कैसे हिन्दू थे गांधी? 30 जनवरी को याद करना बनता है।
आज की बात
आज गांधी जी की पुण्यतिथि है और आज गांधी को याद करना एक रस्म-पूर्ति भी है। रस्म-पूर्ति को चाहे बहुत स्तरीय बौद्धिक-कर्म नहीं समझा जाता, फिर भी आज हमें ये ज़रूरी लग रहा है – बहुत ज़रूरी! आज गांधी का नाम लेकर उन पर या उनकी विचारधारा पर जिस तरह के हमले हो रहे हैं, वैसे इस स्तंभकार की स्मृति में तो कभी नहीं ही हुए, उसके पहले भी उनकी जान लेने के पहले गांधी विचार पर हमला शायद आज के सत्ताधीशों के राजनैतिक गुरु सावरकर ने भी ना किया हो। आज उन पर हो रहे हमलों की खास बात ये है कि उन्हीं का नाम लेकर उनकी विचारधारा को जड़ से उखाड़ने की कोशिश हो रही है। खुले आम गोडसे को देश-भक्त बताने वाली प्रज्ञा ठाकुर को लोकसभा का सदस्य बनवा दिया जाता है इतना ही नहीं, गांधी के हत्यारे को महिमा मंडित करने वालों को सत्ताधीश लोग टिवीटर और फेसबुक पर फॉलो करते हैं।
आज जब हम गांधी को याद करना चाहते हैं तो अपने लिए हमें सर्वश्रेष्ठ तरीका यह लग रहा है कि एक बार हम ये देख लें कि गांधी जी ने हिन्दू धर्म के विषय में क्या कहा है – कहने की आवश्यकता नहीं कि इस विषय पर उनका सब कुछ कहा तो नहीं देखा जा सकता लेकिन जो आसानी से उपलब्ध है, उसी के कुछ हिस्से को देख लें ताकि एक बार पुनरावृत्ति हो जाए कि कैसे उनके नाम का और उनके प्रिय धर्म (हिन्दू) के नाम का खुले आम दुरुपयोग किया जा रहा है।
गांधी जी की सबसे बड़ी विशेषता ये थी कि वह बिलकुल भी रूढ़िवादी या कट्टर नहीं थे। अपने धर्म को भी वह इसी तरह देखते थे। जैसे उन्होंने 8 अप्रैल 1926 को हरिजन अखबार में हिन्दू धर्म के बारे में यह लिखा कि हिन्दू धर्म एक प्राणवान जीव (Living Organism) की तरह है जिसका प्रकृति के नियमों के अनुसार विकास भी होता है और कभी उसमें क्षरण (decay) भी होता है। वह लिखते हैं कि हिन्दू धर्म एक विशाल वृक्ष की तरह हैं जिसकी जड़ तो अविभाज्य है लेकिन जिसकी असंख्य शाखाएँ हो गईं हैं और ऋतुओं में बदलाव के साथ इस वृक्ष के बाहरी स्वरूप में बदलाव आता रहता है। वह इसी लेख में आगे कहते हैं कि हिन्दू धर्म को ठहराव पसंद नहीं है। चूंकि ज्ञान की कोई सीमा नहीं है और ना ही सत्य के प्रयोगों की, हम अपने आत्मिक ज्ञान में हर रोज़ कुछ नया जोड़ते रहते हैं। शाश्वत सत्य और ईश्वर एक ही है।
गांधी जी शास्त्रों के बारे में भी यही मानते थे कि शास्त्र हमेशा विस्तृत होते रहते हैं। उनका मानना था कि समय की आवश्यकता के अनुसार शास्त्र अपना स्वरूप बदलते रहते हैं। इसीलिए वह कहते हैं कि उनमें वर्णित प्रथाएँ हमेशा के लिए सही नहीं होती। इस बारे में उन्होँने 8 अप्रैल 1926 के यंग इंडिया में लिखा है। जैसे वह इस लेख में कहते हैं कि यदि किसी युग में धार्मिक कृत्य के तौर पर पशु-बलि दी जाती थी तो क्या हम आज भी उसे पुनर्जीवित करना चाहेंगे? किसी समय चोरों के हाथ-पैर काट दिये जाते थे तो क्या हम आज भी वही बर्बरता करना चाहेंगे? इसी तरह क्या हम बाल-विवाह जैसी कुप्रथाओं को दुबारा अपनाना चाहेंगे? अछूत-प्रथा को तो वह हिन्दू धर्म के लिए अभिशाप मानते ही थे।
गांधी जी से जब 1936 में पूछा गया कि क्या वह कोई आध्यात्मिक अभ्यास करते हैं और उन्हें क्या पढ़ने से सहायता मिली तो हरिजन में 5 दिसंबर को उन्होँने कहा कि मैं तो राम नाम का अभ्यास करता हूँ और मानता हूँ कि जैसा सहारा मुझे राम नाम से मिलता है, वैसा ही एक ईसाई को ईसा मसीह के नाम से और एक मुस्लिम को अल्लाह के नाम से मिलता होगा। फिर अपनी आध्यात्मिक पढ़ाई के बारे में बताते हुए उन्होंने लिखा कि हमारी प्रार्थना सभा में गीता का पाठ तो हम करते ही हैं, भारत के विभिन्न संतों के भजनों का भी पाठ करते हैं जिनमें ईसाई धर्मावलम्बियों के भजन भी शामिल होते हैं और फिर हम कुरान की आयतों का भी पाठ करते हैं। हम सब धर्मों की बराबरी में विश्वास करते हैं।
गांधी जी सभी धर्मों की बराबरी में तो विश्वास करते ही थे, साथ ही ये ज़ोर देते थे कि मैं धार्मिक सहिष्णुता नहीं बल्कि समान आदर देने की बात कर रहा हूँ। 28 नवंबर 1936 के हरिजन के लेख में वह कहते हैं कि हमारी हमारे मन में सभी धर्मों के लिए वही सम्मान होना चाहिए जो अपने धर्म के लिए होता है।
क्या हमारे आज के शासकों तक गांधी जी की ये सर्वत्र उपलब्ध बातें नहीं पहुँच पातीं? अगर उन्हें ये बातें नहीं सुनाई पड़तीं तो फिर उन्हें गांधी जी का नाम लेने का कोई नैतिक अधिकार नहीं।
(उपरोक्त लेख के सभी उद्धरण नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित “What is Hinduism” से लिए गए हैं।)

-----विद्या भूषण अरोरा