विज्ञान को खतरा विज्ञानवाद से है
डॉ गोपाल कृष्ण
धरती पर एक बार घटने वाली घटनाएं विज्ञान के दायरे से बाहर हैं।
- पॉल वीज़, एलिमेंट्स ऑफ बायोलॉजी
ब्रह्माण्ड के बारे में सबसे दुरूह चीज़ यह है कि वह दुरूह है।
- अलबर्ट आइंस्टीन, फिजि़क्स एंड रियलिटी
नदियों से बह कर समुद्र में जाने वाला पानी बरबाद हो जाता है। क्या यह बात सही है? क्या यह तर्क वैज्ञानिक है कि समुद्र में जाने वाला पानी बरबाद हो जाता है? एक तमिल कहावत है, ''समुद्र का जन्म पहाड़ों में होता है''। इस कहावत में सदियों पुराना वैज्ञानिक ज्ञान मौजूद है। क्या स्कूलों में पढ़ाया जाने वाला जल-चक्र का विज्ञान और उपर्युक्त कहावत परस्पर बेमेल हैं? क्या ये बातें अवैज्ञानिक हैं? क्या कोई मानव-केंद्रित दृष्टिकोण वैज्ञानिक होता है?
दि न्यू अटलांटिक नामक एक जर्नल में प्रकाशित निबंध ''दि फॉली ऑफ साइंटिज़्म'' में लेखक ऑस्टिन एल. ह्यूग्स (युनिवर्सिटी ऑफ साउथ करोलिना में बायोलॉजिकल साइंसेज़ के प्रोफेसर) ने लिखा था, ''खांटी वैज्ञानिक उसे माना जाता है जो इस प्रकृति और विश्व के किसी छोटे से कोने के बारे में जानता हो और बहुत अच्छे से जानता हो, सभी जीवित मनुष्यों व अब तक जी चुके सभी मनुष्यों की तुलना में भी बेहतर। लेकिन अपनी विशिष्टता के घेरे के बाहर ऐसा वैज्ञानिक कोई भी ठोस राय देने में आनाकानी करता है।'' इसका मतलब यह हुआ कि तार्किक होना अनिवार्यत: विज्ञान का मामला नहीं है। जो लोग तर्क को विज्ञान का पर्याय मानते हैं, वे विज्ञानवादी हैं और ह्यूग्स ने इसी संदर्भ में निष्कर्ष दिया था कि हर किस्म के अंधविश्वास की तरह विज्ञानवाद भी विज्ञान की विश्वसनीयता को चोट पहुंचाता है।
एक न्यूक्लियर वैज्ञानिक का उदाहरण लें जो लगातार यह दावा करता रहा कि नदियों से बह कर समुद्र में जाने वाला पानी बरबाद होता है और इस दावे पर मीडिया कोई सवाल नहीं उठा रहा। क्या ऐसे दावे को वैज्ञानिक माना जा सकता है? अगर यही दावा कोई जलविज्ञानी या किसी अन्य शाखा का इंजीनियर करे तब क्या इसे वैज्ञानिक मान लिया जाएगा? आखिर किन परिस्थितियों में ऐसे दावे को वैज्ञानिक माना जाएगा? क्या ऐसी परिस्थिति कभी आएगी?
मसलन, न्यूक्लियर वैज्ञानिकों द्वारा परमणु ऊर्जा के लाभों पर किए जाने वाले दावे क्या वैज्ञानिक हैं? क्या जापान के फुकुशिमा में हुआ परमाणु हादसा वैज्ञानिक था? उसके बारे में ऐसा अवैज्ञानिक क्या था?
