वर्ष 2019 की बैसाखी यानि कल सुबह जलियाँवाला बाग़ की हृदयविदारक घटना को पूरे सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं। बहुत बरस से कयास लगाए जा रहे थे कि शायद 100 वर्ष पूरे होने पर ब्रिटेन सरकार इस घटना के लिए भारत की जनता से और शहीदों के परिजनों से माफी मांग लेगी किन्तु ऐसा ना हुआ और ब्रिटेन ने इसे एक कलंक बताते हुए अफसोस ज़ाहिर किया। माफी की मांग करने वालों ने रस्मी तौर पर इसे नाकाफी बताते हुए फिर माफी की मांग उठाई किन्तु उसका कोई असर नहीं पड़ा। इसी बीच हमें पता चला कि हमारे मित्र ओंकार हाल ही में जलियाँवाला बाग गए थे तो हमने उनसे अनुरोध किया कि इस उतार के दौरान उनके मन में जो घटित हुआ, उसको वो एक छोटे से आलेख में उतार सकें तो हम वैबसाइट पर ले सकते हैं। उन्होने हमारी बात मानी और ये आलेख भेजा जो आप नीचे पढ़ेंगे।
ओंकार केडिया*
पिछले दिनों अमृतसर गया तो जलियाँवाला बाग़ जाना ही था। स्वर्ण मंदिर से कुछ कदम की दूरी पर ही यह बाग़ है। सुबह स्वर्ण मंदिर जाकर मत्था टेका, फिर जलियाँवाला बाग़ का रुख किया। उस समय तक अमृतसर की गर्मियां अभी शुरू नहीं हुई थीं। घूमने-फिरने के लिए मौसम अच्छा था, पर जलियाँवाला बाग़ में कुछ ख़ास भीड़ नहीं थी। थोड़ा दुःख हुआ। हम जलियाँवाला बाग़ का महत्व भूलते तो नहीं जा रहे? जिन्होंने गोलियां खाईं, उनके बलिदान को महसूस करने में हम विफल तो नहीं हो गए? जैसे कि गोलियां खाईं, तो कौन सी बड़ी बात हो गई।
परिसर में घुसते ही एक अलग सी अनुभूति हुई। बचपन से जलियाँवाला बाग़ के बारे में सुना था, पर सोचा न था कि वहां जाकर उस घटना को लगभग जी पाऊंगा, जो १९१९ में बैसाखी के दिन घटी थी। जब सामने फैले मैदान को देखा, तो लगा जैसे हजारों लोग खड़े होकर भारत माता की जय का नारा लगा रहे हों। उनकी आँखों में आग दिख रही थी- अंग्रेज़ी हुकूमत और रौलट कानून के खिलाफ़। दूसरे ही पल लगा जैसे पूरा मैदान लाशों से पट गया था। बहुत से लोग थे, जो दर्द के मारे छटपटा रहे थे। चीखने-चिल्लाने की आवाजें सुनाई पड़ रही थीं।
परिसर में दो दीवारों पर गोलियों के निशान बने थे। कुछ निशान बहुत गहरे थे। ऐसी गोलियां जब लोगों के जिस्म पर लगी होंगी, तो कितनी गहरे गई होंगी। काश कि चलाई गई सारी गोलियां दीवारों पर लगी होतीं या जनरल डायर ने दीवारों पर ही गोलियां चलाने का हुक्म दिया होता। उसकी गोलियां चलाने की सनक भी पूरी हो जाती और लोग भी बच जाते।
फिर मैं उस कुंए पर पहुँचा जिसमें गोलियों से बचने के लिए लोग कूद पड़े थे। कुँए में गिरकर भी बहुत से लोग मरे थे। मन में सवाल आया कि क्या जनरल डायर ने अपने सैनिकों को कुएं में कूदने वालों पर भी गोलियां चलाने का आदेश दिया होगा? क्या किसी का बच जाना उन्हें बिल्कुल मंज़ूर नहीं रहा होगा?
लौटते वक़्त मैंने देखा, एक गलीनुमा प्रवेश मार्ग पर लिखा था कि जनरल डायर ने अपने सैनिकों के साथ इसी मार्ग से प्रवेश किया था। जनरल डायर जैसे लोगों को ऐसे प्रवेश मार्ग क्यों मिल जाते हैं? धरती फटने जैसा कुछ वास्तव में क्यों नहीं होता?
मन में ये भी विचार आया कि वह क्रूर था या बेवकूफ़ कि निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाने का हुक्म दिया? ऐसे हुक्म मानने को सिपाही बाध्य क्यों होते हैं? क्या इसी को क़ानून का शासन कहते हैं? हो सकता है, सिपाही भी उसी की तरह क्रूर या बेवकूफ़ थे?
मैंने सोचा कि कभी भी ऐसे व्यक्ति के हाथों में ताक़त नहीं देनी चाहिए जो ज़िम्मेदारी से उसका इस्तेमाल न कर सकता हो। दूसरे ही क्षण ख्याल आया कि जनरल डायर को शायद इसीलिए अंग्रेज़ी हुकूमत ने इतनी ताक़त दी थी कि वह बिना ज़िम्मेदारी के बोध के, बिना आगा-पीछा सोचे, बिना पलक झपकाए उसका इस्तेमाल कर सकता था। कभी-कभी सत्ता को अपनी हवस पूरी करने के लिए हृदयहीन लोगों की बहुत ज़रूरत होती है।
प्रवेश द्वार पर अब बहुत थोड़े लोग भीतर जाने का इंतज़ार कर रहे थे। ऐसी ऐतिहासिक जगह के लिए लोगों की तादाद बहुत ज़्यादा होनी चाहिए थी। मन में एक ख्वाहिश जगी कि जो भी स्वर्ण मंदिर जाए, जलियाँवाला बाग़ में मत्था ज़रूर टेके। एक साथ दो-दो तीर्थ हो जाएंगे।
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