सात्विक जीवन शैली है सत्याग्रही बनने की सच्ची पात्रता

सुज्ञान मोदी | समाज एवं राजनीति | Sep 30, 2024 | 138

गांधी जयंती पर विशेष लेख - 1  

सत्याग्रह को आज भी केवल अनशन, धरना-प्रदर्शन, सिविल नाफरमानी, घेराव और मोर्चा-जुलूस आदि समझ लिया जाता है। जबकि यह उसका ऊपरी व्यवहार मात्र है। उसका आंतरिक स्वरूप कुछ और ही है।

जो राजनीतिक सत्याग्रही इस मुगालते में रहेगा कि वह अपनी नेतागिरी के बूते क्रांति कर रहा है और अपने राजनीतिक समर्थकों के बूते सफल होकर व्यवस्था में परिवर्तन ला देगा, तो वह उसकी भूल ही होगी। ऐसा अभिमानी अथवा गुमानी अनास्थावान तो औंधे मुँह गिरेगा और उसे निराशा ही हाथ लगेगी। संभव है कि तब भी शायद उसे होश न आए। तब भी वह अपनी विफलता का ठीकरा या तो परिस्थितियों पर फोड़ेगा या अपने विरोधियों-समर्थकों आदि पर।

सत्याग्रही का सबसे बड़ा बल होता है उसकी आस्था। आस्था अपनी निजी क्षमताओं, संस्था-संगठनों, समर्थकों आदि में नहीं, बल्कि सत्यमात्र में आस्था। उस शक्ति में आस्था जिससे सब संचालित हैं। उस नियम में आस्था जो नियम बिना किसी भेद-भाव के सब पर समान रूप से लागू है। पवित्र जीवन की उस साधना में आस्था जिससे हमें सात्विक बल प्राप्त होता है। जो हमें सचमुच का निर्भयी किंतु विनम्र और सहनशील बनाता है।

सच्चे सत्याग्रही के जीवन में सात्विकता का सहज अनुशासन होता है। उसे तामसिकता से मुक्त होना होता है। उसे अपनी राजसिकता को अपने सात्विक बल से अनुशासित करना होता है। उसके जीवन से शुचिता का सात्विक सौंदर्य प्रकट होता है। उसके वचनों में ऐसी मृदुता और मधुरता होती है कि उसके द्वारा बोला गया कटु-से-कटु सत्य भी जागृत रूप से सुननेवाले को अपमान का बोध नहीं कराती, बल्कि यदि ग्रहणशीलता हो तो सोचने को विवश करती है। उनमें जालिम के भी हृदय-परिवर्तन की शक्ति होती है।

अभी सत्याग्रह को राजनीतिक नूरा-कुश्ती का खेल समझ लिया गया है। कोई कुछ भी तात्कालिक, अगंभीर और राजनीतिक तर्क-वितर्क करके स्वयं के सत्याग्रही होने का दावा करने लगता है या भोलेपन में अपने बारे में ऐसा मुगालता पाल लेता है। इसलिए तात्कालिक रूप से थोड़ी-बहुत राजनीतिक वाहवाही प्राप्त करने के बाद शीघ्र ही उसका सदाशयी प्रयास भी बिखरकर स्खलित हो जाता है। वह राजनीतिक विरोधियों की कुचाल का शिकार होकर उसकी अपवित्र राजनीतिक भँवर में फँसता जाता है। जनता के एक हिस्से की निष्क्रिय सहानुभूति भी पाता है। लेकिन न तो उसके स्वयं के जीवन में कोई समाधान होता है, न ही वह व्यवस्था में कोई ठोस परिवर्तन ला पाता है। फिर वह अतीत की अपनी निरर्थक उपलब्धियों के बखान में ही पड़ा रहता है। पद-पुरस्कार के प्रमाण-पत्रों और स्मृति-चिह्नों के प्रदर्शन में पड़ जाता है। यह आज के गृहस्थों की कारुणिक स्थिति है।

