मां सरस्वती, जो एक अन्नपूर्णा भी थीं...

राजेन्द्र भट्ट | साहित्य | Aug 28, 2024 | 621

पृष्ठभूमि

यह प्रसंग एक अनुपम शिक्षिका को श्रद्धा से याद करने  का है, मेरे लिए यह ऐसा भी प्रसंग है कि कैसे पहचान-पुरस्कार मिलने से अहम् पिघल जाता है। संकोच से कहना है कि इस प्रसंग में ‘मैं’ आएगा,  अश्लील आत्म-प्रचार के लिए नहीं,  ‘मैं’ की इस भावमयी कामना के साथ कि उसमें जो कोमल है, सुंदर है; वह दबा-घुटा ही न रह जाए, उसे पास के, दूर के सुनें – ‘मुझे’  भला-भला सा लगे, वह पूरे समाज में भले-भले का हिस्सा  हो जाए, उसे बढ़ाए। अगर पढ़कर ऐसा  लगेगा तो लिखा सार्थक समझूँगा।

मुझे बचपन से पढ़ने का, और फिर लिखने का शौक था। मनोरम पत्रिकाएँ देख कर मन ललचाता था कि इनके पन्नों तक मेरी भी पंहुच हो सके। वह सोशल मीडिया और तकनीक के जरिए अपने को सीधे पेश और प्रचारित कर पाने का ज़माना नहीं था। संपादक एक दिव्य आभा-सम्पन्न व्यक्तित्व लगता था जिसकी कसौटी पर खरे उतर कर, कुम्हार की तरह उसके थपका देने से ही आपकी अभिव्यक्ति लोगों तक पंहुच सकती थी।

और फिर ऐसी सरकारी नौकरी मिली कि पद के आगे ‘संपादक’ लग गया। फिर तो, अगले करीब चार दशकों तक ‘संपादक’ बना रहा- पत्रिकाओं का, किताबों का और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में समाचार बुलेटिनों/कार्यक्रमों का।

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लोगों को तरह-तरह की मूर्त-अमूर्त प्रेरणाएँ मिलती हैं जो उन्हें सुख देती हैं, यश देती हैं।  मेरी शुरू से प्रेरणा रही है बेचैनी (एंग्ज़ाईटी), जिसने मुझसे ठीक-ठाक काम करवा लिए। मुझे लगा कि पत्रिकाओं-किताबों में नाम के साथ संपादक तो छपने लगा है लेकिन मेरे पास तो न उसकी कोई प्रोफेशनल योग्यता है, न पारिवारिक-सामाजिक परिवेश।

मेरे सपनों की कैशोर्य-यौवन की उम्र, मेरे ‘संपादक’ बन जाने का काल (1970 और 1980 के दशक) पत्र-पत्रिकाओं के गौरव का काल था। (इतने नाम हैं कि) इस लेख का विषय भटक जाएगा, लेकिन हिन्दी-अंग्रेजी अखबारों-पत्रिकाओं के अनेक ज्ञान-दीप्त, अनुभव-दीप्त संपादकों का तब अनुपम प्रभा-मण्डल था जिसकी इस जुगनू-काल की पीढ़ियाँ कल्पना नहीं कर सकती। बस, बात समझा पाने के लिए  मूर्त उदाहरण – धर्मवीर भारती के सम्पादन में ‘धर्मयुग’ और आनंद जैन के सम्पादन में ‘पराग’ का रखता हूँ जिन्हें देख कर, पढ़ कर मुझे ज्ञान और सुरुचि की समझ हुई। कैसे तो वे गुणी लेखक थे जो शब्दों के जरिए, शब्दों में न पकड़े जाने वाले अनुभवों को ऐसे लिख पाते थे कि आँखों और दिल को जैसे जुबान और कलम मिल  जाती हो; और कैसे तो वे संपादक थे जो उस लेखन  को जाँचते, शिल्प को तराशते थे, और फिर उन अलग-अलग रचनाओं को पत्रिकाओं के पन्नों के कैनवास पर ऐसे बिछा देते  थे कि मनभावन  कृति बन जाए। ‘धर्मयुग’ और ‘पराग’ के उन सजे-लुभावने पन्नों की स्मृतियाँ  मेरे मन में बसी थीं। मुझे लगता है कि उन कृती संपादकों के मन में भी पहले छ्वि बस जाती होगी, जिसे वे पृष्ठ-दर-पृष्ठ उतार देते होंगे।

