बिखरते रिश्तों पर नन्दिता मिश्र की मार्मिक कहानी - मां

नन्दिता मिश्र | साहित्य | Oct 08, 2024 | 167

पिछले कई दशकों से संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि जब हमने विकास का पश्चिमी मॉडल ही चुना है तो सामाजिक ताना-बाना भी कुछ ना कुछ तो प्रभावित होगा ही। अगर बछे महत्वाकांक्षी हैं तो उन्हें माँ-बाप के शहर या कभी कभी तो एक ही शहर में मुहल्ले भी छोडने पड़ते हैं।  एक माँ और बेटे की ऐसी ही विवशताओं की एक कहानी  'माँ' जिसका कालखंड आप 1980 का दशक मान सकते हैं जब इस प्रकार के 'विकास' का यह दौर अपने शैशव काल में ही था, नन्दिता मिश्र जी ने हमारे लिए लिखी है।  

बिखरते रिश्तों पर नन्दिता मिश्र की मार्मिक कहानी - माँ

अचानक मेरी नज़र मां पर पड़ी। वे टकटकी लगाकर मुझे देख रही थीं। दिल्ली पहुंचने पर ये नज़रें मेरा पीछा करती रहेंगी। वहां बेचैन करने के लिये ये काफी है। वे कुछ कहतीं नहीं पर सब समझती हैं। मैं रवि हूं उनकी सबसे छोटी संतान। पिता के निधन के बाद मां ने बहुत कष्ट उठा कर हमें पाला पोसा। मेरे बड़े  भाई सेना में मेजर हैं। साल में एक बार छह-सात दिन के लिये घर आते हैं। उनकी बची हुई छुट्टियां सुसराल और देश-दर्शन के लिये रिजर्व रहती हैं। दो बड़ी बहनें हैं। उनकी शादी हो गयी है। अपने अपने परिवारों में व्यस्त हैं। मंझले भाई यहीं जबलपुर में अलग रहते हैं। उनकी केमिस्ट शाप है। अलग रहना पड़ा क्योंकि मां और भाभी का ठीक तालमेल नहीं बैठा।

मुझे पढ़ाई पूरी करने के बाद एक अखबार में काम मिल गया। ये मेरे मन का काम था। पत्रकार बनना या आकाशवाणी में समाचार वाचक बनना मेरी अभिलाषा थी। अखबार में काम करने वालों में ज़्यादातर लोगों का दिन दोपहर 2-3 बजे शुरू हो कर अगली सुबह 3-4 बजे खत्म होता है‌। मैं भी उन्हीं लोगों में से था और इसका सबसे ज़्यादा बुरा मां को लगता था। एक तो उन्हें लगता था कि बेटे को आराम नहीं मिलता और फिर उनकी दिनचर्या पर भी थोड़ा असर तो पड़ता ही था। अक्सर कहतीं थीं कि कोई सरकारी नौकरी देख ले तो जीवन में कुछ नियमितता आये। शायद उनकी दुआएं काम आईं और मुझे सरकारी नौकरी मिल गयी। पोस्टिंग भी जहां रहते थे यानि वहीं जबलपुर में मिल गयी । मां बहुत प्रसन्न। सत्यनारायण की कथा करवा ली। मोहल्ले भर में मिठाई बांटी गयी। घर में दो प्राणी। आफिस भी बहुत दूर नहीं था। कभी-कभी दोपहर खाना खाने भी घर आ जाता था।

शाम को घर आ कर कुछ घरेलू काम निपटा कर कोतवाली चौक पहुंच जाता और शाम दोस्तों के साथ बिताता। रात का खाना कभी बाहर खाया हो ऐसा याद नहीं। मां बेटे ब्यारी के साथ दिन भर की बातें करके मज़ा लेते। मां की पूरी दिनचर्या मुझसे जुड़ी हुई थी। मैं भी उनका ध्यान रख कर अपने कार्यक्रम बनाता था। हमें एक दूसरे की आदत सी हो गयी थी। पर मां के एक काम से मेरा कोई सरोकार नहीं  रहता था..उनका पूजा पाठ उनके ठाकुर जी। मेरे सो कर उठने से पहले ठाकुर जी की पूजा हो जाती थी। फिर वे रोज़ सस्वर रामायण  का पाठ करतीं थीं। उनके वे स्वर मेरी अलार्म थे। मैं उठता और कुछ देर बाद वे स्वर थम जाते थे। मां चौके में मेरे लिए चाय बनाने चली जातीं। फिर मेरा नाश्ता दोपहर का भोजन ये सब काम निपटाने में लग जाती थीं। मैंने कई बार कहा कि कोई जल्दी नहीं रहती है पूजा पाठ करके चाय बना दिया करो। पर वो कहां सुनने वाली थीं। मैं तब तक अखबार ले कर बैठ जाता। मुझे बुरा लगता पर मां बिल्कुल सहज भाव से ये काम रोज़ करतीं जैसे उन्होंने अपने ठाकुर जी को ये बात बता दी है कि जैसे ही छुटका उठेगा वे राम जी के पास से उसके पास जा कर उसके काम निपटायेंगी। उन्हें भरोसा था कि राम जी उनकी ये गुस्ताफी माफ करेंगे। मैं कभी कभी खीझ भी जाता कि मेरे उठते ही पाठ क्यों बंद कर देती हो। पर वो कहतीं रामजी सब समझते हैं जैसे वो प्रिय और जरूरी वैसे ही छुटका भी।

