उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन के सियासी मायने
नवनीत चतुर्वेदी
12 जनवरी को आखिरकार उत्तरप्रदेश में बहुप्रतीक्षित समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी यानि सपा-बसपा गठबंधन का आधिकारिक ऐलान हो ही गया। उत्तरप्रदेश लोकसभा चुनावों की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण राज्य है । उत्तर प्रदेश में सपा बसपा गठबंधन के क्या माने हैं?
करीब 6 महीने पहले तक यह चर्चा जोरों पर थी कि उत्तर प्रदेश में सपा बसपा गठबंधन में कांग्रेस भी शामिल होगी लेकिन इन दोनों क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस को दूध में से मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंका है। आखिर यह परिवर्तन क्यों आया इसके पीछे कई वजह है जिसका विश्लेषण कुछ इस तरह किया जा सकता है ।
जिस दिन से बसपा मायावती के नेतृत्व में आई है, उस दिन से ही उसकी विश्वसनीयता कम से कमतर होती जा रही है। मायावती के बारे में ये कहा जाता है कि वो सिर्फ अपने निजी हित हेतु जहां फायदा देखेंगी ‘डाइवर्ट’ हो जाएंगी यही उनका अब तक का रिकॉर्ड रहा है।
दूसरी तरफ पिछले कुछ वर्षों से सपा भी अखिलेश यादव के नेतृत्व में सिर्फ एक पारिवारिक फर्म जैसी होती जा रही है जिसमें परिवारजन आपस में खींचतान कर रहे हैं। हालांकि इसके बावजूद भी सपा की विश्वसनीयता मायावती की तुलना में काफी बेहतर है।
इन दोनों ही दलों के शीर्ष नेतृत्व पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते रहे हैं हालांकि जैसा कि ऐसे मामलों में होता है, ये लोग भ्रष्टाचार के आरोपों को बदले की कार्यवाही बताते रहे हैं। बीच-बीच में केंद्र में काबिज दल इन्हें काबू में लेने के लिए सीबीआई का जाल भी फेंकते हैं लेकिन ये जैसे-तैसे अपनी सियासी दाँव-पेंच के दम पर अब तक सीबीआई के पंजे से बचती आई है। केंद्र में चाहे भाजपा हो या कांग्रेस, इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। दोनों ही दलों को सियासी मजबूरी के तहत इन दोनों दलों को सीबीआई का डर दिखाते हुए सीबीआई से बचाना भी पड़ता है ।
तीन राज्यों में कांग्रेस की जीत के पहले कांग्रेस की दशा काफी दीन हीन दुखियारी टाइप थी। तब तक इन दोनों क्षेत्रीय दलों के लिए कांग्रेस को साथ लेना फायदे का सौदा था क्योंकि कमजोर मरियल कांग्रेस को ये दोनों क्षेत्रीय दल अपने हिसाब से हांक सकते थे और भाजपा पर भी हावी हो सकते थे।
लेकिन तीन राज्यों में हाल ही में मिली विजय ने कांग्रेस को संजीवनी देते हुए पुनर्जीवित कर दिया और चूंकि कांग्रेस खाँटी सियासतदानों का पार्टी है, अतः अब उनको भी सपा-बसपा की पहले जैसी जरूरत नहीं महसूस हो रही।
अब जब सपा बसपा लोकसभा चुनाव कांग्रेस के साथ मिल कर नहीं लड़ रहे तो इसका मतलब यही हुआ कि लोकसभा के रिजल्ट के बाद इन दोनों दलों ने नए गठजोड़ों के रास्ते खुले रखे है। प्रेक्षकों का मानना है कि कोई बड़ी बात नहीं कि दोनों या खासतौर पर बसपा आज भाजपा का विरोध करते करते चुनाव के बाद वापस भाजपा की गोदी में बैठ जाएं। बसपा और भाजपा का एक गठबंधन तो पहले हो भी चुका है।
सपा से टूटी अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव की पार्टी की तरफ से यह आरोप लगाया है कि सपा-बसपा का यह गठबंधन भाजपा की शह पर हुआ है। दूसरी तरफ कुछ लोग ये भी कह रहे हैं कि कुछ सीटों पर ये गठबंधन कॉंग्रेस के साथ दोस्ताना बर्ताव भी कर सकता है और जहां कॉंग्रेस पहले जीत चुकी है, वहाँ ये कमजोर उम्मीदवार खड़े कर सकते हैं।
दिखावे के तौर पर कांग्रेस पार्टी ने भी इन दोनों दलों के गठबंधन पर कोई तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है। उन्हें भी लगता है चुनाव रिजल्ट के बाद ये दोनों दल साथ आ सकते हैं, अतः वो इनसे आज लड़ाई झगडा कर आपसी रिश्ते खराब नहीं करना चाहती । खेल दिलचस्प तब बनेगा जब कांग्रेस का गठबंधन शिवपाल यादव और अजित सिंह से हो जाए ।
यह राजनीतिक ऊंट अब किस तरफ बैठेगा अभी कहना मुश्किल है। अब कांग्रेस के पास सभी 80 सीट पर लड़ने के सिवा कोई विकल्प बचा नहीं है और उन्होंने ये घोषणा भी कर दी है। वैसे इस स्थिति में कांग्रेस संगठनात्मक रूप से यूपी में मजबूत ही होगी। भले रिजल्ट कुछ भी हो लेकिन यूपी में कांग्रेस का जमीनी कैडर एक बार फिर सक्रिय होगा इसमें कोई शक नहीं है ।
(लेखक नवनीत चतुर्वेदी एक खोजी पत्रकार व राजनीतिक समीक्षक है।)