ठीक ऐसे ही सुजनन (यूजेनिक्स, मानव प्रजाति को गुणवत्तापूर्ण बनाने का विचार) को भी प्रजनन-नियंत्रण के माध्यम से इंसानी नस्ल को बेहतर बनाने वाले एक विज्ञान के तौर पर प्रचारित किया गया था। वैज्ञानिक अनुशीलन के तौर पर अकादमिक जगत में अब इसे पूरी तरह अस्वीकार दिया गया है। इसका जि़क्र जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में 1938 में गठित कांग्रेस पार्टी की नेशनल प्लानिंग कमेटी की राष्ट्रीय रिपोर्ट में भी किया गया था। नेहरू वैज्ञानिक मनोवृत्ति के घोर समर्थक थे जिन्होंने बांधों को आधुनिक भारत के मंदिर का नाम दिया था और उपयुक्त इंसानी नस्ल के जन्म के लिए वैज्ञानिक प्रजनन का भी समर्थन किया था। बाद के वर्षों में हालांकि उन्होंने बड़े बांधों के निर्माण पर खेद जताया और इसे एक महाकाय बीमारी का नाम दिया।
इस संदर्भ में बायोमीट्रिक्स का उदाहरण उपयुक्त होगा। लोगों की पहचान करने के उद्देश्य से उनके जैविक डेटा के गणितीय विश्लेषण और गणना के विज्ञान व प्रौद्योगिकी को बायोमीट्रिक्स कहते हैं जो मानकर चलता है कि जैविक डेटा व्यक्ति-विशिष्ट यानि ‘यूनिक’ होता है (जैसे उंगलियों के निशान, आयरिस का स्कैन, आवाज़ का मुद्रण, इत्यादि हर व्यक्ति के अलग ही होते हैं।)
तमाम अध्ययन बताते हैं कि एक विज्ञान के तौर पर बायोमीट्रिक्स भी समस्याग्रस्त है लेकिन मास-मीडिया और राजनेता इस पर कोई सवाल खड़ा किए बगैर इसे अपना रहे हैं। बायोमीट्रिक प्रौद्योगिकी पर आस्था इस भ्रामक प्रस्थापना पर टिकी है कि शरीर के कुछ ऐसे अंग होते हैं जो समय गुज़रने के साथ न तो बूढ़े होते हैं, न ही उनका क्षरण होता है अथवा कोई बदलाव आता है। मनुष्य के विशिष्ट या ‘यूनिक’ जैविक कारक जीवन की हर परिस्थिति में उतने ही विश्वसनीय होते हैं अथवा नहीं, इस पर मूलभूत वैज्ञानिक शोध न सिर्फ भारत में बल्कि और कहीं भी न होने के कारण मोटे तौर पर संदिग्ध है।
अमेरिका की नेशनल रिसर्च काउंसिल द्वारा 24 सितम्बर, 2010 को प्रकाशित एक रिपोर्ट ''बायोमीट्रिक रिकग्नीशन: चैलेंजेज़ एंड अपॉर्चुनिटीज़'' ने निष्कर्ष दिया है कि बायोमीट्रिक्स की वर्तमान स्थिति में ''दोष अंतर्निहित'' है या Current state of biometrics is ‘inherently fallible’, ऐसा कहा। पांच साल तक किए गए एक अन्य अध्ययन का भी यही निष्कर्ष था, जिसे सीआइए, यूएस डिपार्टमेंट ऑफ होमलैंड सिक्योरिटी और डिफेंस एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी ने संयुक्त रूप से किया था।
सेना के लिए अनुबंधित और सीआइए, बायोमीट्रिक्स टास्क फोर्स तथा टेक्निकल सपोर्ट वर्किंग ग्रुप के सहयोग से एक और अध्ययन ''एक्सपेरिमेन्टल एविडेंस ऑफ अ टेम्पलेट एजींग इफेक्ट इन आयरिस बायोमीट्रिक्स'' नाम से किया गया था जिसने व्यापक रूप से स्वीकृत इस तथ्य को झुठला दिया है कि आँख की पुतली की निशानदेही या आयरिस बायोमीट्रिक प्रणाली ''टेम्पलेट एजींग इफेक्ट'' से स्वतंत्र होती है। टेम्पलेट एजींग इफेक्ट मोटे तौर पर बढ़ती उम्र के साथ मनुष्य के जैविक कारकों पर पड़ने वाले प्रभावों का नाम है। अध्ययन अपने निष्कर्ष में कहता है, ''हमने पाया है कि टेम्पलेट एजींग इफेक्ट एक वास्तविकता है।''