समय बढ़िया कट रहा था। लेकिन मां को चैन कहां। कुछ दिन से रोज़ शादी कर ले बेटा की रट लगा ली। सिर्फ रट नहीं लगा ली बल्कि बाकायदा उस दिशा में काम भी शुरू कर दिया। मैं भी देखने-दिखाने के सिलसिले में अनमने ढंग से ही सही, लेकिन हिस्सा लेने लगा। दरअसल माँ अपने सामने ही मेरी शादी करवा कर निश्चिंत हो जाना चाहती थीं। ठीक भी था। पर आसान नहीं। खैर वह भी हो गया । मां ने अपने लिये बहू ढ़ूंढ़ ली। मेरी पत्नी रिचा शिक्षिका थी। बेटी के जन्म के बाद मैंने चाहा वो नौकरी छोड़ दे । पर मां ने कहा क्यों। मैं तो हूं। रिचा भी इसमें खुश दिखी।

समय बीतता गया। हमारा एक बेटा भी हो गया यानि बच्चों की दादी को पोती के बाद अब पोता भी मिल गया था। कुछ समय और बीता कि मेरे प्रमोशन की संभावनाएं बनने लगीं जो अच्छी बात थी किन्तु चिन्ता इस बात की थी कि कहीं जबलपुर से बाहर न जाना पड़े। और यही हुआ। प्रमोशन और भोपाल का तबादला। भोपाल कोई बहुत दूर भी नहीं था। शुरू में मैं अकेला गया। दफ्तर वालों ने आश्वस्त किया था कि जल्दी ही वापस बुला लेंगे। अब इस बात को तीन बरस हो गये थे ।          

परिवार को कब तक खुद से दूर रखता। एक ये बात भी मेरे और रिचा के मन में थी कि बच्चों के भविष्य के लिये भोपाल हर तरह से बेहतर‌ शहर है। इस बार मैं 15 दिन की छुट्टी ले कर सबको जबलपुर से अपने साथ ले जाने आया था। माँ से मैं जब भोपाल से फोन पर ये बात शुरू करता कि अब आप सबको जबलपुर छोड़ना है तो वह फोन रिचा को पकड़ा देतीं। मैं उसे कहता कि माँ को धीरे-धीरे तैयार कर लो। मैं यह तय करके छुट्टी पर आ रहा था कि इस बार माँ को तैयार कर ही लेंगे। लेकिन आते ही रिचा ने बताया मां साथ जाने को तैयार नहीं हैं। बड़ी दुविधा में पड़ गया। ऐसे कब-तक अकेला रहूं। हर शनिवार रविवार को आना जाना भी अब अखरने लगा था। होटल का खाना खा  खा कर ऊब गया था। इधर पत्नी की ये शिकायत सही थी कि ऐसे कब-तक रहेंगे। भोपाल आ कर समझ में आया कि हैड-आफिस में काम करने के बहुत से फायदे हैं। उच्च अधिकारियों के बीच अपनी साख बनाई जा सकती है। बार-बार तबादले का डर नहीं रहता ।

इस बीच मैंने एक तीन बेडरूम का अपार्टमेंट भी बुक कर लिया था। अब मां जाने को तैयार नहीं। क्या करूं। फिर सोचा अभी काफी दिन हैं मां को मना लूंगा ऐसा भरोसा था। वो हम लोगों के बिना नहीं रह सकेंगी। धीरे-धीरे छुट्टियां बीतती जा रहीं थीं। सामान की पैकिंग शुरु हो गयी। दोनों बच्चे एक नये शहर में जाने के खयाल से खूब खुश थे। जाने के लिये रिजर्वेशन कराने जाने से पहले फिर मां के पास बैठा।  उन्हें मनाया समझाया कि अब मेरा यहां वापस आना सम्भव नहीं हो पायेगा। मैं जिस पद पर हूं वह यहां नहीं है। उन्हें अब हमारे साथ चलना होगा। उन्होंने साफ साफ कह दिया मैं अपना घर छोड़ कर कहीं नहीं जा रही।

शाम को मंझले भैया मिलने  आये । उन्होंने मां से कहा अम्मा हमारे साथ चलो।  भैया ने मुझे आश्वस्त किया कि वो मां का पूरा ख्याल रखेंगे। मां चुपचाप बैठीं हमारी बातें सुन रही थीं। कुछ बोली नहीं। भैया के जाने के बाद बोलीं – “मैं बच्ची नहीं हूं। सब समझती हूं ।मेरे न  जाने से सब चिन्ता करेंगे। पर मैं अपने घर में जैसा बनेगा वैसा रह लूंगी। ब्याह कर यहां आई थी यहीं से जाऊंगी”। मेरे पास भला इन बातों का क्या जवाब होता!