तो मेरी बेचैनी, मेरी शैक्षिक-परिवेशीय-सामाजिक कमियों के साथ, मुझे यह भी एहसास कराती रही कि मैं तो ऐसा प्रतिभा-सम्पन्न हूँ नहीं, पर संपादक बन गया हूँ। कहीं बुरी तरह ‘फेल’ न हो जाऊँ!

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मैं शुरू में ही, और काफी समय तक बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका ‘बाल भारती’ के संपादन से जुड़ा रहा। तो इसी बेचैनी की प्रेरणा से, मैंने गुणी संपादकों की उक्त पत्रिकाओं की मन में बसी छवियों को अपनी पत्रिका में मेहनत से उतारना शुरू किया। साथ ही, जब भी प्रतिष्ठित संपादकों-लेखकों से संपर्क होता, उनसे कथ्य-शिल्प की बारीकियाँ भी समझने की कोशिश करता रहा। जो प्रिंटिंग-प्रोडक्सन और आर्ट से जुड़े सहयोगी थे, उनसे भी बुनियादी बातें समझने की कोशिश की। सौभाग्य से, वह समय ‘मल्टी-टास्किंग’ का नहीं था। संपादक केवल कथ्य देखता, संवारता था, कला-प्रस्तुति पर अपनी ‘कल्पना’ दे देता था, जिसे तकनीक और  शिल्प से दूसरे लोग संवारते थे। बस, उनके साथ सौहार्द्र और विनम्रता बनाए रखना ज़रूरी था।

मुझे लगता है, परिणाम ठीक रहे। मेरे मन में पूरी पत्रिका की  छवि बन जाती थी। मैं कथ्य पर भी मेहनत करता था, ‘इंट्रो’, ‘बॉक्स’ वगैरह बना कर, चित्र और कथ्य-प्रस्तुति के ‘विचार’ सुझा कर जो करता था, वह मेरे वरिष्ठ-जनों, साथियों को पसंद आने लगा और मुझे भी भला-भला सा लगने लगा कि यही तो छवि मन में थी, जिसने कुछ-कुछ आकार ले लिया है।

शायद इससे मन में थोड़ा-सा ‘सात्विक’ अहं भी बस गया कि मैं रचनाओं को समझ, जांच और तराश सकता हूँ और उन्हें सही से सजा सकता हूँ जो  लेखक को, मुझे, अधिकारियों-साथियों और शायद पाठकों को भी अच्छा लगता है। सौजन्य-सराहना के रूप में प्रमाण भी मिले।  यह अहं ‘सात्विक’ इसलिए भी था कि इसमें किसी के लिखे को तराश कर उसे सम्मानित, भला महसूस करने का मौका देने का भाव था। इसी उत्साह में, मैं लेखकों/ अन्य पेशेवरों  की ‘हैंड-होल्डिंग’, उनकी सुविधाओं, उनके मानदेय के लिए भी सरकारी ज़िम्मेदारी के दायरे से कुछ आगे चला जाता था। बदले में मुझे स्नेह-सौहार्द्र मिलता था।

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लेकिन मुझे ऐसे पुरस्कार, सम्मान नहीं मिले कि लटकाए-पहने जा सकें ताकि सनद रहे। शायद उन्हें पाने लायक आग्रह-प्रयास, सजगता और एकाग्रता नहीं रही।

लेकिन आगे जो प्रसंग  दे रहा हूँ, उससे मुझे सनद  रखने लायक पुरस्कार भी मिला, योग्यता का अहं भी विसर्जित हुआ।

अहं-विसर्जन 

यह 1997 की बात है। मैं ‘बाल भारती’ का सहायक संपादक था। मेरी संपादक – डॉ. वसुधा गुप्ता बेहद भली और उदारमना थीं। मुझे काम करने और प्रयोग करने के पूरे अवसर मिलते थे। उनके नेतृत्व में बहुत सकारात्मक माहौल था। 