दि इकनॉमिस्ट के 1 अक्टूबर, 2010 के अंक में एक रिपोर्ट ''बायोमीट्रिक्स: दि डिफरेंस इंजन: डूबियस सिक्योरिटी'' शीर्षक से प्रकाशित हुई थी जिसमें कहा गया था, ''बायोमीट्रिक पहचान हिंसा को न्योता दे सकती है। जर्मनी में उचक्कों ने एक आलीशान गाड़ी को हथियाने के लिए गाड़ी मालिक की उंगली काट ली क्योंकि गाड़ी में परंपरागत डोर लॉक की जगह फ्रिगरप्रिंट रीडर लगा हुआ था।''
ऐसे अप्रत्याशित परिणामों से सरकार को हालांकि कोई फ़र्क नहीं पड़ता और बायोमीट्रिक्स के विज्ञान में उसकी आस्था अक्षुण्ण बनी हुई है। ऐसा लगता है कि इस आस्था के पीछे सच्चाई के बजाय कुछ और ही मामला है। यहां बुनियादी सवाल खड़ा होता है: क्या इंसान के शरीर में कोई ऐसा जैविक पदार्थ मौजूद है जिसमें ऐसा जैविक डेटा हो जो अमर्त्य, स्थायी और नश्वर है? जो इसका जवाब हां में देते हैं वे विज्ञानवाद के दोषी हैं और देखा जाये तो ऐसे लोग असली विज्ञान को ही बदनाम कर रहे हैं। दरअसल, एक तरह से यह अवैज्ञानिक मनोवृत्ति का प्रदर्शन है।
यह ध्यान देने वाली बात है कि ऐसे प्रयास उस दिशा में जा रहे हैं जहां बहुत जल्द ही रोजगार देने के लिए नियोक्ता परंपरागत बायोडेटा की जगह बायोमीट्रिक डेटा की सीडी या कार्ड की मांग करने लगेंगे। इससे भेदभाव और अलगाव की आशंका और बढ़ेगी। बायोमीट्रिक को सच्चाई का पता लगाने वाली प्रौद्योगिकी बताकर लोगों के गले से नीचे उतारा जा रहा है। वास्तव में, नागरिक अधिकारों को पाने के अधिकार का ही इससे हनन हो रहा है, मसलन भारत को लें जहां यदि नागरिक बायोमीट्रिक तरीके से यह साबित करने में नाकाम हो गया कि वह जो होने का दावा कर रहा है वह वही है, तब इस प्रौद्योगिकी में मौजूद त्रुटियों की दर और इसकी अविश्वसनीयता का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।
जिस तरह भारत में आधार संख्या या दुनिया के सबसे बड़े बायोमीट्रिक डेटाबेस प्रोजेक्ट के माध्यम से भारतीय नागरिकों की पहचान सुनिश्चित करने की कोशिशें की जा रही हैं, ऐसे में ज़रूरी यह है कि अकादमिक, विशेषकर विज्ञान के क्षेत्र से और संसद, सुप्रीम कोर्ट, विधानसभाओं व उच्च न्यायालयों की ओर से इस बात की पड़ताल की जाए कि ऐसा करने के लिए बायोमीट्रिक्स एक विश्वसनीय तरीका है भी या नहीं।
एसबेस्टस का मामला
एक अन्य उदाहरण लें। एसबेस्टस एक ऐसा खनिज फाइबर है जिसके बारे में ठोस तौर पर वैज्ञानिक निष्कर्षों के साथ यह स्थापित हो चुका है कि सफेद एसबेस्टस समेत हर किस्म का एसबेस्टस फेफड़ों का कैंसर पैदा करता है जिसका इलाज संभव नहीं है। लेकिन रूस जैसे देशों से सफेद एसबेस्टस आयात करने वालों में भारत दुनिया का सबसे बड़ा देश है। ऐसा इस तथ्य के बावजूद कि 55 से ज्यादा देशों के सभी वैज्ञानिक संगठनों समेत विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी यह सिफारिश की है कि फेफड़ों के कैंसर जैसी लाइलाज बीमारियों से बचने का इकलौता तरीका एसबेस्टस को प्रतिबंधित किया जाना है क्योंकि सफेद एसबेस्टस का सुरक्षित और नियंत्रित उपयोग संभव ही नहीं है।