जैसे जैसे हमारे आने का दिन पास आता गया उनकी चुप्पी बढ़ती गयी। चुप्पी के साथ-साथ मुझे टकटकी लगा कर देखने का सिलसिला भी बढ़ता गया । एक दिन मैंने उनसे पूछा - तुम्हें क्या हो गया है। इतनी चुप क्यों हो। तुम बच्चों से बात नहीं करतीं। मां मेरा जाना इतना कठिन मत बनाओ कि मैं खुद को अपराधी समझने लगूं। तुम्हीं बताओ मैं कब तक बाल बच्चों के बिना रहूं। वे कुछ बोलीं नहीं। उस रात रिचा ने भी कहा रवि मां बहुत उदास हैं। दुखी हैं ।उनकी हालत देखो कैसी हो गयी है। क्या करें ।साथ जाने तैयार नहीं। ऐसे जाना बहुत बुरा लग रहा है।

जाने के दो दिन पहले सारा सामान ट्रक से भोपाल भिजवा दिया। घर वैसे ही सूना हो गया था । अब खाली भी हो गया। मां ने बच्चों के लिये सूखा नाश्ता भी बना कर रख दिया था। मैंने जैसे आखिरी कोशिश की, तुम भी चलो माँ। तुम साथ रहोगी तो तुम्हें हमारी फिक्र नहीं होगी और हमें तुम्हारी।  वो धीरे से मुस्कुराईं। मैं भी सब समझ रहा था और वो भी। दोनों को सूझ नहीं रहा था क्या बोलें।

फिर उन्होंने कहा छुटका कल रात की गाड़ी है न तुम्हारी। रिचा कल सुबह सब एक बार अच्छे से देख लेना और कुछ रखना हो तो ले लेना। मुझे अब यहां ज्यादा सामान की जरूरत नहीं पड़ेगी। एक बिछौना और दो वक्त की रोटी। वो तो अपने ठाकुर जी जुटा ही देंगे। तुम लोग चिन्ता नहीं करना। अब मैं और मेरे रामजी। रात का खाना खा कर जाओगे। सुबह के लिये भी कुछ रख लेना ताकि जाते ही खाना बनाने की झंझट न हो। बस समय से अपनी खोज-खबर देते रहना। जब सब व्यवस्थित हो जाये तब आ कर मुझे ले जाना – आठ-दस दिन तुम लोगों के साथ रह कर वापस घर आ जाऊंगी।

अगले दिन सुबह रोज़ की तरह मां के सस्वर रामायण पाठ से नींद खुली। जैसी आदत थी उठ कर गया उनके पांव छुए और सुबह के कामों में लग गया। अखबार ले कर रसोई की तरफ गया तो देखा वहां मां नहीं थीं। रिचा चाय बना रही थी‌। कुछ बोला नहीं। फिर अपनी चाय और अखबार ले कर जहां मां पूजा कर रही थीं वहां गया। कुछ देर बैठा रहा। पर मां ने एक बार भी मेरी तरफ नहीं देखा। वे रामायण पाठ में तल्लीन थी। उन्हें पता भी नहीं चला कि उनका छुटका वहां बैठा है। मेरी उपस्थिति का अहसास भी नहीं हुआ। मैं धक से रह गया ।

पूरा दिन ऐसे ही निकल गया। शाम की आरती हम सबने साथ की। भोजन के बाद सब साथ बैठे। पर बस बैठे रहे। सन्नाटा पसरा रहा ।

अब फिर मां मुझे टकटकी लगा कर देखने लगीं और मैं नज़रें चुराता रहा।

वातावरण भारी भारी था – एकदम उदास। बच्चे भी सहमे सहमे घर-भर में घूमते रहे। उधर ट्रेन का समय हो रहा था।  थोड़ी देर में टैक्सी आ गयी। हम सबने मां के पैर छुए। उन्होंने  सिर पर हाथ रख कर मौन आशीर्वाद दिया। बच्चों को लाड़ किया। कुछ भेंट उनके हाथ में रखी। मैंने मना करना चाहा। रिचा ने तेज़ी आगे बढ़ कर मुझे रोक दिया। टैक्सी रवाना हुई तो हाथ हिला कर जय जय कहा और कहा मेरी फ़िक्र मत करना।

बस खबर देते रहना।

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(वर्षों आकाशवाणी के समाचार सेवा प्रभाग और केंद्र सरकार के अन्य संचार माध्यमों में कार्य-रत रहने के बाद नन्दिता मिश्र अब स्वतंत्र लेखन करती हैं।)



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