सूती साड़ी में अनमनी-सी जो महिला आई थीं, लगता था, दफ्तरों के माहौल में असहज थीं। आप अपने घर-पड़ोस में, बिना किसी बनावट के जिस मां को, परिवार की सयानी को देखते हैं, वह वैसी ही थी।

उन्होंने बताया कि उनका नाम बिमला सहदेव है, दिल्ली के गोल मार्केट इलाके में प्राइमरी अध्यापिका हैं। फिर उन्होंने, अपने बैग से कुछ कागज निकाले और बिना लाग-लपेट के बोलीं, “ये कविताएं मेरे बच्चों की हैं। इन्हें छाप दीजिए।“

इस एकदम मांग के बाद वह रवां हो गईं कि वह अपनी कक्षा के बच्चों को पाठ्य-पुस्तकों के अलावा भी किताबें पढ़ने को, आशु-कविताएं लिखने को प्रोत्साहित करती हैं। बाहर बरसात होने लगे, तो बरसात की कविताएं। मौसम की, देश-समाज की, मन के किसी भी भाव की कविताएं। वह बच्चों को पुस्तक-मेलों में ले जाती हैं, कोई बच्चा  बीमार हो तो सब मिलकर उसके घर जाते हैं; बच्चों की कविताओं की हस्त-लिखित पुस्तकें बना देती हैं, सजा देती हैं।  उनकी बेतरतीब बातों के बीच झलकता अनुराग संक्रामक था। हमारी पूरी टीम अब उनकी बातें सुन रही थी।

लेकिन बच्चों की वे सीधी-सच्ची कविताएं अनगढ़ थीं। छपने लायक नहीं लग रही थीं। अपने को काबिल संपादक मानने के भाव से, मैंने ‘आइडिया’ दिया: ‘आप बच्चों के लेखन और व्यक्तित्व को गढ़ने वाली अपनी बातों को ज्यों का त्यों, एक लेख की शक्ल में लिख दें, बच्चों के फोटो भी दे दें। सितंबर यानी ‘शिक्षक दिवस’ वाले अंक  पर काम चल रहा है। मैं (अपने सम्पादन-कौशल से!) लेख को ठीक कर दूंगा, इन कविताओं को भी साथ में सजा दूँगा, प्रासंगिक बना दूँगा।‘

वह अनमने भाव से कहती रहीं कि उन्हें लिखना नहीं आता, उनकी इच्छा भी नहीं है। ‘बस, मेरे बच्चों की कविताएं छाप दो, उनको अच्छा लगेगा।‘

मैंने फिर उन्हें ‘प्रोत्साहित’ किया, उनका लिखा ‘सुधारने’ की तसल्ली दी।  आधे मन से वह मान गईं।

कुछ दिन बाद जो लिखकर लाईं, वह मेरे अहं को पिघलाने वाला था। एकदम दिल से निकले, कागज पर फिसलते शब्द और भावनाएँ। मुझे लगता था कि लेख की शुरूआत में कुछ चौंकाने वाली  बात, कुछ सलमे-सितारे हों तो पाठक आकर्षित होता है। लेकिन यहाँ तो  बिना किसी अलंकरण के, एकदम सीधी-साधी, पर मन को समृद्ध करने वाली अप्रत्याशित, सधी हुई  शुरूआत थी -  माँ जैसी, शिक्षिका जैसी, किस्सागोई जैसी: 

“मैंने लंबे अध्यापन काल को कभी सुस्ताने नहीं दिया। हमेशा उसमें नए रंग भरे। अपने पढ़ाने की विधि को नए तरीके देती रही।

बच्चों के दिल में झांकना मुझे बहुत अच्छा लगता है। जब भी मैंने उनके दिल में झाँका, मैं एक प्रकार से उनमें लीन हो गई। बच्चों के मन की गहराइयों को छूते हुए मैंने अपने अध्यापन कार्य को सजाया-संवारा। .......  