इसके उलट भारत की वैज्ञानिक संस्थाओं, जैसे अहमदाबाद के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ ऑक्युपेशनल हेल्थ ने ठीक इसका उलटा निष्कर्ष दे डाला क्योंकि उसके अध्ययन कथित तौर पर एसबेस्टस उद्योग से प्रायोजित थे। प्रायोजकों की ज़रूरत के हिसाब से वैज्ञानिक निष्कर्षों में उलटफेर करना भी विज्ञानवाद है। ज़ाहिर है कि भारत के लोगों में ज़हरीले फाइबरों के प्रति कोई रोग प्रतिरोधक क्षमता नहीं है फिर भी सरकार ने विज्ञानवाद का दामन नहीं छोड़ा।
याद रहे कि डायॉक्सिन, जिन्हें मौत के परमाणु कहा जाता है, उनका इस्तेमाल “एजेंट-ऑरेंज” के नाम से अमेरिका-वियतनाम जंग में किया गया था। दोनों देशों के पूर्व सैनिक अब तक इस रसायन से पैदा हुए स्वास्थ्यगत खतरों से जूझ रहे हैं। वियतनाम की पारिस्थितिकी और खाद्य श्रृंखला में यह ज़हरीला रसायन घुल-मिल चुका है और अब तक साफ़ नहीं हुआ है। इससे सबक लेने के बजाय भारत सरकार ने समूचे देश में अस्पतालों आदि का कूड़ा जलाने के लिए ऐसे 500 इनसिनरेटर यानी डायॉक्सिन छोड़ने वाली भट्टियाँ लगाने का प्रस्ताव किया है। ''संस्थागत विज्ञान'' के तहत ऐसे अवैज्ञानिक फैसलों का समर्थन या उस पर चुप्पी साध लेना भी विज्ञानवाद का ही हिस्सा है।
वैज्ञानिक इस बात की खोज करते रहे हैं कि दुनिया में सबसे छोटे कण कैसे काम करते हैं। यह ज्ञान मानवता के लिए लाभकारी रहा है, लेकिन इन कणों से होने वाले दीर्घकालिक और व्यापक जोखिम की आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता और इसके लिए बचावकारी सिद्धांत की जरूरत है। नैनो प्रौद्योगिकी की पत्रिका नैनोमेडिसिन में कहा गया है कि नैनो आकार के कण (जिनका आकार मीटर के अरबवें हिस्से तक जा सकता है) मस्तिष्क और रक्त के विभेद, यहां तक कि कोशिकाओं के कसे हुए उस आवरण में भी सेंध लगा सकते हैं जिनसे मस्तिष्क को जीवाणुओं और नुकसानदायक परमाणुओं से सुरक्षा मिलती है।
पत्रिका कहती है कि ऐसे कण मानव शरीर को बड़ा नुकसान पहुंचाने में सक्षम हैं। दूसरी ओर कुछ न्यूरोविज्ञानी सोद्देश्यपूर्ण तरीके से ऐसे नैनोकण बना रहे हैं जो मस्तिष्क-रक्त की दीवार को तोड़ पाने में सक्षम हों ताकि वे मस्तिष्क के बीमार हिस्सों तक लक्षित और नियंत्रित तरीके से दवाएं पहुंचा सकें। पत्रिका कहती है कि ''बीबीबी यानि ‘ब्लड-ब्रेन-बैरियर’ को पार कर जाने वाले नैनो कण युद्ध के संदर्भ में एक गंभीर खतरा पैदा करते हैं''। ऐसे शोध पर एक बार साल भर की रोक भी लगायी जा चुकी है।
विज्ञानवाद के ऐसे मामलों में तो फिर भी बचाव की एक गुंजाइश मौजूद है, मसलन परमाणु और नाभिकीय रिएक्टरों को समय रहते खत्म किया जा सकता है लेकिन जीवांतरित या genetically modified (जी-एम) फसलों का मामला बहुत खतरनाक है जिसे न तो नियंत्रित किया जा सकता है और न ही उसे रोका जा सकता है। एक बार जीवांतरित बीज पैदा हो गए तो फिर उन पर मानवीय नियंत्रण खत्म हो जाता है और यह प्रक्रिया अपरिवर्तनीय हो जाती है।
