समय की पाबंदी अच्छी नहीं होती - ओंकार केडिया का नया व्यंग्य

ओंकार केडिया | विविध | Apr 20, 2025 | 73

कविताओं और किस्सागोई में माहिर ओंकार केडिया अपने व्यंग्य-लेखन के लिए भी खूब जाने जाते हैं। उनके पाँच कविता संग्रह तो आ ही चुके हैं, उनके अलावा एक व्यंग्य संग्रह मल्टीप्लेक्सस में पॉपकॉर्न भी प्रकाशित हुआ है। ये सभी पुस्तकें amzon पर उपलब्ध हैं। आज यहाँ प्रकाशित हो रहे व्यंग्य में ओंकार केडिया ने उन विशिष्ट व्यक्तियों की खबर ली है जो समारोहों में समय से नहीं पहुंचते हैं। आइए, चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए पढिए!
समय की पाबंदी अच्छी नहीं होती 

ओंकार केडिया 

हम भारतीय अपना और दूसरों का समय बर्बाद करने में माहिर हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण सार्वजनिक समारोहों में मिलता है। छोटे-से-छोटे और बड़े-से-बड़े समारोह में एक ही तरह के दृश्य दिखाई पड़ते हैं। मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि, मुख्य वक्ता जैसे कुछ ख़ास लोगों के आने तक किसी भी हाल में समारोह शुरू नहीं होता, भले ही बाक़ी लोगों को घंटों इंतज़ार क्यों न करना पड़े। ऐसे ख़ास लोग अक्सर ट्रैफ़िक में फंस जाते हैं। यह देर से आने का उनका नियमित बहाना होता है। जो सड़कें हमेशा ख़ाली रहती हैं, वे पता नहीं इनके घर से निकलते ही कैसे भर जाती हैं। कोई इनसे पूछने का साहस भी नहीं करता कि ट्रैफ़िक जाम आख़िर कहाँ मिल गया था। जिस शहर में हम इतने लंबे समय से रह रहे हैं, वहाँ ट्रैफ़िक जाम कहाँ रहता है, हमें भी तो पता चले। 

कभी-कभी ऐसे लोग नए बहाने के चक्कर में किसी की भी तबीयत ख़राब बता देते हैं। वैसे इनकी अंतरात्मा इनसे कहती है कि किसी की तबीयत ख़राब बतानी हो, तो अपनी ही बतानी चाहिए, पर इससे तुरंत पता चल जाता है कि अगला झूठ बोल रहा है। जिसके चेहरे से नूर टपक रहा हो, वह थोड़ी देर पहले बीमार कैसे हो सकता है? बीमारी कुछ तो अपने निशान छोड़कर जाती होगी। फिर ऐसी कौन-सी बीमारी है, जो समारोह के दो घंटे पहले आकर चली भी जाती है? 

जिन लोगों को अपनी अभिनय-क्षमता पर विश्वास होता है, वे यही कहना पसंद करते हैं कि उनकी तबीयत थोड़ी ख़राब हो गई थी। ‘थोड़ी’ कहने से बीच-बीच में मुस्कुराने का अवसर बना रहता है। श्रोता सोच लेते हैं कि उनके व्यक्तित्व की गंभीरता बीमारी के कारण और मुस्कुराहट अच्छाई के कारण है। ऐसे लोगों की महानता के बड़े चर्चे होते हैं। लोग कहते हैं कि बीमारी के बावजूद समारोह में आए, भले थोड़ी देरी से ही सही। वादे के पक्के हैं। श्रोताओं के सेंटिमेंट का ध्यान रखते हैं।  

कुछ लोग इतना कहकर मुक्त हो जाते हैं कि कोई ज़रूरी काम आ गया था। ज़रूरी काम क्या था, यह बताने के लिए कोई झूठ गढ़ना उन्हें अच्छा नहीं लगता। वे कम-से-कम झूठ बोलने में विश्वास रखते हैं। उन्होने बचपन में पढ़ा होता है कि झूठ बोलना पाप है। वे बस उतना ही पाप करना चाहते हैं, जितने से काम चल जाए। इसमें आदमी के पकड़े जाने का ख़तरा भी कम होता है। आदमी ऐसा कहते वक़्त बहुत ईमानदार नज़र आता है। ऐसे लोगों की इज्ज़त भी बढ़ती है। जो आदमी देर से आकर कहे कि ज़रूरी काम आ गया था, वह विनम्र तो है, पर इतना भी नहीं कि विस्तार से हर ऐरे-ग़ैरे  नत्थू-खैरे को सफ़ाई देता फिरे। 

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो देर से आकर भी न तो कोई कारण बताते हैं, न माफ़ी मांगते हैं। ऐसे लोगों के लिए श्रोताओं के दिल में बड़ा सम्मान होता है। इनके तेवरों से ही पता चल जाता है कि कोई मामूली आदमी नहीं है। देर से आया तो क्या हुआ, आ गया, यही बहुत बड़ा एहसान है। बड़े और प्रभावशाली लोगों से यह अपेक्षित है। अगर आपका ईगो इतना ही ज़्यादा है, तो आइंदा किसी छुटभैये को बुला लेना। देरी से तो वह भी आएगा, मगर आपके पाँव पकड़कर आपसे माफ़ी मांगने के लिए तैयार हो जाएगा। 

आयोजनकर्ता भी देरी से आनेवाले विशिष्ट लोगों से कुछ नहीं कहते। वे तो बेचारे वैसे ही विशिष्ट लोगों और श्रोताओं के बीच में फंसे रहते हैं। इधर गिरो, तो कुआं और उधर गिरो, तो खाई। जाएँ, तो जाएँ कहाँ? देर से ही सही, जब विशिष्ट लोग समारोह में पहुँच जाते हैं, तो आयोजकों की जान में जान आ जाती है। 