आत्मप्रचार और आत्ममुग्धता महामारी के स्तर का मनोरोग बन चुकी है। इस कारण सत्याग्रह के लिए जो निर्लोभता, निस्पृहता, निराभिमानता और निर्भयता चाहिए, उससे वह कोसों दूर ही रह जाता है। फिर भला वह क्या सत्याग्रह को जानेगा और क्या क्रांति करेगा! यह किसी की व्यक्तिगत निंदा और द्वेष आदि की बात नहीं है। यह हम सबकी सामूहिक चारित्रिक दुर्बलता की स्वीकारोक्ति मात्र है। इस स्वीकारने के बाद ही इनसे मुक्ति का मार्ग मिल सकेगा। यदि सफाई देने के चक्कर में पड़े या रक्षात्मक तर्क-कुतर्क के चक्कर में पड़े, तब तो जीवन में चारित्रिक विकास की बची-खुची संभावना भी अवरुद्ध हो जाएगी।

सत्याग्रही से पहले सत्य-ग्राही बनें

गांधीजी और विनोबा कहते थे कि सत्याग्रही होने की सबसे आधारभूत कसौटी या पात्रता है- ‘सत्यग्राही’ होना। ठीक से पढ़ें— ‘सत्य-ग्राही’ होना। सत्य को ग्रहण करने की पात्रता होना। अभी तो सत्यमात्र से कोसों दूर हैं। उसकी साधना और आराधना करने लायक जो पवित्र भक्ति और निश्छल-निष्काम श्रद्धा चाहिए, उसका हृदय में प्रस्फुटन ही नहीं हुआ। जीवन में किसी प्रकार का सात्विक प्रयोग शुरू नहीं हुआ। सात्विक आहार और तद्-आधारित सर्वविधि आरोग्य का विज्ञान नहीं समझा। सात्विक संतों की वाणियों के नित्य स्वाध्याय और अवगाहन के लिए समय नहीं है। राजनीतिक बकवादों और विकथाओं में समय काट रहे हैं। सात्विक जीवन-प्रयोगों की कोई पारिवारिक योजना है ही नहीं। जीवन का कोई महान उद्देश्य समझ में नहीं आया। व्यवस्था क्या है और व्यवस्था परिवर्तन कैसे शक्य है, इसका गूढ़ विज्ञान और इसकी सूक्ष्म दृष्टि, कुछ हाथ नहीं आई। बस कभी इस दल की, कभी उस दल की, कभी इस नेता, कभी उस नेता की राजनीतिक निंदा-स्तुति में पड़े हुए हैं। दिन-रात उल-जुलूल टीवी समाचारों और बहसों में पड़े हुए हैं।

भारत का समाज और यहाँ के गृहस्थ प्राज्ञ रूप से इतने भ्रांत और निकम्मे हो जाएंगे, इसकी कल्पना भी हमारे राष्ट्र-निर्माताओं ने नहीं की होगी। गांधीजी ने अवश्य यह अंदेशा जताया था कि यदि केवल भौतिक विकास को ही विकास मानोगे तो यहाँ के गृहस्थ शील-सदाचार और चैतन्यता के मोर्चे पर पिछड़ते जाएंगे और हमारी भावी पीढ़ियाँ चारित्रिक रूप से अगंभीर, पतित और निर्बल होती जाएंगी। भारत के भोगवादी शासक-वर्गों और तमोगुणी-रजोगुणी कुचक्र में फँसे निरीह गृहस्थों ने गांधीजी की उस आशंका को सच साबित कर दिखाया। अब वे भला क्या सत्याग्रह कर पाएंगे और क्या क्रांति कर पाएंगे? यह निराशा और आत्मदैन्यता की बात नहीं है, यह वास्तविक और तटस्थ आत्ममूल्यांकन की बात है। लेकिन इस मृदु आत्मालोचना को भी पचा पाने की क्षमता आज भारत के कितने लोगों में होगी, यह सोचने की बात है।

