कर्तव्य की बुनावट में अधिकार का ताना-बाना
अधिकार एवं कर्तव्य के बीच द्वंद राजनीतिशास्त्र की शाश्वत समस्या है। डॉ मधु कपूर इसे दार्शनिक दृष्टि से भी परख रही हैं। उनके अनुसार सामाजिक न्याय के सामने सबसे बड़ी चुनौती तब उपस्थित होती है जब व्यक्तिगत अधिकार और सामूहिक कर्तव्य एक-दूसरे के विरोध में आमने-सामने खड़े होते हैं । यह चुनौती और भी बड़ी हो जाती है जब इनके बीच संतुलन स्थापित करना मुश्किल हो जाता है। यह लेख इस ओर संकेत करता दिख रहा है कि व्यक्तिगत अधिकार और सामूहिक कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, दोनों में संतुलन आवश्यक है।
कर्तव्य की बुनावट में अधिकार का ताना-बाना
डॉ मधु कपूर
“मुझे जिन्दा रहने का कोई अधिकार नहीं है!”—मृत्युदंड की प्रतीक्षा कर रही कैदी-महिला की चिल्लाहट थी। “तुम्हें जिन्दा रहने का पूरा अधिकार है, मैं तुम्हें यह अधिकार दिलवाऊँगी ।” महिला वकील का दृढ़ उत्तर था।
उपर्युक्त संवाद मानवीय संवेदनाओं की घुटन और क़ानूनी बहस का हिस्सा है । न तो कैदी-महिला को मृत्युदंड मिला और न ही वकील उसका अधिकार दिलवा पाई, बल्कि कैदी-महिला की हत्या जेल के ही कुछ कर्मचारियों के द्वारा गले में रस्सी का फंदा डालकर की गई । (क्रिमिनल जस्टिस सत्य घटना पर आधारित)। अधिकार और न्याय के बीच की इस गहरी खाई को पाटने का काम सिर्फ कानून नहीं कर सकता है । जरूरत है सामाजिक प्रेक्षापट को बदलने की, जो बदलता तो है पर उसके स्थान पर कुछ नकाबपोश रक्तबीज स्थान दखल कर लेते है ।
जिन्दा रहने की एक सहजात प्रवृत्ति प्राणी जगत में पाई जाती है, जिन्दा रहने का अर्थ सिर्फ इतना ही नहीं है साँस बिना किसी रूकावट के चलती रहे, बल्कि एक मर्यादित और सम्मानित जीवन जीने का अधिकार इसकी कुंजी है । १९७३, अरुणा शानबाग, एक नर्स बम्बई अस्पताल में कार्यरत अस्पताल के ही एक कर्मी के द्वारा आक्रांत होकर स्थायी रूप से जिन्दा लाश बन गई थी । अस्पताल के कर्मचारियों की सहानुभूति और करुणा पर साँस लेती रही ४२ सालों तक। तमाम कानून, सबूतों और मानवाधिकार की कोशिशों के बावजूद न्याय, नैतिकता और मानवीय मर्यादा बेजार होती रही। अपराधी तो ७ साल बाद छूट गया । किन्तु अरुणा शानबाग के लिए क़ानून तथा नैतिकता दोनों ही नीरव हो चुके थे ।
द्यूत सभा में द्रौपदी ने स्वयं को दाँव पर लगाए जाने को चुनौती देते हुए कहा ㄧ’युधिष्ठिर को क्या अधिकार था मुझे दाँव पर लगाने का जब वह स्वयं को हार चुके थे।’ द्रौपदी पाँच पाण्डवों की पत्नी थी। इसलिए उसको दाँव पर लगाने का युधिष्ठिर को अकेले कोई अधिकार नहीं था। द्रौपदी ‘नाथवती’ होते हुए भी ‘अनाथवती’ ही रही ।
गांधीजी इस बात पर दुख जताते थे कि हर कोई अधिकारों की चाहत रखता है और उन पर जोर देता है, जबकि कोई भी कर्तव्य के बारे में नहीं सोचता” (हिंद स्वराज) । अधिकारों का दावा आये दिन, उठते बैठते घरों में, समाज में
अशांति और कलह का कारण बन जाता हैं । अक्सर बच्चों को कहते सुना जाता है कि ‘यह मेरी जिंदगी है, जैसे चाहूँ मैं इसे जिऊं, आपको कोई अधिकार नहीं है मुझे रोकने या टोकने का”। स्पष्ट है कि कर्तव्यों के पालन के बिना मानव
