अर्थव्यवस्था के लिए बुरी खबर और जीडीपी पर नए सवाल

| मीडिया-मंच | May 09, 2019 | 84

अखबारों से – 8

मांग में कमी अर्थव्यवस्था के लिए बुरी खबर

आर्थिक खबरों का प्रतिष्ठित दैनिक HT मिंट अपने गंभीर और गहरे लेखों के लिए जाना जाता है। उसने आज प्रथम पृष्ठ पर जन-शिक्षण शैली (Mint Primer) में धीरेन्द्र त्रिपाठी का एक लेख (इसका लिंक अभी उपलब्ध नहीं है) निकाला है जिसके मुख्य बिन्दुओं से हम आपको यहाँ परिचित करा रहे हैं।

इस लेख में बताया गया है कि आटोमोबाइल उद्योग के साथ-साथ अन्य जल्दी खपत वाले उपभोक्ता सामान (फ्रिज, टीवी, वॉशिंग मशीन, आदि) बेचने वाली कंपनियों और अन्य निर्माण एवं सेवाओं की कंपनियों से जो संकेत आ रहे हैं वो सभी इस तरफ इशारा कर रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी की तरफ बढ़ रही है। यह बहुत खतरनाक संकेत हैं क्योंकि चुनाव के बाद जो भी सरकार आएगी उसे इस स्थिति से निपटना होगा जो कि बहुत आसान नहीं होगा। लेख में 5 बिन्दुओं में इस मसले को समझाया गया है, वही हम आपके लिए दे रहे हैं।

पहला सवाल है कि मंदी के क्या संकेत हैं?

लेख में बताया गया है कि देश की सबसे बड़ी कार निर्माण करने वाली कंपनी मारुति-सुज़ुकी ने बताया है कि अप्रैल में उसकी कारें पिछली अप्रैल की अपेक्षा लगभग 19% कम बिकी हैं और यह शुभ संकेत नहीं है। इसी तरह लगभग यही गिरावट ट्रैक्टर बेचने वाली कंपनी एस्कॉर्ट्स में भी देखी गई है जो बताती है कि कृषि क्षेत्र में भी कुछ अच्छा नहीं चल रहा। यूनीलीवर और डाबर इंडिया ने भी अपने उत्पादों में वृद्धि की दर पहले से कम दिखाई है। उड़ान क्षेत्र में भी चिंता के बादल हैं क्योंकि यात्रियों की संख्या में गिरावट आ रही है।

दूसरा सवाल है कि मंदी के संभावित कारण क्या हैं?

पहला कारण है नौकरियों में कमी जिसके साथ साथ नौकरी में असुरक्षा की भावना और वेतन वृद्धि ना होना। समझ में आता है कि जब नौकरियों का बुरा हाल हो तो लोग ऐसी वस्तुओं की खरीददारी नहीं करेंगे जिन्हें टाला जा सकता है। फिर इस बिन्दु में दूसरा कारण जो बताया गया है उसकी जड़ में नोटबंदी है।

तीसरा सवाल लेख में उठाया गया है कि क्या मंदी के कुछ ढांचागत कारण (structural reasons) भी हैं?

लेख में जवाब दिया गया है कि नहीं, कारण structural से ज़्यादा हैं। लोगों के बीच असुरक्षा की भावना है क्योंकि नौकरियों में स्थायित्व नहीं है। लोगों को पता ही नहीं कि वो कल कहाँ रहेंगे। आय ना बढ्ना भी एक बड़ी चिंता का कारण है।

चौथा बिन्दु इस लेख में है कि इन परिस्थितियों में उपभोक्ता कैसा व्यवहार करता है?

