बलप्रदा जैसी संस्थाएं ही समाज का वास्तविक बल हैं

विद्या भूषण अरोरा | पर्यावरण | Jul 18, 2021 | 144

विद्या भूषण अरोड़ा*

उत्तरी दिल्ली के रोहिणी उपनगर में एक स्वयंसेवी संस्थान काम कर रहा है जिसका नाम है बलप्रदा! संस्था के सचिव मधुसूदन शर्मा से पिछले कुछ सात-आठ बरसों की पहचान है। बहुत ज़्यादा तो नहीं लेकिन जब भी मुलाक़ात हुई, हर बार लगा कि आप किसी नेकदिल व्यक्ति की संगत में हैं।

अपने बारे में कुछ भी ना कहने वाले मधुसूदन जी से तो नहीं लेकिन हमारे एक अन्य सांझे मित्र आर. एन. वत्स जी ने एक बार ज़िक्र किया कि मधुसूदन जी ने पिछले करीब दो दशकों में रोहिणी के विभिन्न हिस्सों में इतने पेड़ लगाए हैं कि एशिया की इस सबसे बड़ी कॉलोनी के किसी भी हिस्से में निकल जाएँ, आपको बलप्रदा के लगाए वृक्ष अवश्य दिखेंगे। वत्स जी इस संस्था के अध्यक्ष हैं हालांकि उन्होंने ही बताया कि संस्था के रचनात्मक कार्यों की ज़्यादातर ज़िम्मेवारी मधुसूदन जी ही देखते हैं।

वत्स जी ने ही यह जानकारी भी दी कि बलप्रदा अपने ही सदस्यों के संसाधनों से ही कार्यरत है और 2001 से पंजीकृत होने के बावजूद इसने अभी तक किसी भी सरकारी या अन्य डोनर एजेंसी से  वित्तीय सहायता नहीं ली है। यहाँ तक कि वृक्षारोपण के लिए जो पौध भी ली जाती है, उसे बहुदा खरीदना ही पड़ता है। जब मैंने मधुसूदन जी से इस बारे में पूछा तो उन्होँने बहुत सरलता से यही उत्तर दिया कि सरकारी सहायता लेने के लिए जिस प्रकार के प्रयासों की आवश्यकता होती है, वैसे प्रयास करना मेरे स्वभाव में नहीं है।

बलप्रदा के बारे में सुनकर मेरी भी रुचि जगी और मैंने मधुसूदन जी से उनके काम के बारे में और जानना चाहा। कभी-कभार फोन पर बात होती तो वो बलप्रदा के बारे में पूछने पर भी कुछ विशेष ना कहते। फिर एक रोज़ चर्चा होने पर काफी संकोच के साथ उन्होंने मुझे बलप्रदा द्वारा किए जाने वाले एक वृक्षारोपण के कार्यक्रम में आमंत्रित किया जो कल यानि 17 जुलाई को होना था। मैंने बातों-बातों में उनके संकोच का कारण पूछा तो उन्होंने सरलता से कहा – “मैं तो राजस्थान से हूँ और वृक्षों और पानी की महत्ता को दिल्ली वालों से बिलकुल अलग ढंग से देखता हूँ। वृक्ष लगाना तो मुझे सुकून देता है, मेरे लिए यह एक आध्यात्मिक अनुभव जैसा भी है। मुझे लगता है कि मैं इसमें और लोगों को कहीं ज़बरदस्ती ना ले आऊँ!”