इन समारोहों में जाकर पता चलता है कि समय की पाबंदी कोई अच्छी चीज़ नहीं है। हमें बचपन से ही इस बारे में ग़लत सिखाया गया है। अगर आप समय पर पहुँच जाते हैं, तो कई बार आपको आयोजक तक नहीं मिलते। सबसे नकारा और बेशर्म आदमी वही है, जो समय पर किसी भी समारोह में मुंह उठाए पहुँच जाय। आदमी को थोड़ी-बहुत तो दुनियादारी की समझ होनी ही चाहिए। इतना तो आजकल सब जानते हैं कि समारोह शुरू होने के वास्तविक समय से दो घंटे पहले का समय दिया जाता है। आप अगर दिए गए समय को गंभीरता से ले लें, तो इसमें आयोजकों की क्या ग़लती?

बड़ी मुश्किल से समारोह शुरू होता है। मंच पर एक दर्जन से ज़्यादा लोग पहली पंक्ति में बैठे होते हैं। अगर लोगों का वश चले, तो श्रोताओं में कोई बैठे ही नहीं। सभी लोग मंच पर बैठें। मंच पर वही बैठ सकता है, जिसका कोई रुतबा है। हर  विशिष्ट व्यक्ति का स्वागत होता है। एक ही आदमी का स्वागत कई-कई लोग करते हैं। जिसका स्वागत होता है, उसको थोड़े से संतोष नहीं होता। आयोजक भी उसे महसूस कराना नहीं चाहते कि उसके स्वागत में कोई कमी रह गई। ज़्यादातर समारोहों में स्वागत करनेवालों को खोजना पड़ता है। उन्हें पहले से पता ही नहीं होता कि उन्हें किसी का स्वागत करना है। वे चाय या शर्बत पी रहे होते हैं, तो उन्हें मंच पर पुकारा जाता है कि आएँ और स्वागत करें। अगर स्वागत करनेवाले मंच पर पहुँच भी गए, तो वह चीज़ नहीं पहुँचती, जिससे स्वागत करना है। जैसे, गुलदस्ता, मोमेंटों, शाल,पगड़ी, उपहार आदि। इस तरह की किसी चीज़ के बिना स्वागत करना संभव नहीं है। सार्वजनिक समारोहों में जाकर  पता चलता है कि केवल शब्द काफ़ी नहीं होते। शब्दों की सीमा होती है। सबसे बड़े अतिथि को सबसे महंगी चीज़ दी जाती है। कुछ लोगों को सिर्फ़ गुलदस्ता देने से काम चल जाता है। 

किसी तरह यह कार्यक्रम निपटता है, तो मुख्य अतिथि और विशिष्ट अतिथियों का मीलों लंबा परिचय दिया जाता है। उनके जीवन से जुड़ी छोटी-से-छोटी बात बताई जाती है, जैसे कि वे दिन में कितनी देर गिल्ली-डंडा खेलते थे, उन्हें आम काटकर खाना पसंद था या छीलकर, वे ठंड के दिनों में ठंडे पानी से नहाते थे या गरम पानी से, वगैरह।  उनकी ऐसी-ऐसी उपलब्धियां गिनवाई जाती हैं, जिनके बारे में उन्हें ख़ुद पता नहीं होता। पहले से पता होता, तो थोड़ा और देर से पहुँचते। 

मंच पर उपस्थित हर विशिष्ट व्यक्ति को बोलने का मौक़ा दिया जाता है। हर व्यक्ति अपनी तैयार की हुई स्पीच पूरी पढ़कर ही माइक छोडता है। हर वक्ता मंच पर उपस्थित अन्य सारे व्यक्तियों के नाम और पद से उन्हें संबोधित करता है। जिस आदमी को संबोधित नहीं किया जाता, वही अपमानित महसूस करता है। जिनको बोलने का मौक़ा नहीं मिलता, उनकी ईगो भी संबोधित किए जाने से शांत हो जाती है। 

समारोह के अंत में आप तय करते हैं कि अगली बार या तो किसी समारोह में जाएंगे नहीं या दो घंटे देर से  जाएंगे, पर जब अगले समारोह में बुलाया जाता है, तो आप फिर मुंह उठाए समय पर पहुँच जाते हैं। आप सोचते हैं कि न आपको बोलने का मौक़ा मिला, न मंच पर बैठने का, पर यही क्या कम है कि बुलाया गया। इतनी बड़ी जनसंख्या में कितने लोग हैं, जिन्हें कहीं बुलाया जाता है? अधिकतर लोग तो बुलाए जाने के इंतज़ार में पूरी ज़िंदगी बिता देते हैं। उनका बुलावा आ जाता है, पर उन्हें कहीं बुलाया नहीं जाता। 

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ओंकार केडिया पूर्व सिविल सेवा अधिकारी हैं। भारत सरकार में उच्च पदों पर पदासीन रहने के बाद वह हाल तक असम रियल एस्टेट एपिलेट ट्राइब्यूनल के सदस्य रहे हैं और आजकल गुवाहाटी में रह रहे हैं। इनका कविता संग्रह इंद्रधनुष काफी चर्चित हुआ। अंग्रेजी में इनकी कविताओं का पहला संग्रह Daddy भी काफी चर्चित रहा। पिछले दिनों  वृद्धावस्था पर इनकी 51 कविताओं का संग्रह 'बूढ़ा पेड़' हाल ही में प्रकाशित हुआ है। 



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