जाते सावन में - पारुल बंसल की नई कविता
पारुल हर्ष बंसल की दो नई कविताएँ हमारे पास आईं हैं जिनमें से एक हम आज प्रकाशित कर रहे हैं और दूसरी आगे के लिए सुरक्षित रख ली है. इस वेब पत्रिका में आपने इनकी पहले जो कविताएँ पढ़ी होंगी, उनमें ज़्यादातर में स्त्री-विमर्श ही प्रमुख विषय रहता था. आप देखेंगे कि उनकी आज की कविता एक नए तेवर में है. ऐसा लगता है कि पारुल अपनी काव्य-यात्रा में नए-नए सोपान तय कर रही हैं. आपने उनकी पिछली कविताएँ पढनी हों तो यहाँ क्लिक करें.
जाते सावन में
पारुल हर्ष बंसल
क्या कम पड़ रहीं हैं
तुम्हारे लिए पांच ज्ञानेन्द्रियाँ?
उठो, सोचो और फिर से कोशिश करो
जागृत करने का छठी ज्ञानेन्द्री को!
जाते हुए सावन में ही सही
अपनी तीसरी आँख को
ज़रा सा ही सही खुलने दो!
बोलो एक ही सांस में महामृत्युंजय मंत्र
अनगिनत बार! बार बार!!
चढ़ो पहाड़ की चोटी पर, बच्चे की तरह
बो आओ सब खेतों में ईख की फसल
जाते सावन में ही सही
खिला दो पत्थरों पर कुसुमालय!
बीन लो हर उस मासूम की आंखों से
तैरते मोतियों को
और बनाकर उनकी माला
अर्पित कर दो शिव के चरणों में
जाते सावन में ही सही!
लूट लो कटी पतंग
उसके पीछे भागते बच्चे के लिए
भरकर सांसों में उजास
मन को सुवासित कर लो
बसंत की प्रतीक्षा में अपनी पलकों को बिछा दो
हर उदास के चेहरे पर अपने कंवलों को रख दो
उसकी तपिश में उसे तपने दो!
इतना सब करने के बाद
तब कहीं जाकर तुम्हारे कानों में
वेदों और ऋचाओं की गुंजन भीतर तक बिंध जाएगी
और तुम्हारा हृदय मधुमास का उद्यान बन जाएगा
यह वह अद्भुत क्षण होगा
जब सब तुममें और तुम सब में व्याप्त होंगे
तब इस सुखानुभूति का रसपान करने के लिए!
तब बनेगी सावन की तरलता तुम्हारी अपनी
और शिव तुम्हें देंगे
चिर-वासंतिक रहने का वरदान!
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*पारुल हर्ष बंसल मूलत: वृन्दावन से हैं और आजकल कासगंज में हैं। इनकी कवितायें स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं और वेब पोर्टल्स पर प्रकाशित होती रही हैं। स्त्री-अस्मिता पर कविताएं लिखना इनको विशेष प्रिय है। इनकी कवितायें पहले भी इस वेबपत्रिका में पढ़ चुके हैं। सबसे ऊपर नीले रंग में लिखे इनके नाम पर क्लिक करके आप इनकी पहले की कवितायें पढ़ सकते हैं।