मेरा मन हुआ कि एकबारगी कह ही डालूँ कि आप अपने संकोच के चलते रोहिणी के इस आंदोलन को बहुत सीमित दायरे में समेट कर रखे हुए हैं लेकिन फिर कहा नहीं। सोचता हूँ, अब यह रपट देखेंगे तो मेरी बात उन तक पहुँच ही जाएगी। इस आलेख को आप इस कार्यक्रम की रपट ही मान लें क्योंकि कल वृक्षारोपण का कार्यक्रम समाप्त होने पर जब फोन पर उनसे बात हुई तो कार्यक्रम की रपट लिखने की ज़िम्मेवारी मैंने अपने पर ले ली थी। मैंने उनसे पूछा था कि आपको रिपोर्ट चाहिए या रपट यानि कार्यक्रम के बारे में हिन्दी में लिखना है या इंग्लिश में तो उन्होंने ये निर्णय मुझ पर ही छोड़ दिया। मुझे लगा कि ऐसी बातें तो हिन्दी में ही ठीक से कह पाऊँगा, इंग्लिश में तो ये रिपोर्ट भी सरकारी प्रेस रिलीज़ की तरह ना बन जाये जो मैं अपनी नौकरी के दौरान हमेशा करता रहा हूँ।

2001 में बनाई गई इस संस्था का नाम बलप्रदा इन लोगों ने क्यों रखा होगा, इस पर तो अभी मधुसूदन जी से या वत्स साहब से चर्चा नहीं हुई लेकिन कल इस कार्यक्रम में शामिल होने के बाद लगा कि नाम तो चरितार्थ हो रहा है क्योंकि वृक्षारोपण में भाग लेने के बाद मुझे और मेरी पत्नी को लगा कि हम थके नहीं है बल्कि और तरोताज़ा हो गए हैं। घोर ट्रैफिक में मेरी पैंतीस किलोमीटर की ड्राइविंग की थकान भी एक अमलतास और एक नीम का वृक्ष रोपने के बाद उतर गई और बल्कि मैं दूसरे लोगों को उनके पेड़ लगाने के काम में मदद करने को उद्यत हो गया। हालांकि धूप अभी ढली नहीं थी (करीब चार बजे के आस-पास का समय रहा होगा) लेकिन उस धूप की तपिश लग नहीं रही थी। क्या ‘शिशु-अमलतास’ और ‘शिशु-नीम’ अपने भविष्य की शीतलता का आभास हमें अभी दे रहे थे? जानता हूँ कि विज्ञान के अनुसार ऐसा संभव नहीं है, लेकिन अपना तो यही मानने का मन है।

मुझे पहले मालूम ना था कि मैं रपट लिखने वाला हूँ नहीं तो मैं कम से कम उन बच्चों के नाम तो पूछ ही सकता था जो बहुत उत्साह से वृक्षारोपण के काम में मदद कर रहे थे। कौनसा पेड़ कौन लगा रहा है, इसका विवरण लिखना और फिर तस्वीरें भी उतारना। पेड़ लगाते हुए लोगों की फोटो लेना थोड़ा ritualistic (कर्मकाण्ड जैसा) तो लग सकता है लेकिन जागरूकता फैलाने के लिए ये ritual काफी कारगर है। इन बच्चों में लड़के-लड़कियां दोनों ही थे। इन लोगों से बातें करता तो आज ये रपट सचमुच रपट बन सकती थी, अब तो ये जो है, सो है।

वृक्षारोपण करने आए लोगों में भी सिर्फ बड़े-बूढ़े नहीं थे बल्कि मैं जितनी देर वहाँ था, उतनी सी देर में मैंने कई युवाओं को भी वृक्षारोपण करते देखा। डीडीए के जिस बहुत बड़े पार्क में यह कार्यक्रम हो रहा था, वह रोहिणी के बिलकुल आखिरी कोने में था – तो अगर ये लोग रोहिणी से भी आए थे तो समझिए कि साथ-आठ किलोमीटर दूर से तो आए ही होंगे।

मधुसूदन जी ने कल तो नहीं लेकिन पहले की किसी बातचीत में बताया था कि वृक्ष लगने के बाद उनकी देखभाल ज़्यादा मुश्किल काम है। कल का कार्यक्रम तो डीडीए पार्क में हुआ तो उम्मीद की जा सकती है कि उनके बागवानी विभाग का सहयोग मिल जाएगा किन्तु जो वृक्ष फुट्पाथों और मार्केट्स के किनारों पर लगाए गए हैं, उनकी सघन देखभाल करनी पड़ती है।