फिर उन्होंने बच्चों द्वारा मौलिक कविताएं सुनाए जाने, बड़े कवियों की कविताओं को सजा कर लिखने का भाव-भरा (लेकिन बिना अलंकारों-विशेषणों के) विवरण दिया। बच्चों की साहित्य में रुचि बढ़ाने के लिए  सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘कदंब का पेड़’ जैसी सुंदर कविताओं के नाट्य-रूपांतर का भी जिक्र था।

ध्यान रखें, यह सब सरकारी स्कूल में एक सरकारी अध्यापिका कर रही थीं।

और यह भी हुआ:

“मैं बच्चों की कविताओं को डिसप्ले बोर्ड पर लगाने के लिए रंगीन पैन से लिख रही थी। मुझे एक बच्चे ने बताया कि पूनम रो रही थी और कह रही थी कि मैडम अमीर बच्चों की कविताएं ले रही हैं। मेरी कविता नहीं ले रही हैं........ मैंने उसे अपने पास बुलाया। उसकी कविता देखी, उसे प्यार किया, क्षमा मांगी कि मैंने तुम्हें कष्ट दिया। काव्य प्रतियोगिता में पूनम की कविता ‘वह आदमी क्या’ तीसरे स्थान पर आई।“

फिर बच्चों को साहित्य और मानवता से समृद्ध बनाने के उनके उन प्रयासों का जिक्र था जो वह अपनी पिछली बातचीत में बता चुकी थीं। वह बच्चों  की काव्य-गोष्ठी करतीं, उन्हें अपने पैसों से पुरस्कृत करतीं, उनका हौसला बढ़ाने को उन्हें किताबें भेंट करतीं।  खुद पुस्तकें लाकर उन्होंने कक्षा में एक खुला पुस्तकालय बना लिया था। ‘कभी कोई पुस्तक खोई नहीं। कुछ बच्चे तो किताबों पर जिल्द भी घर से करवा लाते थे।‘

बच्चों को सामाजिकता का पाठ देने वाला एक रोचक-प्रेरक प्रसंग था:

        “मैं बच्चों को पत्र लिखने को प्रेरित करती थी। स्वयं अपने हाथ से पता लिखकर देती थी कि अपने मित्र को पत्र लिखें। इस तरह से 10 बच्चों ने आपस में पत्र लिखे। बच्चों के घर जब पत्र पंहुचे तो पत्रों को स्कूल लाए। उनकी प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं था।“ 

बिमला जी ने अपनी कक्षा की दो बच्चियों की कविता की पहले तो हस्तलिखित किताबें सजा कर बनाईं और फिर छपवाई भी। इनमें एक मार्मिक प्रसंग गंभीर रूप से बीमार एक बच्ची को फोन पर कविता लिखने को प्रोत्साहित करने  और फिर उसकी किताब बनाने का है।

इस लेख की ज्योति और सुगंध ने बच्चों की नन्ही कविताओं को भी ज्योतित कर दिया, महका दिया। वे इस लेख की समग्र आभा का अंग बन गईं। इन काव्य-अभिव्यक्तियों से पता चलता है कि एक शिक्षिका कैसे एक सौम्य, आदर्शमयी, मानवीय पीढ़ी गढ़ रही हैं। कुछ कविताओं की बानगी देखिए:

मैंने अनपढ़ माँ को /पढ़ाने की कसम खाई है

ज्ञान क्या होता है/ मैं माँ को बताऊँगी।

क्या होती है शिक्षा / मैं माँ को सिखाऊंगी

******

अच्छे बच्चे/ प्यारे बच्चे ...सत्य बोलना, झूठ से बचना ...

तुम आपस में प्रेम बढ़ाना..../ नन्हें दीप, दुलारे बच्चे...

*******

वह आदमी क्या/...जो देश को अपना न समझ सके .../जो देश की खातिर कुछ न कर सके...

कितने उम्मीद  भरे हैं ये नर्म मिट्टी में उकेरे जा रहे संकल्प!

