आत्मा की धारणा : अपना समाज स्वयं चुनती है आत्मा!
“कोई कहता है मृत्यु के बाद जीवात्मा शरीर को कपड़ों की तरह बदल कर अन्य शरीर धारण कर लेती है, कोई कहता है, जीवात्मा परम आत्मा में विलीन हो जाती है, कोई कहता है -- शरीर के साथ आत्मा भी नष्ट हो जाती है. लेकिन मेरे पास आत्मा की धारणा अभी भी स्पष्ट नहीं है”। जर्मन दार्शनिक मार्टिन हाइडेगर (Martin Heidegger) के इस वक्तव्य से कुछ आगे छलांग लगाने का अवसर मिल जाएँ, इसी उम्मीद से यह लिख रही हूँ।
प्रसिद्ध पाश्चात्य दार्शनिक एवं गणितज्ञ रेने देकार्ते (Descartes) का बहुचर्चित वाक्य “I think, therefore, I exist” विशुद्ध आत्मा को प्रथम प्रामाणिक सत्य मानता है। देकार्ते कहते है, मैं दुनिया की हर चीज को संदेह की नज़र से देख सकता हूँ सिवाय अपने अस्तित्व के, क्योंकि जब मैं स्वयं को संदेह करता हूँ, तो मेरा अस्तित्व यानि संदेह-कर्ता का अस्तित्व बना रहता है. एक अन्य प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक एडमंड हसरल (Husserl) देकार्ते के इस कथन को पुष्ट करते हुए कहते है, आत्मा की सभी क्रियाओं, जैसे देखना, चिंता करना, कल्पना करना, स्मरण करना इत्यादि को फ़िलहाल ब्रैकेट में रख कर हमें विशुद्ध आत्मा की सत्ता को अपना आलोच्य विषय बनाना चाहिए.
मार्टिन हाइडेगर देकार्ते के द्वैतवाद और हसरल की इस विशुद्ध चेतनसत्ता को यह कह कर रद्द कर देते हैं कि मनुष्य को उसके क्रियाकलापों से पृथक नहीं किया जा सकता है. हाइडेगर का तात्पर्य है कि आत्मा शरीररूपी डिब्बे में बंद होने के बजाय शरीर के साथ मिल कर स्वयं को "अभिव्यक्त" करती है. मनुष्य का अस्तित्व न तो भौतिक है, और न ही केवल मानसिक बल्कि शरीर और आत्मा के बीच एक युग्म समझौता है.
यह सत्य है कि मनुष्य अपने परिवेश का चुनाव स्वयं नहीं करता है ‒ वह कहाँ जन्म लेगा, उसके सम्बन्धी कौन होंगे, उसका वंश क्या होगा इत्यादि. यह सब अचानक घटने वाली परिस्थितियां है, जिसमें उसे जन्म लेने के साथ साथ झोंक दिया जाता है. फिर वह अपने अस्तित्व के संघर्ष के लिए निरंतर संभावनाओं को टटोलता है, और अपने अस्तित्व का चुनाव भी स्वयं करता है. जिस तरह किसी नौसिखिया को तालाब में हाथ पैर मारने के लिए यदि छोड़ दिया जाता, तो वह बचने के लिए खुद ही धीरे धीरे तैरना सीखने की कोशिश करता है.