अधिकार बेईमानी हो जाते हैं। समानता, स्वतंत्रता तथा वाक् स्वाधीनता का अधिकार एक व्यापक सामाजिक न्याय की अवधारणा के अंतर्गत आता है। स्वतंत्रता हमारा अधिकार अवश्य है लेकिन यह अधिकार निर्बाध नहीं है । वाकस्वाधीनता भी मानव का अधिकार है, पर घृणास्पद छींटें कसने तथा हिंसा भड़काने वाला भाषण देने से बचने का कर्तव्य भी उसमें निहित है। परिवेश स्वच्छ पाना हमारा अधिकार है तो भविष्य की पीढ़ी के लिए पृथ्वी को संरक्षित रखने का सामूहिक कर्तव्य भी हमारा ही है । न्यायायिक प्रशासन पाना यदि हमारा अधिकार है तो उसे भ्रष्ट न-बनाना हमारा कर्त्तव्य है । प्रत्येक अधिकार एक संगत कर्तव्य को जन्म देता है, जिम्मेदारी स्वीकार किए बिना स्वतंत्रता स्वयं स्वतंत्रता को नष्ट कर देती है।
समाज का गठन एक सुखी जिंदगी की तलाश के लिए किया गया था। और सुख ㄧकौटिल्यसूत्र के अनुसार ’सुखस्य मूलं धर्मः’ अर्थात सुख का मूल कर्तव्य पालन में निहित है । धर्म शब्द का अर्थ यहाँ कर्तव्य से है। जैसे माता-पिता का कर्तव्य है बच्चों को सुरक्षा देना, शिक्षा देना तथा समाज के योग्य तैयार करना । यदि माता-पिता इन कर्त्तव्यों का पालन नहीं करते हैं तो स्वयं उनका अन्त:करण उनको धिक्कारता है, समाज उनकी निन्दा करता है । किसी संस्था में कर्मरत होने के कारण उस संस्था से नियमित तनख्वाह पाना व्यक्ति का अधिकार होता है । लेकिन यही अधिकार विवाद का कारण भी बन जाता है, जैसे ㄧ उत्तराधिकार से प्राप्त संपत्ति, स्त्री-धन, घूस लेकर नौकरी देना, अवैध रूप से जमीन हड़पना, उधार लेकर न चुकाना, हफ्ता वसूली करना, अभियुक्त और साक्षी को डराना-धमकाना आदि । कहने का आशय है कि जिस व्यक्ति के साथ यह अन्याय किया जाता है, उसे न्याय पाने का हक़ होता है।
हमारे सीमित संसाधनों और असीमित जरूरतों के बीच अक्सर तालमेल नहीं बैठता है । हो सकता है गरीब माँ-बाप अपने बच्चों को उच्च शिक्षा देने में असमर्थ हो, इस अधिकार को पाने के लिए कुछ बच्चें अपने परिश्रम से उसे अर्जित भी कर लेते हैं, कुछ अपनी सीमायें समझ कर शिक्षा ही छोड़ देते है । “मुझे यह मिलना चाहिए क्योंकि यह मेरा अधिकार है” इससे कहीं बेहतर है यह विश्वास करना कि “मुझे यह करना चाहिए क्योंकि मैं इसका योग्य अधिकारी हूँ”। भीमसेन जोशी और हरिप्रसाद चौरसिया जैसे विख्यात संगीतकारों ने बचपन से ही अपनी प्रतिभा को पहचान कर घर से भागकर इस कला पर अधिकार हासिल किया । कुछ ऐसे बदनसीब होते है, जिन्हें अच्छी से अच्छी शिक्षा का अवसर मिलने पर भी उसे गँवा देते है । तात्पर्य है कि अधिकार हमें योग्यता के अनुसार अर्जित करना पड़ता है । मानवीयता के नाते शरणार्थियों को आश्रय देना कर्त्तव्य है, तो अपनी क्षमता के अनुसार न-देना भी अधिकार है । गुस्से में आकर अपनी ही संपत्ति की तोड़फोड़ करना हमारा अधिकार है, पर इस तोड़फोड़ से जो माहौल दूषित होता है, वह अधिकार की सीमा के बाहर होता है।
अधिकार व्यक्ति को सचेतन बनाता है, जबकि कर्तव्य आगाह करता है। जैसेᅳ हमें किसी भी धर्म की पूजा पद्धति को अपनाने का अधिकार है, पर हमारा कर्तव्य भी है कि किसी अन्य व्यक्ति को इससे कोई हानि न हो। हमें गाड़ी चलाने का अधिकार है, परन्तु हमारा कर्तव्य है कि हम वैध लाइसेंस के साथ यातायात के नियमों के साथ गाड़ी चलाएँ । हमें अपने घरों में संगीत सुनने का अधिकार है परन्तु यह संगीत अन्य लोगों को कष्ट न पहुँचाए यह हमारा कर्तव्य है । इस तरह कर्तव्य की कोई सटीक परिभाषा नहीं दी जा सकती है। कर्तव्य अगर थोप दिया जाए तो वह थकाने वाला हो जाता है । लेकिन, ‘कर्तव्य यदि श्रद्धा व आस्था के साथ किया जाए तो वह नैतिकता की सर्वोच्च कसौटी पर खरा उतरता है। उदाहरण के लिए राजनीतिज्ञ सर्वसाधारण की सेवा करने का