 और उन्होंने लेख समाप्त किया:

“अगर हर अध्यापक-अध्यापिका अपने पेशे की गरिमा समझे और बच्चों के प्रति अपने दायित्व को निभाए तो बच्चों से वही सम्मान और प्रेम हासिल कर सकेंगे, जो मुझे मिला है। इससे उन्हें जीवन में पूर्णता का एहसास होगा।“

ऐसा लगता था कि किसी छलनी से भाषा में से सारी आत्म-मुग्धता, आडंबर और नकारात्मकता छान ली गई हो। जो बचा है –निर्मल है, धवल है।

सोचिए, मैं, बिना उनको पढे,  ‘उनकी भाषा संभाल लेने’ का दिलासा दे रहा था! इस लेख ने बच्चों के लिए लिखने और संपादित कर पाने के मेरे उत्साही (भले ही सात्विक) अहं को ठिकाने लगाया। मुझे दिल से लिखी गई अकृत्रिम भाषा का जादू समझ में आया।

(एक छोटा विषयांतर: अनेक दूसरे प्रसंगों में भी, जहां एक ओर मुझे कई पाण्डुलिपियों को सुधारने-सँवारने और तथ्यात्मक रूप से दुरुस्त करने में खूब मेहनत करनी पड़ी और (थोड़ी अहं-मिश्रित) सार्थकता मिली, वहीं ऐसे सौम्य विद्वानों की  लिखी सामग्री भी  मिली, जिसके ‘सम्पादन के प्रयास’ (तब हाथ से लिखकर पाण्डुलिपि का सम्पादन होता था) शुरू करने के कुछ ही समय बाद पता चल जाता था कि कलम को इसलिए अलग रख  देना चाहिए कि इस सुंदर, विद्वतापूर्ण रचना को अपनी सीमित क्षमता और समझ से गंदा न कर बैठूँ।   अगर कोई शंका-जिज्ञासा हो तो अलग कागज पर लिखकर विद्वान लेखक/लेखिका  से विनम्रता से पूछ कर उनके लेखन पर हाथ लगाऊँ। ऐसे कई लेखकों ने मुझे समृद्ध किया है, आशीर्वाद दिया है।)

बिमला सहदेव जी के प्रसंग  पर लौटें। जब पत्रिका छ्पी (प्रकाशित लेख संलग्न है), तो बिमला जी आईं। ड्राइवर के साथ आई थीं। दोनों के हाथों में बड़े-बड़े पैकेटों में खाने का सामान था – ढोकले, समोसे, मिठाइयां। आज उनकी (और उनके युवा, शर्मीले, मुस्कराते ड्राइवर की भी) प्रसन्नता बेमिसाल थीं। उन्होंने सरकारी दफ्तर में उत्सव ला दिया। वह मां जैसी मनुहार से खिला रही थीं।

और मैं सोच रहा था – हमारी परंपरा में जो देवी सरस्वती हैं, वही तो अन्नपूर्णा भी हैं!

पचास पृष्ठ का प्रमाणपत्र

मैं सम्बन्धों को बनाए रख पाने में कमजोर हूँ (लाभ उठा पाने में भी)। एक के बाद दूसरी असुरक्षा, बेचैनी मेरा पीछा नहीं छोडतीं। ‘बाल भारती’ में बिमला जी की रचना छापने के बाद, मैं इस सिलसिले को भी आगे नहीं बढ़ा सका। कुछ साल दूसरे दफ्तरों में रहा। 2006 के अंत में, वापस फिर प्रकाशन विभाग लौटा – जहां से ‘बाल भारती’ और अन्य पत्रिकाएँ-किताबें छपती हैं।

2007 में बिमला जी फिर मेरे दफ्तर आईं। मुझे ढूंढ लिया। बहुत खुश, गदगद हुईं। वह वर्ष 2000 में सेवा-निवृत्त हो चुकी थीं लेकिन उनके विशाल ‘बाल-परिवार’ (जिनमें अब कई वयस्क और घर-परिवार वाले थे) से उनका रिश्ता बना हुआ था, बल्कि फैलता जा रहा था। उनके पास कई योजनाएँ, और वही उत्साह था। 