मनुष्य यदि चट्टान की तरह सिर्फ शरीर होता तो उसे सोचने की आवश्यकता नहीं थी कि उसे क्या करना है? उदाहरण के लिए हम आफिस जाते समय बस पकड़ने के लिए दौड़ते है, क्योंकि सम्भावना है कि हम बस को पकड़ लेंगे और अपने गंतव्य पर समय से पहुँच जायेंगे. लेकिन यदि सम्भावनायें ख़त्म जाती तो हम प्रयास करना भी छोड़ देते हैं, हम बसस्टॉप पर ही खड़े रह जाते. अक्सर सुना जाता है कि राजनीति में संभावनाओं के अनंत समीकरण होते है, पर सच पूछिये तो जीवन के किसी भी क्षेत्र में अनंत संभावनाएं मौजूद होती है, उन्हें परत दर परत खोलना पड़ता है. हाइडेगर इसे अनंत क्षितिज की संज्ञा देते है, जो हमारे सामने पसरा पड़ा है. साथ ही साथ हाइडेगर यह भी सलाह देते है कि हमें भीड़ की दुनिया से अलग होकर सोचना चाहिए ताकि हम अपने असली वजूद को पहचान सके।
यह एक तथ्य है कि जिस दुनिया में मनुष्य जन्म लेता है, उसे वह अन्य लोगों के साथ साझा करता है. पर ‘साझा करने’ का अर्थ सह-अस्तित्व बिलकुल नहीं है, यह वैसा ही है जैसे ट्रेन में बैठे यात्री स्थान साझा करते है। हमारा और दुनिया का भी कुछ इसी तरह का सापेक्ष सम्बन्ध है। जैसे ही सह-यात्री अपनी जगह से उठ जाता है, हम उसकी जगह पर पसर जाते हैं। या किसी बच्चे को देख कर थोड़ा खिसक कर उसे बैठा भी लेते हैं। जबरदस्ती यदि कोई जगह दखल करता है, तो झगडा भी कर लेते है, और यह सिलसिला बहुत दूर तक भी जा सकता है। इस तरह ज्यों ज्यों दुनिया हमें बदलने का मौका देती है, त्यों त्यों हम भी दुनिया में बदलाव लाते है। यह एकपक्षीय साधना नहीं है. जैसे वैद्युतिक उपकरणों के आने से हमारी जीवनचर्या में काफी परिवर्तन आया है, नदी की पवित्रता अब उसके पानी की बिजली बनाने की क्षमता में बदल गई है, शाम की संगीत या अन्यान्य महफिलें या सभाएं अब मोबाइल और टीवी ने ले ली है, अतिथियों का आना प्राय बंद हो गया है। वस्तुएं बाईनरी डिजिट में बदलती जा रही है, कर्मचारी कंपनी के डाटा में बदल कर अपना अस्तित्व समाप्त कर चुके हैं।
जो ऐसा दावा करते है कि विशुद्ध या निरपेक्ष आत्मा को जानना संभव है, हाइडेगर उसे एक भ्रमजनित उद्वेग की संज्ञा देते है, क्योंकि चेतना सर्वदा विषय-सापेक्ष होती है। उदाहरण के लिए गाणितिक संख्याएं अमूर्त होने पर भी अपना अस्तित्व प्रतिफलित करने के लिए दुनिया की किसी न किसी मूर्त वस्तु का सहारा लेती है, जैसे चार संतरे, दो कलमें और तीन लिफाफे इत्यादि। यहाँ दो, तीन और चार संख्या का कोई मूल्य नहीं है, यदि उन्हें संतरे, कलम और लिफाफे से जोड़ कर न देखा जाय. मानवीय अस्तित्व भी संबंधों का विचित्र मकड़जाल है।
मैं अपने अस्तित्व का निर्माण समाज के द्वारा निर्धारित पैमाने से करता हूँ ‒ ‘मैं गोरा हूँ, मैं भारत का का नागरिक हूँ, मैं अमुक का पिता हूँ, अमुक का पति हूँ, मैं विरासत में इतिहास, समाज और राजनैतिक बोझा लेकर जन्मता हूँ, और निरंतर इसका वहन करता चलता हूँ.’ इन्हीं के माध्यम से हम अपने अस्तित्व का विकास करते है। आत्मा या ‘मैं’ कोई विशुद्ध चेतना नहीं है, जो स्वयं को इन परिस्थितियों से अलग करके देख सके। कर्ण के कवच कुंडल की तरह इन्हें दान कर देने के पश्चात् कर्ण का कर्णत्व समाप्त हो जाता है, उसी तरह ‘मैं’ यदि अपनी परिस्थितियों को तिलांजलि दे दूँ, तो उसका अस्तित्व शून्य हो जायेगा। उसे अपनी सीमाओं और हदों से निरंतर जूझना है, जिससे वह स्वयं को विकसित कर सके।
साधारणतः हमारी सोच एक चौखटे में बंधी होती है अर्थात एक वैज्ञानिक, एक शिक्षक, एक व्यापारी, एक पुलिसवाला और एक डाक्टर, ये सभी अपने अपने पिंजरे में बंद होकर काम करते है या उन्हें करना पड़ता हैं, जो मानव अस्तित्व को घिसी पिटी लकीर पर चलने को बाध्य कर देता है। लेकिन जितना हम इस बंधन के सम्बन्ध में सजग होते है, उतना ही हम इससे मुक्त होते जाते है, चौखटे हम पर हावी नहीं हो सकते है। हम उन्हें एक ऐसे अनंत प्रतीक्षास्थल में बैठा (waiting to the doorway) सकते हैं, जहाँ से उन्हें अन्दर घुसने की इज़ाज़त ही न मिले।