विज्ञानवाद उस दर्शन से संबंध रखता है जो ज्ञान के अर्जन में विज्ञान को ही इकलौते रास्ते के रूप में बरतता है। इसका विचार यह है कि सिर्फ वैज्ञानिक दावे ही सार्थक होते हैं और इस तरह यह वर्ग विभाजन के प्रभावों की उपेक्षा कर देता है जैसे कि विज्ञान राजनीतिक रूप से कोई तटस्थ चीज़ हो। ये वर्गीय विभाजन वैज्ञानिक आचार और व्यवहार में पूरी तरह मौजूद होते हैं।
''वैज्ञानिक'', ''वैज्ञानिकता'', ''वैज्ञानिक प्रविधि'' और ''वैज्ञानिक मनोवृत्ति'' जैसे शब्दों का सराहना के लिए इस्तेमाल किया जाना विज्ञानवाद है। जब किसी समाज में असली विज्ञान और फर्जी विज्ञान के बीच का फ़र्क दिखाने के लिए कोई व्यक्ति पूर्वाग्रह ग्रस्त तरीके से जान-बूझ कर तकनीकी शब्दावली का इस्तेमाल करता है, तो वह विज्ञानवाद होता है। विज्ञान की कामयाबी को समझाने की तलब, विज्ञान की सीमा से बाहर के सवालों का जवाब जानने की कोशिश और वैज्ञानिक पड़ताल के पार किसी पड़ताल को अनदेखा करना भी विज्ञानवाद ही है।
विज्ञानवाद का ताल्लुक सिर्फ विज्ञान से नहीं बल्कि उस विज्ञान से भी है जिसे ‘जंक साइन्स’ कहा जाता है यानि ऐसे सिद्धांत जो साबित नहीं हुए हैं लेकिन जिन्हें वास्तविकता के तौर पर पेश किया जा रहा है। इसी तरह विज्ञानवाद संस्थागत विज्ञान और ‘मेड टू ऑर्डर’ विज्ञान से भी जुड़ा हुआ है। समुद्र में बह कर जा रहे नदी के पानी के बरबाद होने का दावा इसी श्रेणी में आता है।
ै। र्तनीय उन पर मानवीय नियंे क्या विज्ञान कभी भी अपनी जद में समूचे सत्य को समेट पाएगा? क्या सवालों का जवाब देने का इकलौता तरीका विज्ञान है? क्या विज्ञान को अपने आप में सत्य माना जा सकता है? जो ऐसा दावा करते हैं, उन पर विज्ञानवादी होने का आरोप लगेगा। तथ्य यह है कि ''विज्ञानवाद की पहुंच उसकी जद से बाहर है''।
यदि कोई ‘ओपिनियन-पोल’ यह दिखाता है कि वैज्ञानिकों का एक बड़ा हिस्सा अपने बेडरूम में किसी खास रंग की दीवारें पसंद करता है, तो क्या ऐसी प्राथमिकता को ''वैज्ञानिक'' करार दिया जा सकता है?
विज्ञान के कई क्षेत्रों में कई वैज्ञानिक खुद इस बात को जानते हैं कि उनके कई सिद्धांत या तो गलत हैं या अटपटे हैं। ऐसी परिस्थिति में यही कहा जा सकता है कि विज्ञान के भीतर जो कुछ भी मौजूद है उसका वैज्ञानिक तरीके से बचाव किया जा सकता है। विज्ञान का इतिहास दिखाता है कि कैसे कुछ सिद्धांतों को हमेशा के लिए त्याग दिया गया।
बहुत पहले प्रतिष्ठित गणितज्ञ और वैज्ञानिक डी डी कोसाम्बी ने कहा था कि विज्ञान, विज्ञान का इतिहास भी है क्योंकि विज्ञान की संचयी प्रकृति को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि विज्ञान की हर अहम खोज दरअसल इंसान के वैज्ञानिक ज्ञान के भीतर ही समाहित हो जाती है जिसका बाद में कभी उपयोग होता है। किसी खोज में जो कुछ अनिवार्य है, वह इंसानी ज्ञान में समाहित होकर तकनीक की शक्ल ले लेता है। उन्होंने 1952 में एक निबंध लिखा था जिसमें अपनी पसंद के विषय पर शोध करने के लिए किसी वैज्ञानिक की स्वतंत्रता की बात उन्होंने की थी।