कुछ ही दिनों में, (11 अक्तूबर 2007 की लिखी) सुंदर से लिफाफे में उनकी चिट्ठी आई – बिना लाग-लपेट, सीधे विषय पर। मन की सुंदरता जैसे ही अक्षर। मेरे पुरस्कार का ट्रेलर: ‘प्रिय राजेंद्र, सस्नेह आशीर्वाद’ से शुरू। आगे:  

मैं कुछ लिख रही हूँ। तुम्ही बताओगे, कैसा है। कुछ बच्चे भी काम कर रहे हैं। ...... बच्चों में कविता (की) दोबारा से ललक जागी है तुम्हारे कारण। एक हस्तलिखित तैयार कर रही हूँ -तुम्हारे लिए।  

 और जल्दी ही (27 अक्तूबर को) दूसरी चिट्ठी उनकी एडवोकेट पुत्री ज्योतिका कालरा लेकर आईं। लिखा था: ‘आज भी ... घर में आकर पढ़ने वाले बच्चे ,,आते हैं तो  .... सुखमय वातावरण बन जाता है। ... ऐसा लगता है जैसे फूल-पत्ते-पक्षी सब प्रसन्न हैं। ‘एक नई स्फूर्ति फिर लौट आई, जब तुमने कहा कि बच्चों से काम करवाओ और कुछ लिखो भी।....’

और इसके साथ था मेरा अद्भुत-अनूठा पुरस्कार, जैसा शायद ही किसी संपादक को उसकी लेखिका ने दिया होगा। मेरे लिए पचास पृष्ठ की पूरी हाथ से लिखी किताब थी - उनके शब्दों में: ‘मैंने स्वयं कुछ नहीं लिखा – सिर्फ लिखाई मेरी है। मन की गहराइयों से पुस्तक का निर्माण किया है, सजाया है।‘ और फिर लिखती हैं –‘कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा। भानुमती ने कुनबा जोड़ा।‘

अद्भुत है यह भानुमती का कुनबा। स्पाइरल बाइंडिंग। मोटे गत्ते के  कवर में साहित्यिक  पत्रिका के आवरण पृष्ठ  की सजावट। पूरी ‘किताब’ में कहीं फूल-पत्ते, कहीं साहित्यकारों के पत्र-पत्रिकाओं से काटे चित्र, कुछ हँसते-खेलते  ‘इमोजी’, एक बिल्ली का चित्र भी है। और विषयों की विविधता! महादेवी वर्मा, निराला, हंस कुमार तिवारी,  ज्ञानेंद्र पति, बनारसी दास चतुर्वेदी की कविताएं हैं; अब्राहम लिंकन की उनके बच्चे के स्कूल मास्टर को लिखी प्रसिद्ध चिट्ठी है; प्रेरक उद्धरण हैं, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का परिचय है। यानी जो भी सुंदर, जहां मिला, वह है – मोतियों जैसे हस्तलेख में – और हाँ, सहज में आई वर्तनी की गलतियाँ हैं – सलोने मुखड़े पर नजरबट्टू जैसी। कुछ पन्ने संलग्न हैं -अच्छे लगेंगे।

क्या तमाम जोड़-जुगाड़ के बाद भी किसी को पूरे पचास पृष्ठ का प्रमाणपत्र मिला है !  मुझे तो बिना प्रयास के मिल गया – वह भी ‘हैंड क्राफ़्टेड’ -खास मेरे लिए।

ताकि भलाई की सनद रहे

मैं फिर अपने बबालों में उलझ गया। अब करीब 15 और सालों के बाद, एक दिन यह ‘ट्रॉफी’ किताबों की अलमारी में तिरछी  होकर बता रही थी कि फालतू की झिझक और लापरवाही भी अच्छी नहीं होती। मुझे बिमला जी जैसे ही एक सुखद, सौम्य व्यक्तित्व - अनुपम मिश्र की अनुपम पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ का प्रसंग याद आया जिसमें एक राजा ने तालाब बनाने वालों के चार पुरखों  से कहा – ‘रोज एक अच्छा काम करो।‘ और उन्होंने तालाब बनाने शुरू कर दिए।‘  एक से दो, दो से चार, .... फिर हज़ार... निर्मल जल जैसी अच्छाई ऐसे ही तो फैलेगी।