यही कारण है कि इतनी संस्थाएँ, संगठन, साहित्य और आयोजन आदि में इतना संसाधन लगाकर भी वह अपव्यय के अतिरिक्त कुछ भी साबित नहीं होता है। हम सब अपना-अपना मुखड़ा चमकाकर, फोटो खिंचाकर, भाषणादि देकर, सौजन्य मेल-मिलाप करके वापस उसी तामसिक और राजसिक जीवन-चर्या में लौट आते हैं। और अगले दिन से फिर ऐसे ही किसी दूसरे अवसर की तलाश में लग जाते हैं जहाँ यह झूठी संतुष्टि हो सके कि देखो हम भी कितना क्रांतिकारी प्रयास कर रहे हैं। संत कबीर कहते थे कि ‘यह भ्रम भूत सकल जग खाया।’ यहाँ तो ‘भ्रम का भूत’ ही नहीं, ‘भूत का भ्रम’ यानी अतीत की निरर्थक उपलब्धियों का झूठा भ्रम भी हमारे साथ आजीवन चिपटा रहता है।

सत्याग्रह और स्वराज अपने मूल में राजनीतिक न होकर चारित्रिक शुचिता और गहन आध्यात्मिक साधना के महान प्रयोग और लक्ष्य थे, इतना भर समझ लेने से मानसिक-चैतसिक क्रांति का सर्वकल्याणकारी मार्ग खुल जाएगा। व्रतनिष्ठ, श्रद्धा-संपुष्ट और सर्वविधि सात्विक जीवन के अतिरिक्त इसका कोई दूसरा साधन नहीं, यह हमें समझ में आ जाए तो सार्वजनीन और सार्वकालिक सुख-शांति का दिन दूर नहीं। फिर तो पृथ्वी ही स्वर्ग बन जाए, मनुष्यमात्र देवी-देवता बन जाएँ, सभी जीव-जंतु सह-अस्तित्व की भावना से निर्भयी होकर विचरण करें, सभी जलस्रोत स्वच्छ हो जाएँ, विज्ञान का उपयोग मानव-कल्याण में और वातावरण की शुद्धि में होने लगे।

यह सब कोरी कल्पना नहीं, ऋषियों, संतों-सूफ़ियों, बुद्धों, तीर्थंकरों और दुनिया के सभी हिस्सों के सत्यसाधकों का बताया सुंदर व्यावहारिक जीवन-मार्ग है। इसमें प्रथम दिन से और पहले कदम से ही सफलता सुनिश्चित है। साधकों ने व्यक्तिगत जीवन में इसका सुफल प्राप्त कर वर्तमान में भी इसे प्रमाणित किया है। हर दौर में और हर युग में यह प्रमाणित ही रहेगा।

सत्पुरुषों का योगबल जगत का कल्याण करें!

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सुज्ञान मोदी

(श्रीमद राजचन्द्र, महात्मा गांधी एवं आचार्य विनोबा भावे जैसे संतों के आध्यात्मिक विचारों को समर्पित साधक सुज्ञान मोदी ने आध्यात्मिक और राजनैतिक सजगता का अद्भुत संतुलन साधा है। जहां पिछले एक दशक से वह श्रीमद राजचन्द्र सेवा-केन्द्र  से संबद्ध मुमुक्षु के रूप में अपनी आध्यात्मिक चेतना को विस्तार देने का प्रयास कर रहे हैं, वहीं वह बहुत सी सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं से भी जुड़े रहे हैं। इनमें से प्रमुख हैं, गांधी शांति प्रतिष्ठान, नर नारायण न्यास, राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट, सोसाइटी फॉर कम्यूनल हार्मनी, समाजवादी समागम, ज्ञान प्रतिष्ठान, और स्वराज पीठ। कोविड-19 के फैलने के उपरांत वह ‘कोरोना मुक्त स्वस्थ गाँव अभियान’ से भी सक्रिय रूप से जुड़े हैं। युवावस्था में उन्हें डॉ राममनोहर लोहिया और दादा धर्माधिकारी के निकट सान्निध्य का लाभ भी मिला। कुछ समय पहले उन्होंने महात्मा गांधी के आध्यात्मिक गुरु श्रीमद राजचन्द्र जी और गांधी जी के अंतरसंबंधों पर प्रकाश डालती एक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘महात्मा के महात्मा’ लिखी है।)

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