
इस किस्म के कुतर्क आप इंग्लिश इस्तेमाल करने वाले देसी अंग्रेज़ों लोगों से ज़्यादा सुनेंगे क्योंकि जब भी गरीब किसानों के कर्ज़-माफी की बात हो या गरीब के लिए किसी योजना की शुरुआत या घोषणा भर भी हो तो सबसे पहले इन मध्यमवर्गीय अंग्रेज़ी-दाँ लोगों को तकलीफ होती है और आपको पहली प्रतिक्रियाएँ इन्हीं से आती हैं – Tax-payers money की दुहाई देकर ये लोग काफी ज़ोर-शोर से अपनी बात कहते हैं। ‘व्हाट्स-एप्प’ के प्रचलन में आने के बाद इस पर भी तरह तरह से ये ज्ञान दिया जाता है कि कैसे हम लोग टैक्स अदा करके लुटे जा रहे हैं।
कुतर्क हम इसलिए कह रहे हैं कि जब ये लोग Tax-payers money की बात करते हैं तो सोचते हैं कि टैक्स का मतलब सिर्फ आयकर या इंकम-टैक्स ही होता है और ये लोग मान लेते हैं कि गरीब लोग तो किसी किस्म का टैक्स देते ही नहीं। साफ है कि इन लोगों को या तो अप्रत्यक्ष करों (indirect taxes) के बारे में पता ही नहीं और या ये लोग जानबूझकर उस बारे में अंजान बने रहना चाहते हैं। क्या इन लोगों को याद दिलाने की ज़रूरत है कि गरीब लोग भी खाते हैं और खाने-पीने की भी बहुत सारी चीजों पर कर देना पड़ता है।
आप किसी भी ऐसी वस्तु के बारे में सोचिए जो गरीब के काम आती है और फिर उस पर लगने वाले अप्रत्यक्ष कर के बारे में सोचिए तो पाएंगे अधिकांश मामलों में अच्छा-खासा टैक्स देना पड़ता है। मसालों पर भी टैक्स है तो साइकिल पर भी है। साइकिल की ट्यूबों पर भी और साबुन पर भी है। आप यहाँ दिये लिंक में कुछ भी सामान डाल कर उस पर लगने वाला टैक्स देख सकते हैं – केंद्र और राज्य सरकार द्वारा लिया जाने वाला टैक्स अलग-अलग दिखाया गया है।
जब ये स्तंभकार उपरोक्त लिंक पर विभिन्न वस्तुओं पर लगने वाले टैक्स की दरें ढूंढ रहा था तो लगा कि एक बार सोने पर लगने वाला टैक्स भी देख लिया जाये तो ये जानकार हैरानी हुई कि सोने पर कुछ ज़्यादा टैक्स नहीं है। यहाँ दिये गए चार्ट में आप देख सकते हैं कि सोने पर लगने वाला टैक्स क्या है। मध्यवर्ग को ये ही याद रखना चाहिए कि सरकार अपनी आय से जिन सुविधाओं का निर्माण करती है, उनका ज़्यादा इस्तेमाल मध्यमवर्ग ही करता है और उनमें से बहुत सारी गरीब के काम ही नहीं आती। जैसे ट्रेन सफर को ही लें – मध्यमवर्ग जिस आराम में सफर करता है, वह उसकी कीमत नहीं देता। सिर्फ ट्रेन ही नहीं, आप किसी भी सार्वजनिक सुविधा को लें जो सरकार द्वारा दी गई है तो यही कहानी मिलेगी।
अब हम फिर एक बार वापिस आते हैं गरीबों के लिए कल्याणकारी योजनाओं पर और उन पर मचने वाले शोर पर। उदाहरण के लिए अभी जब कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणापत्र में न्यूनतम आय योजना जिसे उन्होंने ‘न्याय’ (NYAY) का नाम दिया, तो सबसे पहले ‘व्हाट्सएप्प’ पर मध्यमवर्ग के तथाकथित हितों को ध्यान में रखते हुए संदेशों का ताँता लग गया। कुछ संदेश तो ये चिंता जताते हुए आए कि अगर ये योजना शुरू हो गई तो आपको घर में चौका-बर्तन-सफाई-कपड़े धोना जैसे कामों के लिए ‘मेड’ नहीं मिलेंगी और अगर मिलेंगी तो बहुत महंगी।