मैंने सुस्ती छोड़ कर इस प्रसंग को दर्ज करने की शुरूआत की – ताकि अच्छाई की इस ट्रॉफी की सनद रहे। बिमला जी ने कभी अपने समृद्ध, प्रतिष्ठित परिवार का उल्लेख नहीं किया। धीरे-धीरे मुझे यह  पता चला। मुझे लगा कि इस लेख में, बिमला जी एक चित्र तो होना ही चाहिए। नौकरी के ही दौरान, एक बार सरकारी तौर पर बिमला जी के सुपत्र और दिल्ली हाई कोर्ट के एडवोकेट श्री राजेश गोगना से संपर्क हुआ था। मैं बिना ‘अपोइंटमेंट’ लिए उनके दफ्तर चला गया। वहाँ दोहरे बोनस के तौर पर उनकी बहन सुश्री ज्योतिका कालरा से भी मुलाक़ात हुई।

यह सुशिक्षित और सामाजिक सरोकारों से सम्पन्न परिवार है। बिमला जी के पति आर.गोगना वकील थे और साहित्य और संगीत में गहरी रुचि और पकड़ रखते थे। उनके पुत्र राजेश गोगना दिल्ली उच्च न्यायालय में वकील हैं और भारत सरकार के स्टेंडिंग काउंसेल हैं। वह ह्यूमन राइट्स डिफेंस ऑफ इंडिया संस्था चलते हैं। उनकी पुत्री ज्योतिका कालरा भी दिल्ली हाई कोर्ट में वकील हैं और राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की सदस्य रही हैं। भाई-बहन भी, अपनी मां की तरह सामाजिक कल्याण के अनेक कामों में जुटे रहते हैं।

राजेश-ज्योतिका जी से मिलना  मन को विभोर करने वाला अपनापा था। संस्कार-सिद्ध भाई-बहन ने अपनी मां की यादें साझा कीं। पता चला कि बिमला जी की सरल-सहज, निर्मल उत्साह के प्रशंसकों,  उनके प्राइमरी स्कूल की ‘गेस्ट फ़ैकल्टी’ में कमलेश्वर जी, बालस्वरूप राही और गगन गिल जैसे साहित्यिक नाम भी थे। उनकी स्मृति में उनके बच्चों ने ‘बिमला सहदेव मेमोरियल ट्रस्ट’ बनाया है। ज्योतिका जी ने बताया कि 1940 में लाहौर में जन्मीं और 1960 में जामिया मिलिया इस्लामिया से अध्यापन की ट्रेनिंग ली हुई बिमला जी ने उस जमाने में भी अपनी  पहचान बनाए रखते हुए – अपना विवाह-पूर्व का ‘सरनेम’ बनाए रखा। रिटायरमेंट के बाद भी, उन्होंने अभावग्रस्त बच्चों को स्नेह-प्रेम की अनौपचारिक शैली में शिक्षा देने के लिए  ‘मस्ती की पाठशाला’ खोली। वह इन बच्चों के कपड़ों, स्कूल बैग, स्टेशनरी और दूसरी जरूरतें भी मुहैया कराती थीं। अपने निधन से एक दिन पहले, यानी 9 जून 2012 को भी उन्होंने इन बच्चों को खिचड़ी और गुड़ की दावत दी। वह वाकई माँ सरस्वती और अन्नपूर्णा थीं।

उनके नाम का ट्रस्ट  बच्चों को छात्रवृत्तियाँ देने, पढ़ने-पढ़ाने और बाल साहित्य को बढ़ावा देने और अन्य कल्याणकारी काम कर रहा है।

यानी रोज भले काम हो रहे हैं, निर्मलता के नए तालाब बन रहे हैं, और मेरे ‘पुरस्कार’ के विवरण से ऐसा ही एक तालाब जुड़ रहा है।  

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लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से रागदिल्ली.कॉम में लिखते रहे हैं।

(डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के स्वयं के हैं। रागदिल्ली.कॉम के संपादकीय मंडल का इन विचारों से कोई लेना-देना नहीं है।)



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