साहिर ने उड़ा दी है मेरी नींद - जन्मदिवस पर विशेष
कल अर्थात आठ मार्च को साहिर लुधियानवी का जन्मदिवस है। वह एक ऐसे शायर-गीतकार थे जिनकी कलम से निकला हर हर्फ़ लाखों-करोड़ों दिलों को छू जाता था! यूँ तो साहिर के बारे में प्रचुर सामग्री साइबर-स्पेस में उपलब्ध होगी लेकिन ओंकार केडिया ने जिस हल्के-फुल्के अंदाज़ में साहिर के काम को सराहा है, वह अनूठा ही है। इस हल्के-फुल्के अंदाज़ के बावजूद वह साहिर के उत्कृष्ट काम को और बॉलीवुड में उनके अमूल्य योगदान को रेखांकित करने में सफल रहे हैं।
साहिर ने उड़ा दी है मेरी नींद
ओंकार केडिया
मेरे प्रिय शायर-गीतकार साहिर लुधियानवी ने पिछले कई दिनों से मुझे परेशान कर रखा है। वे ज़िंदा होते तो उनसे मिलकर शिकायत करता! उन्होंने शादी की होती और उनकी कोई संतान होती तो क्या पता मुक़दमा ही दायर कर देता! अब तो बस इतना कर सकता हूँ कि अपना दर्द बयान कर दूँ। कहते हैं, रोने से जी हल्का होता है। कोशिश करके देख लेते हैं, होता है कि नहीं।
दरअसल यह समस्या तब शुरू हुई जब पिछले दिनों गुवाहाटी की एक प्रतिष्ठित संस्था की ओर से मुझे 8 मार्च को मुझे साहिर के बारे में एक व्याख्यान देने के लिए कहा गया। इसी दिन 1921 में उनका जन्म हुआ था। मतलब यह कि सारी समस्या की जड़ उनका जन्म लेना था। न वे जन्म लेते, न कुछ लिखते, न मैं उनकी रचनाओं का दीवाना होता, न मुझे व्याख्यान देना पड़ता, न मेरी रातों की नींद उड़ती!
व्याख्यान की तैयारी के लिए मैंने साहिर को पढ़ना शुरू किया। उनके गीतों को सुनना शुरू किया। उनके काम पर सैकड़ों लोगों की टिप्पणियाँ पढ़ीं। दिन में तो आदमी अपने कामों में लगा रहता है। रात को जब बेकार हो जाता है, तो विचार उसे दबोच लेते हैं। कम-से-कम मेरे साथ तो यही हुआ।
मैं दस बजे बिस्तर पर जाकर लेटता, तो नींद आ जाती, पर रात के क़रीब दो बजे साहिर आकर जगा देते। कहते, आज यह जो गीत तुमने दिन में सुना था, उसका अर्थ तुम ठीक से समझे नहीं। कभी कहते, एक अर्थ तो ठीक समझे, पर उसमें तो कई अर्थ थे। कई बार अर्थ की ओर नहीं, शब्दों की ओर ध्यान दिलाते। कहते, तुम जैसे सुन रहे हो, गीतों को वैसे नहीं सुना जाता। शब्दों की अपनी एक धड़कन होती है, वह तो तुमने सुनी ही नहीं। एक ही गाने में मैं कैसे-कैसे मोड़ ले रहा हूँ, यह तो देखा ही नहीं। शब्द ट्यून के साथ कैसे घुल-मिल गए हैं, इस ओर तो ध्यान दिया ही नहीं। फिर हँसते हुए कहते, मैं तो भूल ही गया। तुम्हें यह सब कैसे पता होगा? तुमने कभी कोई गीत लिखा है क्या? व्याख्यान देने और गीत लिखने में बहुत अंतर होता है।
मैं साहिर से कहता, गीत भले ही न लिखे हों, पर इतना बेवकूफ़ भी नहीं कि आपका व्यंग्य न समझूँ। कम-से-कम अपने चाहनेवालों को तो बख़्श दिया कीजिए। कोशिश कर रहा हूँ न? दूसरों ने ही आपको कितना समझा कि मेरे पीछे पड़ गए हैं। जिन्होंने आपको पद्म श्री दी, उन्होंने आपको पढ़ा भी था क्या? पढ़ लेते, तो शायद कभी नहीं देते।