इसका उत्तर दिया गया है कि उपभोग के तरीके बदल जाते हैं। ज़रूरी चीजों के अलावा लोग बड़े सामानों पर खर्चे टालने लगते हैं। बड़े पैकेट के स्थान पर छोटे सैशे खरीदे जाने लगते हैं। जो लोग पहले थोड़ा बड़ा घर ढूंढ रहे होते थे, मंदी के दौर में छोटे घर चुनने लगते हैं। हवाई-यात्रा के बजाय रेल से यात्रा करने लगते हैं। इस तरह की बचत का प्रभाव ये पड़ता है कि आर्थिक गतिविधियां कम हो जाती हैं और इससे कंपनियों को नुकसान होने लगता है। फैक्ट्रियों में कम लोगों की ज़रूरत होने लगती हैं और नौकरियों से निकाला जाने का क्रम शुरू हो जाता है। इस तरह ये एक तरह दुष्चक्र जैसा बन जाता है।  

पांचवा बिन्दु है कि क्या अर्थव्यवस्था पर कोई और मुसीबत भी आ सकती है?

इसके बारे में बताया गया है कि दो बातें बहुत महत्वपूर्ण होंगी – पहली मॉनसून और दूसरी नई सरकार की नीतियाँ। मौसम विभाग ने तो सामान्य मॉनसून का अनुमान लगाया है कि मौसम का अनुमान लगाने वाली निजी क्षेत्र की एक प्रतिष्ठित कंपनी स्काइमेट ने अनुमान लगाया है कि मॉनसून सामान्य से कम रहेगा। य ये अनुमान सही हुआ तो संकट बढ़ सकता है। खेती से होने वाली आय पर और भी बुरा प्रभाव पड़ेगा।

इसका प्रभाव फिर उत्पादों की मांग पर पड़ेगा और परिणामतः कंपनियों की आय और कम होगी। महंगाई की दर भी बढ़ेगी और सरकार उसे रोकने के लिए उपाय करेगी जिससे निजी क्षेत्र के निवेश में कमी आएगी। इसलिए बहुत कुछ इसपर भी निर्भर करेगा कि सरकार नॉन-बैंकिंग फ़ाइनेंस कंपनियों के संकट को कैसे हल करती है (ताकि प्राइवेट इनवेस्टमेंट का बहुत बुरा हाल ना हो।)

हमारा मत:

इस लेख में हमने पाया कि हम मांग घटने और मांग घटने के कारण आर्थिक गतिविधि में आने वाली कमी से होने वाले ‘जॉब-लोसिस’ के दुष्चक्र में फँसते जा रहे हैं। सच कहें तो चुनाव के बाद कोई भी सरकार आए, फिलहाल अर्थव्यवस्था को सम्हालने के लिए उसे कोई कड़े फैसले लेने पड़ सकते हैं। नोटबंदी जैसे फैसले नहीं जिसके कारण लगी चोट को हमारी अर्थव्यवस्था अभी तक सहला रही है बल्कि ऐसे फैसले जो मध्यम-वर्ग को अखरेंगे लेकिन जिनके किए बिना अर्थव्यवस्था पटरी पर नहीं आएगी।

मोदी जी के इन पाँच वर्षों में हमारे विचार में सबसे ज़्यादा नकारात्मक बात तो ये रही है कि उन तत्वों को बढ़ावा दिया गया जो समाज में सांप्रदायिक आधार पर टूटन और विखंडन पैदा करने की कोशिश करते रहे हैं लेकिन हम अगर दूसरी सबसे बड़ी नकारात्मक बात ढूँढे तो यही है कि मोदी सरकार देश की अर्थव्यवस्था को बहुत खस्ता हालात में छोड़ कर जा रही है।