दिखावा करते है, वह शर्त-सापेक्ष कहा जा सकता है, क्योंकि उनके ये कर्म किसी पद की लालसा से, अर्थ प्राप्ति अथवा वोट पाने की इच्छा से किया जाता है । पर कर्तव्य पालन तो विशुद्ध निरपेक्ष संकल्प प्रणीत होता है । कर्तव्य करने के पीछे कोई तर्क नहीं काम करता है । उदाहरण के लिए ‘भूख लगना’ एक जैविक वृत्ति है, अतः यह प्रश्न ‘क्यों भूख लगी’ अवांछित है । प्रसिद्ध दार्शनिक कान्ट नैतिकता में एक ऐसी ही ‘अनिवार्यता’ की तलाश करते है जो शर्त सापेक्ष न हो। अतः ‘कर्त्तव्य सिर्फ कर्तव्य के खातिर’ ही किया जा सकता है, किसी स्वार्थ से प्रेरित होकर नहीं । पक्षियों का घोंसला बनाना, बच्चों की परवरिश करना, मछलियों का तैरना, पक्षियों का उड़ना सहजात प्रवृत्ति है, इसके लिए उन्हें किसी शिक्षण की आवश्यकता नहीं पड़ती है, जिसमे लेश मात्र भी स्वार्थ की बू नहीं आती है ।
काण्टीय नैतिकता का मूल सिद्धांत यही है जो ‘मैं करता हूँ वह दूसरे को भी करने की इज़ाज़त दी जानी चाहिए’ । यदि मैं कचरा कूड़ेदान में नहीं डालता हूँ तो यह अधिकार सबको है कि वे कचरा कूड़ेदान में न डाले । इसी तरह अगर मैं झूठ बोल सकता हूँ तो दुनिया में हर किसी को अधिकार है कि वह झूठ बोल सकता है । कल्पना करें ऐसी दुनिया कितनी भयंकर हो जाएगी । रोजमर्रा की जिन्दगी में अधिकारों और कर्तव्यों की टकराहट सर्वविदित है ㄧसम्पत्ति, रिश्तें, विचारों का
द्वंद्व, धूम्रपान करने का अधिकार, श्रमिकों का अधिकार, निजता का अधिकार, पद की गरिमा का असम्मान इत्यादि टकराहट की दीर्घ सूची है । बेहतर हो कि अधिकार और कर्त्तव्य के सह-संबंध, उनकी मर्यादा को न्याय के चौखटे में रखकर ही समझा जाए । न्याय विचार सिर्फ कानून के कन्धों पर चढ़कर नहीं होता है, अर्थात क़ानूनी किताब केवल न्याय विचार नहीं कर सकती । ‘न्याय करना’ एक ऐसा गुण है जो अन्य सभी मानवीय संवेदनाओं की तरह सहजात होता है। हमारी अंतर-प्रज्ञा निर्धारित कर देती है, बतौर शिक्षण के हमें कब क्या करना चाहिए, हालाँकि इसमें रकम फेर की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है।
एक घटना का उल्लेख करना उचित होगा, जिसमें एक पुलिसकर्मी को कुछ युवक पीट रहे थे । पुलिसकर्मी के पास पिस्तौल और ट्रेनिंग दोनों ही थी, लेकिन उसने उसका इस्तेमाल नहीं किया, क्योंकि वह ईवीएम को सुरक्षित रखना चाहता था। उसने कर्तव्य को प्राथमिकता देने का उदाहरण पेश किया । इसी प्रकार शिक्षक जब छात्रों को पढ़ाने का अपना कर्तव्य निभा रहा हो तो छात्रों को यह अधिकार नहीं है कि कक्षा में शोरगुल मचायें या यह कहें कि ‘आप अपना काम करें हमें अपना काम करने दें’ ।
अंत में यह कहना उचित होगा कि यदि किसी प्रक्रिया को उसके हाल पर छोड़ दिया जाए, तो वह स्वाभाविक रूप से अव्यवस्था और क्षय की दिशा में अग्रसर होने लगती है ᅳ जैसे यदि हम किसी मशीन को बिना रखरखाव के छोड़ दें, तो वह धीरे-धीरे खराब हो जाती है । यह भौतिकी का मौलिक नियम है। अधिकार और कर्तव्य न्याय की कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि एक चक्रक अनिवार्यता है, जो एक दूसरे के साथ ही सुरक्षित रह सकती है। कर्तव्य अधिकार को शिथिल होने से बचाता है, और अधिकार कर्तव्य को एक उड़ान देता है, जिससे न्यायविचार को थोड़ा आगे बढ़ने में मदद मिलती है।
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डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance प्रकाशित हुआ है।