प्रसंगवश, जेम्स जॉयस के विश्वप्रसिद्ध उपन्यास Ulysses का उल्लेख करना उचित होगा जो सिर्फ एक दिन की घटनाओं का चिंतन प्रवाह है अथवा आंतरिक एकालाप है। जॉयस विचारों की उथल-पुथल को दिखाने की कोशिश करते हैं कि जीवन में एक स्पष्ट और सीधे रास्ते की कोई संभावना नहीं है। हम लगातार दुर्घटना और संयोग की कृपा के शिकार होते रहते हैं और अपना रास्ता बदलते रहते है।
हाईडेगर इसलिए शरीर को अतिक्रमण करने की बात कहते है. मेरी स्मृतियाँ, मेरे विचार मेरी कल्पनाएँ-- मेरे अस्तित्व से कुछ इस तरह जुड़ी है कि ‘मेरे’ बिना उनका कोई मूल्य नहीं हैं. उदाहरण के लिए मेरे सामने यह सोफा है, इसमें आने वाले अतिथि बैठते है, उसमें जगह होने पर भी मैं वहां न बैठ कर ठीक सामने एक कुर्सी लेकर बैठ जाती हूँ, जिससे मैं उन अतिथियों का चेहरा देख सकूँ एवं बाते करते समय उनके भावों को पढ़ सकूँ। मुझसे कोई पूछे यह वस्तु (सोफे) क्या है तो मेरा जवाव होगा ‘यह चौड़ा, लाल रंग का, जिसके पीछे कुशन है, जो थोडा झुका हुआ है, इसका वजन ५० किलो होगा, इसके बैठने की सीट करीब ६० इंच लम्बी है, एक काठ के तख्ते पर रुई की गद्दियाँ बिछी हुई है, इत्यादि इत्यादि। लेकिन यदि मैं हाईडेगर होती तो मैं कहती यह एक अतिथियों के बैठने की जगह है, जहाँ से मैं उनके आमने सामने बैठ कर बात कर सकती हूँ, यदि कोई न हो तो मैं इस पर बैठ कर अपना काम करती हूँ। यदि यह सोफा किसी दूसरी जगह होता तो मुझे इससे कोई लेना देना नहीं था। हाईडेगर कहना चाहेंगे कि सोफे का अस्तित्व मेरी इस वास्तविकता से जुड़ा है कि मैं यहाँ सहूलियत से बैठ कर अपने को सहज महसूस कर सकूँ। हो सकता है कभी कभी सोफे पर चढ़ कर मैं दीवार पर कलेंडर टांगने की कोशिश करूँ, अथवा उसपर अपनी किताब रख कर दरवाज़ा खोलने चली जाऊँ अथवा रसोई में चाय बनाने चली जाऊँ आदि। सोफे के प्रयोग में छिपी ऐसी अनंत संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता है।
इसी तरह हाईडेगर हथौड़े का दृष्टान्त देकर कहते है कि इसकी अनंत सम्भावनायें समयानुसार उजागर होती हैं। दीवार में कील ठोंकने के लिए इसकी आवश्यकता पड़ती है, यदि हम थके हुए है, तो हथौड़ा उठाना हमें भारी लग सकता है। यदि ‘हथौड़े की ठोंक’ से पाईप टूट जाता है या दीवार टूट जाती है, तो यह पाइप और दीवार की कमजोरी को दिखाता है। यदि यह किसी छोटी कील को ठोंकने में असमर्थ होता है, तो इसके कार्य करने की अक्षमता दीख जाती है, कभी-कभी हाथ के पास कुछ न होने पर तेज़ हवा से बचने के लिए कागजों पर हथौड़ा ही रख देते हैं, जो पेपरवेट का काम करने लगता है, गुस्से में हथौड़े से मरते हुए भी देखा गया है। कहने का तात्पर्य है कि ये सभी संभावनाएं हथौड़े में है, जो हमें पहले नहीं दिखाई दे रही थी, परिस्थितियां उन्हें क्रमशः खोल कर रख देती है।
यह विश्व जगत भी सिर्फ देखने का विषय नहीं है, किन्तु यह कुछ करने के लिए हमें प्रेरित करता है। हमें मालूम होना चाहिए कि इसे किस चाबी से कैसे खोला जाय। हाईडेगर अपनी सत्ता को ज्ञाता से कहीं ज्यादा कर्ता के रूप में देखना पसन्द करते हैं। देकार्ते का कथन “I think, therefore I am” हमें भ्रम में डाल कर भयंकर रूप से आत्मा और शरीर को अलग कर देता है।
"The Soul selects her own Society" ( Emily Dickinson)


(डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में उनकी विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, "दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।" डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक मेला में रिलीज़ हुआ है।)
(डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के स्वयं के हैं। रागदिल्ली.कॉम के संपादकीय मंडल का इन विचारों से कोई लेना-देना नहीं है।)