कभी-कभी उस वक़्त बहुत तकलीफ होती है जब बलप्रदा द्वारा लगाए गए ऐसे वृक्ष जो बरसों की देखभाल के बात अब खूब फल-फूल रहे हैं, किसी सरकारी विभाग द्वारा ही उखाड़ने के कगार पर पहुंचा दिये जाते हैं। पीडबल्यूडी फुटपाथों के नवीनीकरण के समय या बिजली के नए खम्बे लगाने के समय अगर लापरवाही दिखाएँ तो पेड़ों को बहुत नुकसान पहुंचता है। जब तक बलप्रदा तक ये सूचना पहुँचती है और ये लोग उच्च-अधिकारियों तक गुहार लगाने की सोचते हैं, तब तक कई बार देर हो चुकी होती है।

मधुसूदन जी ने ये भी बताया कि नीम के पौधों को बड़ा करना बहुत मुश्किल होता है। विडम्बना यह है कि जो लोग नीम के महत्व को जानते हैं और उसका उपयोग करना चाहते हैं, वही लोग नीम को बड़ा नहीं होने देते। अगर ठीक से देखभाल हो तो नीम लगभग तीन साल में पूरा छायादार वृक्ष बन सकता है लेकिन बलप्रदा ने रोहिणी में अर्जित अपने अनुभव से पाया कि लोग छोटे से नीम की ही ताज़ी कोमल पत्तियाँ चबाने के लिए तोड़ने लगते हैं या दातुन के लिए छोटी-छोटी शाखाएँ तोड़ने लगते हैं। उनकी इन हरकतों से या तो नीम सूख ही जाता है और यदि बहुत प्रयास करने पर बचता भी है तो कई बार नीम को पूरा बड़ा होने में दस-दस साल भी लग जाते हैं।

कल से पहले भी मैंने वन-महोत्सव टाइप के कार्यक्रमों में हिस्सेदारी की है और पौधारोपण भी कई बार देखा है लेकिन कल जैसा माहौल पहले देखने में नहीं आया। संभवतः आयोजकों की सद्भावना कार्यक्रम के हर पहलू में परिलक्षित हो रही थी। मैं जानता हूँ कि इस रपट में बहुत सी बातें छूट रही हैं और उनका ज़िक्र ज़रूर होना चाहिए था – खासतौर पर उन सब नवयुवक-नवयुवतियों का जिन्होंने कल खूब रुचि लेकर बड़ों का सहयोग किया। सभी का उत्साह देखते ही बनता था।

इन लोगों के अलावा अच्छे से ज़िक्र उन मालियों और उनके सहायकों का भी होना चाहिए था जिन्होंने पूरी ज़िम्मेवारी के साथ करीब 250 वृक्षों के रोपण की तैयारी बलप्रदा को कराई! संस्था ने तो इन सभी को धन्यवाद दिया ही होगा, इस स्तंभकार की ओर से भी इन सभी का बहुत-शुक्रिया।  फिर कभी मौका मिला तो इन लोगों से भी बात करेंगे और इनके बारे में कुछ ज़्यादा लिखेंगे।

अभी तो इस शुभकामना के साथ इस आलेख को समाप्त करते हैं कि प्रकृति माँ बलप्रदा को और बल प्रदान करें और ये सभी लोग इसी तरह निस्वार्थ भाव से प्रकृति और समाज के लिए अपना सकारात्मक सहयोग करते रहें।

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*इस वेब-पत्रिका के संयोजक हैं। विद्या भूषण के ज़्यादातर लेख आप आज की बात कैटेगरी के अंतर्गत देख सकते हैं।



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