मुझे व्याख्यान के लिए लगभग एक घंटे का समय मिला है। इस दौरान मैं उनके 8-10 गीत सुनाना चाहता हूँ, पर वे हर रात आकर लिस्ट बदलवा देते हैं। कहते हैं, इस गाने को हटाकर वह गाना ले लो। कभी कहते हैं, मैंने क्या दस ही गाने अच्छे लिखे हैं ? कम-से-कम एक सौ तो रखो। मैं साहिर से कहता हूँ कि मेरे धैर्य की परीक्षा न लें। माना कि आप साहिर हैं, पर लोगों को डिनर के लिए भी जाना होता है। 10 सुन लें, वही बहुत है। आप ही बता दीजिए, कौन से दस लूँ। आख़िरी बार उन्होंने जो लिस्ट दी, वह यह है।
1.जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
कहाँ हैं, कहाँ हैं, कहाँ हैं
2.वो सुबह कभी तो आएगी
इन काली सदियों के सर से, जब रात का आँचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा, जब धरती नग़्मे गाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी।
3.औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
जब जी चाहा मसला-कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया।
4.तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इनसान की औलाद है, इनसान बनेगा।
5.अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं
6.लागा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे घर जाऊँ कैसे
7.अब कोई गुलशन न उजड़े, अब वतन आज़ाद है
रूह गंगा की, हिमाला का बदन आज़ाद है
8.आगे भी जाने ना तू, पीछे भी जाने ना तू ,
जो भी है बस यही एक पल है
9.मन रे तू कहे न धीर धरे
10.मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया,
हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया।
साहिर के बारे में पढ़ते समय यह भी पता चला कि वह छोटे-छोटे निर्णय भी मुश्किल से ले पाते थे - जैसे कि मुशायरे में कौन सी ड्रेस पहननी है, कौन सी नज़्म सुनानी है, नाश्ते में क्या खाना है इत्यादि। इसलिए मुझे लग रहा है कि वे व्याख्यान के पहले की गीतों की यह लिस्ट ज़रूर बदल देंगे। सुना है कि साहिर इतने मुँहफट थे कि किसी को कुछ भी कह देते थे। मैं उनके मुंह नहीं लगना चाहता। कहीं मैं भी निशाने पर न आ जाऊँ। अभी तक तो व्यंग्य करते रहे हैं। उखड़ गए, तो न जाने क्या कर बैठें।
साहिर बड़ी देर से सोकर बड़ी देर से उठते हैं। मैं ठहरा रात दस बजे से सुबह पाँच बजे तक सोने वाला। मुझे कौन से कोई गीत लिखने होते हैं कि अपनी नींद ख़राब करूँ? साहिर हर रात मेरे बिस्तर पर आकर मुझे उठा देते हैं। थोड़ी देर बहस करने के बाद ख़ुद तो सो जाते हैं, पर मेरी नींद उड़ जाती है। कहते हैं, साहिर ने अमृता प्रीतम की नींद हमेशा-हमेशा के लिए उड़ा दी थी। यह सब सुनकर मुझे बहुत डर लगता है। कहीं मेरा हाल भी अमृता जैसा हो गया तो?
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ओंकार केडिया पूर्व सिविल सेवा अधिकारी हैं। भारत सरकार में उच्च पदों पर पदासीन रहने के बाद वह हाल तक असम रियल एस्टेट एपिलेट ट्राइब्यूनल के सदस्य रहे हैं और आजकल गुवाहाटी में रह रहे हैं। इनका कविता संग्रह इंद्रधनुष काफी चर्चित हुआ। अंग्रेजी में इनकी कविताओं का पहला संग्रह Daddy भी काफी चर्चित रहा। पिछले दिनों वृद्धावस्था पर इनकी 51 कविताओं का संग्रह 'बूढ़ा पेड़' हाल ही में प्रकाशित हुआ है।