हमारे जैसे लोग अपने घरों में काम कर रही सहायिकाओं को बारे में कितने संवेदनशील हैं, ये ज़रा स्वयं अपने दिल पर हाथ रख कर सोचें। जिस तरह के काम-धंधों या नौकरियों में हम लोग होते हैं और अपने लिए जिस तरह की वृद्धि चाहते हैं, क्या उसका एक छोटा हिस्सा भी हम इन लोगों सी शेयर करना चाहते हैं? उनकी छुट्टियों पर भी हम बवाल कर देते हैं और उनकी बीमारी में मदद की बात तो भूल ही जाएँ। यह बात सही है कि मध्यमवर्ग के कुछ लोग अपने व्यक्तिगत संवेदनशील स्वभाव के चलते कुछ बेहतर ढंग से इस अपने सहायकों से साथ इस रिश्ते को निभाते हों लेकिन उनके अधिकार के तौर पर तो अभी तक कोई व्यवस्था नहीं है। स्पष्ट है कि मध्यमवर्ग अपने विशेषाधिकारों में से कुछ भी हिस्सेदारी करने को तैयार नहीं है।
अब गरीबों के लिए न्यूनतम आय या उनके जीवन-यापन में मदद के लिए बनने वाली या प्रस्तावित योजनाओं के एक और पहलू के बारे में बात करते हैं। आपने देखा होगा पिछले कुछ वर्षों में पूरी दुनिया में विज्ञान और तकनीक ने एक ऐसी दिशा ले ली है जिसमें मानव-श्रम का इस्तेमाल बिलकुल ही खत्म होता जा रहा है। हालांकि मशीनों द्वारा आदमी के हाथों की जगह लेने की प्रवृत्ति तो औद्योगिक क्रांति के शुरू होने के साथ ही पैदा हो गई थी लेकिन पिछले कुछ दशकों तक तो दुनिया की आवश्यकताएं बढ़ने के कारण नए-नए क्षेत्रों में रोजगार भी सृजन हो रहा था।
लेकिन अब “आर्टिफिशियल इंटेललिजेंस” का व्यावहारिक उपयोग बढ़ते जाने के कारण एक ऐसी स्थिति आ रही है जब रोजगार बिलकुल ही खतम हो रहे हैं और जिस तरह का आर्थिक मॉडल हमने 1991 में चुन लिया है, उसमें ये गुंजाइश कतई नज़र नहीं आ रही कि आने वाले दिनों में रोजगार की स्थितियों में कोई बड़ा बदलाव हो जाएगा। ऐसे में आप इस स्थिति की कल्पना कीजिये कि जब देश की अधिकांश जनता जो काम ढूंढ रही होगी लेकिन काम नहीं होगा तो क्या होगा?
हो सकता है यह आपको किसी निराशावादी का अनर्गल प्रलाप लग रहा हो लेकिन पिछले कुछ वर्षों में रोजगार के हालात इतने खराब हो हुए हैं कि यदि जल्दी ही उस स्थिति से निपटने को उपाय नहीं किए गए तो हमारी सामाजिक व्यवस्था का ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो सकता है। अगर हम धन कुछ ही हाथों में सिमट कर रह गया और हमने उसका एक हिस्सा नीचे तक नहीं पहुंचाया तो फिर आर्थिक गतिविधियों पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। यदि लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसा ही नहीं होगा तो फिर मांग कहाँ से होगी और यदि मांग नहीं होगी तो स्वाभाविक है कि उत्पादन भी गिरेगा।
इसलिए ना केवल ऐसी योजनाओं की आवश्यकता आज बहुत बढ़ गई है जो किसी भी तरह समाज के हर वर्ग तक देश के धन का कुछ हिस्सा कायदे से पहुंचाए बल्कि हमारी कर प्रणाली में भी ऐसे सुधारों की आवश्यकता है जिससे अप्रत्यक्ष कर का बोझ गरीबों पर कम से कम पड़े। हमारा मध्यम-वर्ग एक बड़ा प्रैशर-ग्रुप है और इसको खुश रखने के लिए सरकारें अकसर इसको लाड-प्यार से रखती हैं। दूसरी तरफ हाशिये पर पड़े लोगों का ना तो कोई असरकारी आंदोलन है और ना ही कोई ऐसा नेतृत्व जो इनको हितों की सुरक्षा के लिए कटिबद्ध हो। ऐसे में यदि चुनावों के बहाने ही सही, यदि ‘न्याय’ जैसी कोई योजना आ जाती है तो इसे भी इस व्यवस्था का लाभ मानना चाहिए - ये जैसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था बची है, जिसमें आप हज़ार खामियां निकालें! इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था के चलते ही गरीब की उपेक्षा आसान नहीं है, इस पर हमारा एक लेख आप यहाँ देख सकते हैं।

विद्या भूषण अरोरा