कोसाम्बी लिखते हैं, ''मैंने 1949 में महसूस किया कि अमेरिकी वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी वैज्ञानिक स्वतंत्रता के सवाल को लेकर बहुत चिंतित थे यानी अपनी पसंद का काम करने की वैज्ञानिक की आज़ादी के बारे में लेकिन दूसरी तरफ उन्हीं लोगों को अनुदान मिल रहा था बड़े कारोबारों, युद्ध विभागों या ऐसे विश्वविद्यालयों से जिनको पैसा कई ऐसे ही स्रोतों से मिल रहा था। फिर ये वैज्ञानिक ऐसे समाज में रह रहे थे जहां जिसका खाया जाता उसी का गाने का दबाव था, उसके बावजूद ये लोग इस बात को नहीं समझ सके कि विज्ञान अब उस तरह से 'आत्मनिर्भर' नहीं रह गया था जैसा उस शुरुआती दौर में था जब आधुनिक विनिर्माण और उत्पादन का विस्तार हो रहा था। आज का वैज्ञानिक एक कहीं ज्यादा संकुचित व एकीकृत, जबरदस्त रूप से शोषित सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा है...।'' उस वक्त विज्ञान का जो राजनीतिक अर्थशास्त्र कोसाम्बी ने बताया था, वह आज भी अपरिवर्तित है।
विज्ञान ने समाज को वैसे ही प्रभावित किया है जिस तरह समाज ने विज्ञान को प्रभावित किया है। विज्ञान को इस तरह गढ़ा गया है कि उसका काम उपलब्ध आंकड़ों में एक व्यवस्था की पहचान करना हो गया है। दोनों के बीच संबंध है। विज्ञान ने आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक आचार-विचार को बदला है तो दूसरी तरफ उसने इसकी संरचना, विकास और उपयोग को बदले में बदल डाला है। जब तक विज्ञान वर्गीय हितों की सेवा में होता है, उसे सामान्यत: मानवता की सेवा से दूर रखा जाता है। व्यापक स्तर पर जनता को उसे तभी मुहैया कराया जाता है जब इस वर्ग का उससे हित होता हो।
मुख्य मसला यह है कि आखिर कितना विज्ञान इंसानी हालात की बेहतरी में खर्च किया जा रहा है और कितने का इस्तेमाल जीव-जंतुओं व धरती के संसाधनों के विनाश में हो रहा है, जिसमें सैन्य-खनन-औद्योगिक-डेटा प्रतिष्ठान की छत्रछाया में लगातार फैलता हथियार उद्योग भी शामिल है।
जैसा कि अतीत में हुआ है, विज्ञान का मार्ग आज भी उस प्रभुत्वशाली वर्ग के हितों द्वारा ही निर्देशित हो रहा है जिसने पीढि़यों व प्रजातियों के बीच समानता तथा इंसानी कीमत के मसलों की उपेक्षा कर दी है।
विज्ञान को जहां विज्ञानवाद से एक खतरा है चूंकि यह 'कट्टर संशयवाद' तक हमें ले जा सकता है, वहीं सभी वैज्ञानिक अनुशीलनों को संस्थागत आर्थिकी व प्रबंधन से खतरा है जो विज्ञान का चोला पहनकर उभर आए हैं।
जो लोग जान-बूझ कर या अनजाने में भी असली विज्ञान की पहचान संस्थागत विज्ञान में करते हैं वे भी विज्ञानवाद के चक्कर में हैं। इस विज्ञानवाद की जड़ें हमारी असमतापूर्ण सामाजिक संरचना के भीतर हैं इसलिए यह एक संरचनागत बाध्यता की शक्ल ले लेता है। एक प्रबुद्ध राजनीतिक हस्तक्षेप ही इस संरचना को बदल सकता है। अगर ऐसा नहीं होता, तो आने वाली पीढि़यों के लिए मां का दूध विषमुक्त रखने का विज्ञान कैसे जन्म ले पाता
*The author is a noted environmentalist and a law and public policy analyst. He is also the editor of www.toxicswatch.org The original article was written in English and has been translated by Abhishek Srivastava.