जीडीपी पर नए सवाल

देश का सरकारी डाटा जो एक समय अपनी विश्वसनीयता के चलते काफी प्रतिष्ठित था, आज देश-विदेश में शक की दृष्टि से देखा जा रहा है। इसके लिए आप सरकार के अलावा किसी को दोष नहीं दे सकते क्योंकि मोदी सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में कई बार ऐसा मौका दे दिया है जिनसे ये आरोप पुख्ता ही होता है कि सरकार डाटा जारी करने के मामले में पारदर्शी नहीं रही। बिज़नेस स्टैंडर्ड के संपादकीय के अनुसार इसकी शुरुआत 2015 में उस समय हुई जब “न्यू सीरीज़” डाटा जारी किया गया और जिसकी बिनाह पर आर्थिक वृद्धि की दर में खूब वृद्धि दिखा दी गई थी।

कल के मिंट अखबार में एक बड़ी सी खबर छपी कि ये ‘कैलक्युलेशन’ कॉर्पोरेट मिनिस्टरी द्वारा दी गई उन कंपनियों को जोड़ कर की गई थी जिन्होंने पिछले तीन वर्ष में कभी भी रिटर्न फ़ाइल की थी। अब उसमें मसला ये निकला कि लगभग एक तिहाई से भी ज़्यादा कंपनियाँ (36%) ऐसी थीं जिन्हें ट्रेस ही नहीं किया जा सका यानि वो ‘फेक’ थीं।

कुछ ही महीने पहले सरकार पर तब सवाल उठे थे जब उसने रोजगार से संबन्धित डाटा जारी करने से मना कर दिया था। हालांकि बाद में वो अखबारों में लीक हो गया लेकिन जब तक सरकार खुद डाटा जारी ना करे तो पूंजी निवेश करने वालों को तो कुछ समझ नहीं आता। संयोग से यह खबर भी सबसे पहले बिज़नेस स्टैंडर्ड (BS) में ही छपी थी जिसे बाद में अन्य वैबसाइटों ने भी उठाया। हम यहाँ एक वेब्पोर्टल का ही लिंक दे रहे हैं क्योंकि BS में बिना सब्स्क्रिप्शन के अभी तक भी पूरी खबर नहीं पढ़ने दे रहे।

बिज़नेस स्टैंडर्ड के संपादकीय में आगे कहा गया है कि ये बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकारी डाटा के संबंध में विश्वसनीयता के सवाल उठ रहे हैं जो पहले कभी नहीं हुआ था। देश में इन्वेस्ट करने वालों के लिए ये सचमुच मुश्किल समय है। एक तो सरकारी डाटा विश्वसनीय नहीं है और ऊपर से ये नहीं पता कि कल को अर्थव्यवस्था पता नहीं क्या रास्ता अख़्तियार करेगी।

मिंट में कल प्रकाशित जिस लेख का हमने ज़िक्र किया, उसमें कहा गया है कि देश के सांख्यिकी विशेषज्ञ बहुत निराश हैं कि केंद्र सरकार के सेंट्रल स्टाटेस्टिक्स ऑफिस (CSO) की इस बुरी तरह खराब हो गई है जबकि कुछ वर्षों पहले तक ही इसकी विश्वसनीयता दुनिया बार में थी।

हमारा मत: इस पर हम क्या कहें? मोदी सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल में छिपाने पर या डाटा के गलत इस्तेमाल पर बहुत बल दिया है। मोदी जी कार्यकुशल ज़रूर होंगे और हो सकता है कि वो दिन में 18 घंटे काम भी करते हों लेकिन उनके कार्यकाल में अर्थव्यवस्था का जो हाल हुआ है, उससे हमें एक आर्थिक विषयों के वरिष्ठ पत्रकार की वो बात याद आती है कि कोई भी ढंग का अर्थशास्त्री इस सरकार के साथ काम नहीं कर सकता। सबसे पहले तो इस सरकार को इन्हीं के द्वारा लाये गए अरविंद पनगाड़िया ने छोड़ा और फिर एक एक करके लाइन ही लग गई। आर्थिक विषयों की एक प्रतिष्ठित वैबसाइट qz.com पर इस लेख में आप छोड़ गए अर्थशास्त्रियों के बारे में पढ़ सकते हैं।

विद्या भूषण अरोरा



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